Wednesday, May 22, 2013

ब्रेस्ट कैंसर के खतरे, पेटेंट के झगड़े, एंजलीना जॅाली और हम


हाल ही में हॉलीवुड सुपरस्टार एंजलीना जॅाली के एक इक़रारनामे ने हलचल मचा दी. इसमें इन्होंने कैंसर के खतरे से बचने के लिए डबल मैसटैक्टमी (सर्जरी द्वारा दोनों स्तन निकलवा दिया जाना) करवाना स्वीकार किया. लेकिन उसके तुरंत बाद ही उनके मिरियड जेनेटिक्स नामक फार्मा कंपनी से गठजोड़ की बात सामने आई और असल मुद्दा रफा- दफा हो गया. कोई उन्हें शूरवीर तो कोई मेडिकल  कार्पोरेट जगत का मोहरा बताने के चक्कर में है. ये कंपनी कैंसर की कारक ब्रैक१ और ब्रैक२ जीनों को पेटेंट कराने की कोशिश में है ऐसा होते ही इस टेस्ट की कीमत सौ गुना तक बढ़ सकती है. कई जगह ये तर्क भी पढ़ने को मिले कि ऐसी चिकित्सा भारतीय महिलाएं अफ़ोर्ड कर ही नहीं सकती.
अगर ये प्रचार का हथकंडा है तो भी हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि मिरियड कंपनी को एंजलीना की ईमेज की ज्य़ादा ज़रूरत है न कि एंजलीना को उनके पैसों की या फिर खुद को फ़रिश्ता साबित करने की. वो पहले ही विश्व की सफलतम, मशहूर और धनी महिलाओं में से एक है. भारतीय महिलाओं का कैंसर के इलाज का खर्च उठा सकें ये सुनिश्चित करना एंजलीना जॅाली की नहीं हमारे नीति नियंताओं की जिम्मेदारी है. अगर किसी के भी पास भरपूर संसाधन और पैसे हों तो वो बिना खर्च की परवाह किये अपनी सेहत के लिए उपाय- इलाज करेगा ही.

लेकिन जो बात  सबसे गौरतलब है वो ये कि ये सर्जरी बीमारी के बाद नहीं पहले की गयी है ताकि कैंसर हो ही न सके. ये एक आसान फैसला नहीं है. स्तन कैंसर कई सामाजिक और भावनात्मक कारणों से बाकी किसी भी कैंसर से अलग है. स्तन मुक्ति का निर्णय भी सांप काटे का जहर रोकने के लिए उंगली पर नश्तर चलवा देने से कहीं ज्य़ादा पेचीदा है. इसकी वजह ब्रेस्ट का महिलाओं के बाकी अंगों से थोड़ा अलग और थोड़ा अधिक महत्त्वपूर्ण होना है. इस थोड़ा अलग और थोड़ा अधिक को हम कई उदाहरणों से समझ सकते हैं- मॉडलों के लिये तय सौन्दर्य मानकों को देख लीजिये, बाज़ार में पैडेड ब्रा और सिलिकॉन ट्रांसप्लांट की उपलब्धि और लोकप्रियता पर नज़र डालिए या फिर किसी भी लड़की से उसके साथ हुई छेड़छाड़ के अनुभव पूछ डालिए. खुले आम स्तन- प्रदर्शन और इसकी बीमारी तक के बारे में बात करना अपराध तो नहीं लेकिन अश्लील हर समाज में माना जाता है. अगर याद हो तो कुछ समय पहले विवादित खिलाड़ी पिंकी प्रमाणिक, जिनका जेंडर संदेह के घेरे में था, की कुछ तस्वीरें मीडिया में आई थीं. इसमें एक पुलिस वाले ने उन्हें सीने के पास से अभद्र तरीके से पकड़ रखा था. कुछ तो अलग है इस अंग में!
इस थोड़े अलग और थोड़े अधिक महत्त्व की वजह से ये अंग लड़कियों की सेक्चुअलिटी, आकर्षण और धीरे- धीरे उनके आत्मविश्वास का भी अहम् हिस्सा बन जाता है. बीमारी को रोकने के लिए हम सब टीके- दवाएं आम तौर पर इस्तेमाल करते हैं. लेकिन कैंसर पैदा करने वाले जीन पाए जाने पर स्तनों से ही छुटकारा पा लेना आमतौर पर देखने में नहीं आता. हमारे समाज में लड़कियों की सबसे बड़ी उपयोगिता उनका बच्चे पैदा करने और पालने की क्षमता को ही समझा जाता है. बचपन से ही उनकी ये ट्रेनिंग शुरू हो जाती है. समय पे शादी करने, सिगरेट न पीने से लेकर तमाम मशविरे दिए जाते हैं ताकि उनके माँ बनने में दिक्कत ना आये. ऐसे में स्तन- मुक्ति सिर्फ एक निजी फैसला नहीं रह जाता.
इस ख़बर से किसी को हिम्मत मिली हो या न मिली हो, एंजलीना की स्वीकारोक्ती ने इस प्रतिबंधित विषय को मीडिया के जरिये हर घर के ड्राइंग रूम तक तो पहुंचा ही दिया है. हालांकि समाज के सौन्दर्य मानकों को वो भी धता- बता नहीं सकीं और ब्रेस्ट ट्रांसप्लांट करवा ही लिया. इसका एक कारण ये भी है कि जिस प्रोफेशन में वो हैं, उसमें रहकर सौन्दर्य मानकों की अनदेखी कर पाना मुमकिन नहीं है. कोशिश ये करनी होगी ये तमाम बहस कुछ ठोस बदलाव ला सके. औरतें फार्मा कंपनी के फैलाये आतंक के जाल में ना आये और ना ही सामाजिक दबाव में आकर अपने स्वास्थ्य की अनदेखी करें. साथ ही उनके पास इतनी जानकारी और संसाधन हों कि वो सोच समझ कर स्तनों को रखने या न रखने का फैसला ले सकें. इस खबर ने कम से कम शुरूआती माहौल तो तैयार कर दिया है.

Sunday, May 12, 2013

हमारी निकम्मी मम्मियां

उन्हें सारी चीज़ों के भाव रटे होंगे. वो दूधवाले के नागों का, कामवाली की छुट्टियों का, किराने की दूकान के उधारों का मुंहज़बानी हिसाब रखेंगी. फल- सब्ज़ी वालों से मोल- तोल करके सबसे सस्ता सौदा खरीद कर लायेंगी. पर बजट की घोषणा होगी तो आप अखबार झपट लेंगे- ‘ये पॉलिटिक्स है मम्मी, आप नहीं समझेंगी.’
ये दिन भर मिक्सी, कुकर, चूल्हे से जूझेंगी. वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव और फ्रिज के अति कॉम्प्लिकेटेड बटनों के साथ माथापच्ची करेंगीं. लेकिन कम्प्यूटर और कार की सीटों पर आप कुंडली मारकर बैठ जायेंगे- ‘ये नयी टेक्नॉलोजी है मम्मी, आप नहीं समझेंगी.’
ये सुबह आपको जगाएँगी. आपके इस्तेमाल की सब चीजें तैयार रखेंगी. घर से निकलने से पहले मोबाइल, पर्स, पैसे रख लेने की याद दिलाएंगी. आपके वापस आने से पहले आपका अस्त- व्यस्त किया कमरा कोरा- चिट्टा कर देंगी. बाहर आप माँ- बाप का प्रोफेशन पूछे जाने पर आप धीमे सुर में बोलेंगे- ‘मेरी मम्मी कुछ नहीं करतीं, वो हॉउसवाइफ हैं.’
आप के इस मनोवैज्ञानिक रोग की छूत धीरे- धीरे इन्हें भी लग गयी है. ये ना अपना मनपसंद खाना बनाएंगी, ना अपने कपड़े- लत्तों का ध्यान रखेंगी. आपके सर दर्द भर से इनके माथे पर शिकन आ जाएगी लेकिन अपनी बीमारियों को कोई बड़ी बात नहीं समझेंगी. कुछ पूछने पर कहेंगी- ‘अरे मेरा क्या है मैं कौन सी कामकाजी हूँ, दिन भर घर पर ही तो रहती हूँ.’
अगर आपकी मम्मियां भी ये सारे लक्षण दिखाती हैं- अपनी मर्जी का खाती- पहनती नहीं, दिन भर तेल- हल्दी से सने कपड़े लादे रहतीं हैं, अपने ऊपर पैसे खर्च करने से कतराती हैं, उनका फेवरेट कुछ भी नहीं है, सबकी पसंद को ही अपनी पसंद बताती हैं, कभी साथ बैठ कर खाना नहीं खाती, बाद में सबका बचा- खुचा बटोरती हैं. तो समझ जाइए कि आप बहुत बीमार हैं (आपकी मम्मी नहीं). आप ‘माय मदर डज़ नॉट वर्क सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं.
दरअसल कुछ काम करने का हमारा सीधा मतलब कुछ पैसे कमाने से है. जो कमाता नहीं, वो कुछ नहीं करता. इसी तरह जिस काम के लिए हमें ठोस मुद्रा के रूप में कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती उसकी हमें कोई क़द्र नहीं होती. हमारी मम्मियों का काम भी इसी श्रेणी में आता है. घर- बच्चे संभालने को किसी भी समाज में कोई बड़ा या बौद्धिक काम नहीं समझा जाता.
लड़कियों को जबरन घरेलू कामों की शिक्षा देना और उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें गृहकार्य और मातृत्व की तरफ़ धकेले जाना बुरा है. लड़कियां प्राकृतिक रूप से इन कामों में दक्ष होती हैं, ये हमारा भ्रम है. अगर ऐसा होता तो फाइव स्टार होटलों के शेफ से लेकर चाट का ठेला लगाने वाले तक, पड़ोस के दर्जी से लेकर फैशन डिज़ाइनर और नामी पेंटर- डांसरों तक सब के सब ज्य़ादातर पुरुष नहीं होते. लड़कियों को अपना करियर छोड़ कर घर पर ध्यान लगाने के शिक्षा देते रहना बुरा ज़रूर है लेकिन इसका हल घरेलू औरतों की अवमानना नहीं है. इसका हल उनके काम की क़द्र किया जाना है. अगर हम लड़कियों के डॉक्टर, इंजीनियर बनने की सराहना करते हैं तो उनके गृहणी बन जाने को उनकी शिक्षा का बेकार जाना क्यों समझ लेते हैं? अगर महिला अपनी मर्जी से घर- बच्चे संभालने का निर्णय लेती है तो इसमें कोई बुराई नहीं. बुराई है पहले तो उनको ऐसा करने पर मजबूर किये जाने में और फिर उनको घर में दोयम दर्जा देने में और ये समझने में कि जिस औरत ने सिर्फ बच्चे पैदा किये और घर संभाला उसने कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किया. सबसे भयंकर बात ये है कि खुद गृहणियों ने भी इन सारे पूर्वाग्रहों को सही मान लिया है. वो खुद भी अपने शारीरिक- मानसिक सेहतमंदी को प्राथमिकता नहीं देती. हमें खुद को और उनको भी ऐसी सोच से बचाना होगा. 
मेरी नजर में एक आदर्श समाज वो होगा जहाँ स्त्री- पुरुष में से कोई भी अपनी- अपनी क्षमता और रूचि के हिसाब से अपना काम चुन सकेंगे और अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को साझा कर सकेंगे.  इसके लिए उन्हें किसी की आलोचना का डर नहीं होगा. ना तो लडकियों के करियर चुनने पर कोई बंदिश होगी और न ही हॉउसवाइफ होने को पिछड़ेपन की निशानी समझा जाएगा. ऐसे समाज को बनाने के लिए सबसे पहले घर के कामों को और इन्हें करने वालों को उचित महत्त्व दिया जाना ज़रूरी है.

दो विशेष बातें-
१.      ये (उपदेश) लड़के और लड़कियों दोनों के लिए है. अपनी मम्मियों को निकम्मा मानने में हममें से कोई भी कम नहीं है!
२.      ये कोई मदर्स डे विशेषांक नहीं है. कुछ बीमारियाँ हमारी सोच और समाज को लगातार त्रस्त करती आ रहीं हैं. इनसे लड़ने की कोशिश भी उतनी ही व्यापक और निरंतर होनी चाहिए. ये डे- फे तो सिर्फ आर्चीज़- हॉलमार्क का भला करने के लिए बने हैं.




Sunday, May 5, 2013

खेल खेल में........

खेल खेल में क्या से क्या हो जाता है... लड़के नेशनल यूनिफॉर्म में मैदान में उतरते हैं और लड़कियां हाथ में झालरें लेकर आधे- अधूरे कपड़ों में चीयरगर्ल्स बनती हैं. वो देश का गौरव बढ़ाते हैं ये ग्लैमर बढ़ाती हैं. क्रिकेट की खबरों से पटे पड़े अखबारों से महिला क्रिकेट की खबरें नदारद हो जाती हैं. सानिया मिर्ज़ा की उपलब्धियां भले ही बिसर जाएँ पर उनकी नथ ज़रूर याद रह जाती है. जेंडर हमारे जीवन में जाने- अनजाने किस हद तक घुस आता है ये जानने के लिए ज्यादा पोथियाँ पढ़ने की जरूरत नहीं बस स्पोर्ट्स की खबरें देख- पढ़ डालिए.

विदेशों में महिला खिलाड़ियों की न्यूड तस्वीरें पत्रिकाओं के कवर पृष्ठ की शोभा बढ़ातीं हैं. सफल महिला एथलेटिक को बिना जाने- पूछे समलैंगिक मान लिया जाना भी आम है. हमारे यहाँ सामाजिक बंधन इतना ग़ज़ब तो नहीं होने देते. लेकिन यहाँ भी महिला और पुरुष खिलाड़ी मीडिया में अलग- अलग तरह से प्रोजेक्ट किये जाते हैं. पुरुष खिलाड़ियों के साहस, जुझारुपन और कड़े ट्रेनिंग प्रोग्राम पर फ़ोकस किया जाता है. महिला खिलाड़ी या तो लोकप्रिय मीडिया से नदारद रहतीं हैं या फिर उनके प्रदर्शन से ज्यादा उनके पति- बच्चे, नथ- बिंदिया और फैशन सुर्ख़ियां बनाते हैं. हाल ही में ओलम्पिक मेडल जीतने वाली एम. सी. मैरी कॉम तमाम ख़बरों में ‘दो बच्चों की माँ’ कहकर संबोधित की गयीं. उनकी शादी, प्रेमकहानी, पति और जुड़वां बच्चों पर स्पेशल फीचर निकाले गए. एक प्रतिष्ठित मैगज़ीन ने उन्हें अपने कवर पेज पर जगह तो दी पर वो भी एक वीमेन स्पेशल अंक था जिसमें वो मय मुकुट- मेकअप- गुलाबी ईवनिंग गाउन, विराजमान थीं. मानों अभी- अभी कोई ब्यूटी पेजेंट जीता हो या बॉक्सर होने की माफ़ी मांग रहीं हों. पहली नजर में शायद आपको इसमें कोई बुराई न लगे. यहाँ सवाल अच्छे- बुरे का नहीं बराबरी का है. अगर खेलों में लिंगभेद न होता तो मैरी कॉम सिर्फ महिलाओं की नहीं, हम सब की आदर्श कहलातीं. या फिर स्पोर्ट्स पेज की सुर्खियाँ कुछ यूँ होतीं-
“दो बच्चों के पिता सचिन ने आज अपना सौवां शतक लगाया.”
“हाल ही में शादीशुदा धोनी की कप्तानी में भारत ने विश्वकप जीता.”
मैं मीडिया क्रिटिक नहीं हूँ. न ही इस लिंगभेद के लिए अकेले पत्रकारों को दोषी संमझती हूँ. वो हमारे बीच से ही आते हैं. जो हमारी सोच वही उनकी सोच है. हमारी डिमांड की दिशा में ही उनकी लेखनी गतिशील होती है. स्पोर्ट्स हमारी नज़र में एक मर्दानी एक्टिविटी है. लड़कियों की नज़ाकत और लड़कों की आक्रामकता हमारी नजर में उनका प्राकृतिक या बायलौजिकल गुण है. पुष्ट मांसपेशियों वाली सफल महिला खिलाड़ी हमारी इस अवधारणा को कड़ी चुनौती देती हैं. जहाँ पुरुष एथलीटों को हीरो मानने में हमें कोई परेशानी नहीं होती वहीँ महिलाओं को मज़बूत और जुझारू खिलाड़ी के रूप में पचा पाना हमारे लिए बड़ा मुश्किल होता है. वो हमारे ‘नॉर्मल’ औरत के खांचे में फिट नहीं बैठतीं. इस कारण हमें वो खेल के मैदान के बजाय विज्ञापनों में तेल, चावल, शैम्पू बेचते या घरेलू बातें करतीं ज्यादा सुहातीं हैं. उन्हें किसी की पत्नी, माँ या फिर चीयरगर्ल की भूमिका में देखकर हमें तसल्ली हो जाती है कि चलो एथलीट सही, पर ये हैं तो औरतें ही. हम महिला खिलाड़ियों के लिए धन के कमी का रोना रोते वक्त भूल जाते हैं कि इसके लिए मीडिया या पुरुष खिलाड़ी ज़िम्मेदार नहीं है इस असमानता में हम सबकी भागीदारी है. वीमेन स्पोर्ट्स को मिलने वाला कम कवरेज, उनके लिए धन और प्रायोजकों की कमी हमारी इस मानसिकता का परिणाम है.
अमरीकी स्कूलों में हाल ही में किये गए एक शोध के दौरान सामने आया कि बहुत सी लड़कियां खेल-कूद में जान- बूझ कर ख़राब परफॉर्म करती हैं ताकि उन्हें ‘मर्दानी’ औरत ना समझ लिया जाए. स्कूल- कॉलेज तो बहुत दूर की बात है. लड़कों को मर्द और लड़कियों को नारी बनाने की प्रक्रिया तो बचपन से ही शुरू हो जाती है जब हम लड़कों को खेलने के लिए कार- बंदूकें और लड़कियों को गुड़िया और किचेन सेट देते हैं.
लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो धारा के विपरीत बहने की हिम्मत कर रहे हैं. तमाम विषमताओं के बावजूद, हमारे देश में हर तरह के खेलों में हिस्सा लेने वाली महिलाओं की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है. हमारी महिला क्रिकेट टीम पर धन और विज्ञापनों की बरसात नहीं होती, पर इसके बावजूद उनकी आई. सी. सी. रैंकिंग प्रथम है.
उम्मीद है कि हम सब जल्द ही उन्हें वो जगह और सम्मान देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो पायेंगें जिसकी वो हकदार हैं. ये भी ध्यान रखना होगा कि इस मामले में हम पश्चिमी मीडिया की अंधाधुंध नक़ल न करें जो महिला खिलाड़ियों को कवरेज तो ज्यादा देते हैं पर सही वजहों से नहीं.


Sunday, April 28, 2013

‘आंटी-बेटी-सहेली गणराज्य’ उर्फ़ दिल्ली मेट्रो का जनाना डब्बा

तारीख कुछ ठीक- ठीक याद नहींपर माहौल खूब याद है. रोज़ की तरह उस दिन भी मैं अपने नियत स्टेशन से नियत समय पर मेट्रो में चढ़ी. पर कुछ बदला- बदला लग रहा था. लड़के मुझे सीट ऑफर नहीं कर रहे थे (मैं इसकी उम्मीद भी नहीं करतीरोज़ की भागदौड़ में शिवलरसहो पाना न तो संभव है और न ही जरूरी.) कोई नाराज़ दिख रहा था तो कोई मूंछों- मूछों में मुस्कुरा  रहा था. सब थोड़े तने- तने बैठे थे. कुछ खुसुर- फुसुर भी कानों में पड़ रही थी.
अपना अलग कम्पार्टमेंट भी चाहिए और यहाँ भी सीट लेंगी.
गंतव्य तक पहुँचते- पहुँचते बात समझ आ गयी थी कि आज से गति की दिशा का पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित हो चुका है. बिना डिमांड के लेडीज़ कम्पार्टमेंट शुरू करने के लिए दिल्ली मेट्रो ने अपनी पीठ ठोंक ली थी.                      
अब तो इस पहले डिब्बे ने मेट्रो का समाज शास्त्र ही बदल दिया है. या यूँ कहिये कि हमें हमारे समाज का आइना दिखा दिया है. जगह- जगह ये तर्क सुनने को मिल जाता है- भई हम लोग नहीं जाते लेडीज़ मेंफिर ये लोग क्यूँ घुसी चली आती हैं हमारे जेंट्स कम्पार्टमेंट में?’ ये खीज सिर्फ मेट्रो की सीमित सीटों पर अधिकार जमाने की उठापटक नहीं है. अधिकतर जनता के मन में जनरल’ का मतलब जेंट्स’ और आम’ का मतलब आदमी’ ही है. उनकी ग़लती भी नहीं है. ये आम’ राय तो हमने बड़ी मेहनत से बनाई है. हिस्ट्री में सिर्फ हिज़- स्टोरी’ सुनाई हैमानव- निर्मित को मैन- मेड’ कहा है और कुर्सी सिर्फ चेयरमैन’ के लिए बनाई है.
लेकिन इन सब सिद्धांतवादी- आदर्शवादी बातों के बावजूद मेरी भी आदत बदल गयी है. अब तो  क़दम अपने- आप ही लेडीज़ कम्पार्टमेंट की तरफ़ बढ़ जाते हैं. जल्दी में कहीं और से चढ़ भी जाऊं तो भी मेट्रो के विशाल जन-समुद्र में तैरते- फ़िसलतेएक्सक्यूज- मी बोलते हुए लेडीज़ कम्पार्टमेंट तक पहुँच ही जाती हूँ. वहां पहुँच कर चैन की सांस लेती हूँ भले ही बैठने की जगह न मिले. जनरल कम्पार्टमेंट पर अपना हक़ ही न रह गया हो जैसे. ये सोच कर राहत मिलती है कि यहाँ तो अपना आंटी-बेटी-सहेली गणराज्य है जहाँ किसी भी पुरुष (वांछनीय/ अवांछनीय) को घुसना मना है. आ भी गए तो पेनाल्टी देनी पड़ेगी. वो सिर्फ बगल वाले कम्पार्टमेंट से ताक- झांक कर संतुष्ट हो सकते है. मैंने लड़कों को न कभी अपना दुश्मन न समझा है न समझूँगी. लेडीज़ कम्पार्टमेंट निर्धारित होने से पहले भी मेट्रो में ख़ुद को काफ़ी सुरक्षित महसूस करती थी. ऐसी कोई छेड़छाड़ की घटना भी मेरे साथ नहीं हुई. फिर ये लेडीज़ कम्पार्टमेंट का सुकून कैसा?
आम तौर पर ये बहस महिला सशक्तिकरण तक ही सीमित रह जाती है. अलग- थलग कम्पार्टमेंट दे देना महिलाओं के कमजोर होने की पुष्टि करता है या नहीं, फिलहाल इस बहस में नहीं पड़ना चाहती. इस मुद्दे का कहीं गहरा और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किये जाने की जरूरत है.
हम सबलड़के- लड़कियांसार्वजनिक स्थानों पर पर वैसा ही व्यवहार करते हैं जो समाज में हमारे जेंडर’ के अनुकूल माना जाता है. एक-दूसरे की उपस्थिति में लड़कियों की फेमिनिनिटी’ और लड़कों की मैस्कुलैनिटी’ अपने चरम पर होती है. ये ऑटोमैटिक है. मैं लड़कों के सामने सीटियाँ नहीं बजातीवो मेरे सामने गालियाँ नहीं देते. हम दोनों अपने-अपने नारीत्व और मर्दानगी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं. हमें अलग-थलग करके हमारे समलिंगियों के बीच रख दीजियेहम तुरंत सारी अदाकारी छोड़कर अपनी औकात पर वापस आ जाएंगे. हमें ऐसा ही सिखाया-पढ़ाया और प्रोग्राम किया जाता है.
ऐसे में हम दोनों के बीच उपलब्ध स्पेस का विभाजन एक ज़रूरत बन जाती है. पब्लिक स्पेस का ज्यादातर हिस्सा हमेशा से ही पुरुषों का रहा है. महिलाओं का इस स्पेस में दखल कछ क्षेत्र और समय तक ही सीमित है. आपको शराब और पान की दुकानों परढाबों पर लड़कियां कम दिखेंगींधुंधलके के बाद भी लड़कियों की संख्या कम होने लगती है. औरतें इस व्यवस्था के साथ मोल-तोल कर के रनिवास, जनानखाने आदि से लेकर लेडीज़-संगीत तक अपनी टेरिटरी’ निर्धारित करती आईं हैं. जहाँ पुरुष- प्रवेश वर्जित न सहीसीमित ज़रूर रहा है. मेट्रो सिटी में रहने वाली औरतों की परिस्थितियाँ अलग है. उन्हें अपनी पढ़ाई या नौकरी के लिए रोज़-ब-रोज़ एकाध घंटा सफ़र करना होता है. पब्लिक प्लेस पर व्यवहार और बॉडी- लैंग्वेज के अपने नियम-क़ानून हैं. अच्छी लड़की’ की तरह पेश आने के बंधन हैं जो मेट्रो के लेडीज़ कम्पार्टमेंट में नहीं हैं. ऐसी परिस्थिति में शहरी औरतों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अपना कोना मिल गया है. इसलिए यहाँ आकर हम चैन की सांस लेते हैं.  
अब सवाल ये है कि क्या ये अलगावलिंगभेद और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या का स्थाई हल बन सकता हैशायद नहीं. बल्कि ये लड़के-लड़कियों को एक दूसरे से अलग मानने की प्रवृत्ति को बढ़ाता ही है. ये हमारी उसी सोच का नतीजा है जो ये कहती है कि लड़की पब्लिक स्पेस में निकली तो छेड़ी ही जायेगी और लड़का लड़की को देखेगा तो छेड़ेगा ही. समाधान तो इस अलगाव के ठीक उलट है. लोगों को पब्लिक स्पेस में ज्यादा से ज्यादा लड़कियों की उपस्थिति का आदी बनाना होगा. जिससे कि ना ही लोग एक ख़ास समय और परिधि के बाहर किसी लड़की को देखकर उसके बारे में उलटी- सीधी धारणाएं ना बनाएं और ना ही ऐसी परिस्थिति में लड़कियां खुद को असुरक्षित महसूस करें.  
लेकिन ये हल निकालना दिल्ली मेट्रो की जिम्मेदारी नहीं है. समयस्थान और संसाधनों का लिंग आधारित विभाजन मेट्रो ने शुरू नहीं किया. ये तो हमारे समाज में हर जगह है इसलिए मेट्रो में भी घुस आया है. उन्हें तो सिर्फ एक शॉर्ट-टर्म रणनीति विकसित करनी थी, छेड़छाड़ की समस्याओं से निपटने कीजो उन्होंने कर दी. उम्मीद करती हूँ कि ये व्यवस्था शॉर्ट-टर्म ही होगी. जनरल में महिलाएं भी शामिल हैं और पब्लिक स्पेस में दिखने वाली लड़कियां पब्लिक सेक्चुअल प्रॉपर्टी नहीं हैंऐसी सोच तो हमें मेट्रो से बाहर के समाज में विकसित करनी है. जहाँ इस तरह के विभाजन के लिए कोई गार्ड या सीसीटीवी कैमरा मौजूद नहीं है. तब शायद ये गुलाबी रंग के लेडीज़ ओनली साइनबोर्ड्स इतिहास होंगे.
तब तक के लिए मैंने भी इस गणराज्य की नागरिकता ले ली है.

ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=70934:2014-06-14-06-30-42&catid=21:samaj

Monday, April 22, 2013

धरम, शरम, शरीर........


“लाजवंती करीब तेरह- एक साल की रही होगी. एक रात हड़बड़ा कर उठ गई. कपड़ों पे खून के दाग देखकर सर चकरा गया. उसका स्रोत जानकर हालत और खराब हो गई. पक्का कोई खतरनाक बीमारी हो गई है... शायद.... कैंसर.... सुबह सारा माज़रा देख कर घर की औरतों में कनखियों- इशारों में बातें हुईं. उसे घेर कर एक अलग कमरे में ले जाया गया जहां से निकलने को वो आज भी छटपटाती है.”
दस साल की उम्र से ही मुझे कुछ- कुछ आभास होने लगा था कि मेरे आस- पास कोई रहस्यमय घटना घट रही है. कोई चीज़ अख़बारों में, काली पन्नियों में छिपा कर लाई जाती है और बड़े एहतियात से अलमारी के कोनों में सहेज दी जाती है. कुछ पूछने पर मम्मी आँख दिखाती हैं. बड़ी बहनें कभी मंदिर तो कभी रसोई की दहलीज पर खड़ी मिलती हैं. वजह पूछने पर बस शर्मा कर धौल- धप्प लगा देती हैं. बहुत जासूसी की, पर कुछ फायदा नहीं हुआ. सबने कहा वक्त आने पर बता दिया जाएगा.
पर जब बताया गया तो भी क्या- ‘लड़कों के साथ मत खेलना’, ‘ये मत छूना’, ‘वो मत करना’, ‘बाहर आना- जाना कम करो बड़ी हो गयी हो’... ‘हाइजीन’, ‘ओव्यूलेशन’ और ‘मीनार्की’ जैसे नाम न लिए गए, न लेने की जरूरत समझी गई. शर्म- धरम ने बायलौजी को जकड़ लिया. पूतने- फलने और वंश- बेल के चिरंजीवी होने का आशीर्वाद देने वाले ये भी बताना भूल गए कि वंश बढ़ाने के लिए इस प्रक्रिया की क्या  ज़रूरत है. आगे चलकर विज्ञान लेने तक मुझे सिर्फ इतना ही पता था की कोई ये कुछ गन्दा और शर्मनाक है. जो लड़कियां स्कूल- कॉलेजों में विज्ञान नहीं लेतीं, पता नहीं वो इस बेवजह की शर्म से कैसे उबर पाती हैं.
वैसे विज्ञान पढ़े- लिखे भी क्या ख़ाक उबर पाते हैं? एक बार मेरे साथ की एक लड़की ने मुझसे कहा कि, “तुम पढ़- लिख गयी हो इसका मतलब ये नहीं अपनी धर्म- संस्कृति भूल जाओ.” मानों हमारा शरीर नहीं, कल्चर कन्सर्वेशन की साईट हो. सब रक्षण- संरक्षण इसी पर होना है. एक डॉक्टर ने भी मुझसे कहा कि, “ये सब मैं इंग्लिश में तो समझा सकती हूँ, पर हिंदी में ये बातें बड़ी भौंडी लगती हैं.” हम सब अपनी हिंदी में इन शब्दों को बोलने से कतराते हैं. आखिर क्यूँ? क्यूंकि भाषा हम अपने माँ- बाप, बड़े-बूढों से सीखते हैं. उन्होंने कभी ये सब शब्द हमसे नहीं कहे इसलिए हमारी जबान और कानों को भी ये अजीब लगते हैं. इस असहजता को हम इंग्लिश के परायेपन और सोफस्टिकेशन (?) में छुपाने की कशिश करते हैं.
मेरे जैसी मॉडर्न लड़कियां अपने लिए अशुध्द, अपवित्र जैसे शब्द इस्तेमाल करने में अपनी हेठी समझती हैं. पर हमारे भी अपने कोडवर्ड्स हैं. संकेतों- इशारों की अपनी बेग्मती जबान है. इस बात का ख़ास ख़याल रखा जाता है की पास खड़े लड़कों को भनक भी न लगे. सेल काउंटर पर लड़की बैठी हो ऐसी दुकानें ढूंढी जाती हैं.
विज्ञापनों ने भी इस शर्म की संस्कृति को सींचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. ‘उन दिनों’ (नाम लेने में इन्हें भी शर्म आती है, ये सिर्फ ‘व्हिस्पर’ करते हैं) में दाग लगने के डर से लड़कियां टॉप नहीं कर पा रही हैं, डेट पर नहीं जा रहीं हैं, और तो और ठीक से सो भी नहीं पा रहीं हैं. हंसी आती है पर ये हंसने की बात नहीं है. अपने शरीर को जानने और उस पर अपना अधिकार समझने की शुरुआत, इसके बारे में बात करने से होती है. अपनी भाषा में.... हर भाषा में.