१६ दिसंबर की घटना की कालिख जो हमने कभी दिल्ली, कभी दिल्ली पुलिस तो कभी हनी सिंह जैसों के ऊपर पोतने की कोशिश की थी, जो थोड़ी-थोड़ी हम सब के चेहरों पर पुतनी चाहिए थी, वो फांसी के जश्न में स्वाहा हो गयी. और हम सब ने चैन की सांस ली कि अब सब कुछ बदल जाएगा. ड्राइंग रूम की चमेली पहले जितनी ही चिकनी रहेगी, भाई (छोटा वाला भी) पहली जितना ही ‘प्रोटेक्टिव’ रहेगा जो कभी भी गेट पर ज्यादा देर खड़े होने के लिए बहन को डांट देगा, हमारी माँ का नाम अब भी घर के दरवाज़े पर नहीं होगा, लेकिन दुनिया फिर भी स्वर्ग होगी क्योंकि ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ अपराधी जहन्नुम के रास्ते पर हैं.
मानवाधिकार की गुहार फिलहाल
किसी को हजम नहीं होगी, आजकल बयार ही ऐसी है. उसकी बात नहीं करते. लेकिन आंकड़ों की माने तो
अमेरिका के जिन राज्यों में फांसी का प्रावधान है उनमें अपराध दर उन राज्यों के
मुक़ाबले कहीं अधिक है जहां इस सज़ा का प्रावधान ख़त्म किया जा चुका है. दरअसल
इक्का-दुक्का मामलों में फांसी नहीं बल्कि हर मामले में सुनिश्चित सज़ा का डर ही
अपराध को रोक सकता है. एक बात और भी है, सज़ा जितनी कड़ी हो कोई भी न्यायाधीश या न्यायपीठ उस सज़ा को देने से
बचना चाहता/चाहती है. ऐसे में बलात्कार की सज़ा फांसी होने से सज़ा होने की दर कम
ही हो जायेगी जो वांछनीय नहीं है.
लेकिन इस सज़ा का असल
हक़दार है कौन? अगर मान लें कि उस रात की घटना एक नाटक थी, तो उसमें शामिल वो छः आदमी तारीफ़ के पात्र हैं. उन्होंने ‘पुरुष’ नामक पात्र को बिल्कुल
हमारी भावनाओं के अनुरूप जिया. कोई भावनात्मक कमजोरी नहीं, कोई डर नहीं, सिर्फ और सिर्फ पाशविक बल.
वो लड़की बहुत बुरी ऐक्ट्रेस थी और उस नाटक की कमजोरी भी, जो न सिर्फ गलत समय और जगह पर स्टेज पर आयी बल्कि दया की भीख मांगने
वाला डायलॉग भी भूल गयी. तभी तो हमें उसका ‘देश की बेटी’ के रूप में दोबारा नामकरण करना पड़ा ताकि वो हमारे समाज में ‘अच्छी’ लड़कियों के लिए स्थापित
चुनिन्दा श्रेणियों फिट बैठ सके और हम उसके लिए दुःख जैसा कुछ महसूस कर पायें.
लड़कियों को इंसान से कमतर और लड़कों को इंसान से बद्तर बनाने की इस प्रक्रिया में
हमारी बरसों की मेहनत लगी है. ये कुछ महीनों के प्रोटेस्ट मार्च से नहीं जाएगी.
लैंगिक असमानता बलात्कार की देन नहीं, बलात्कार इस असमानता की एक
हिंसक अभिव्यक्ति मात्र है.
एक परुष मित्र ने इस घटना
के बाद मुझसे बड़ी तक़लीफ भरी आवाज में पूछा, ‘मैं भी लड़का हूँ, क्या मैं भी किसी दूसरे ‘इंसान’
के साथ
ऐसा कर सकता हूँ?’
मैंने
जवाब तो नकारात्मक दिया लेकिन फिर सोचा कि हमने लड़कियों को एक स्वतंत्र इंसान का
दर्जा दिया ही कब है? वो किसी साथी इंसान के साथ ऐसा नहीं कर सकता लेकिन किसी ‘चीज’ के साथ ज़रूर कर सकेगा.
लड़कियों को वस्तु बनाने की चेतन/अचेतन और सुनियोजित प्रक्रिया में हमने भाषा, धर्म, बाजार, संस्कृति हर चीज का सहारा
लिया है. अब ये असमानता हमारे दैनिक जीवन में इतना रच-बस गयी है कि उसका विरोध कर
पाना नामुमक़िन सा है. आपसे पूछा जाय कि ‘आप अपनी माँ को ही तुम क्यूँ कहते हैं?’ तो आप कहेंगे कि ‘ये तो मेरा प्यार है’, चीयर गर्ल्स को घूरने से रोका तो आप कहेंगे कि ‘इससे कुछ नहीं होता’, ‘कन्यादान’ जैसे शब्दों पर सवाल उठाया
तो आप कहेंगे ‘ये तो रस्म है’. ये हम हर दिन सुनते हैं, ‘एक फिल्म ही तो है’, ‘एक चुटकुला ही तो है’, ‘एक विज्ञापन ही तो है’. हम किसी हिंसक बलात्कार का
विरोध कर सकते हैं,
लेकिन
अपने मनोविज्ञान की तहों में हम सब (लड़कियां भी) ‘सेक्सिस्ट’ हैं. ज्यादा दूर क्यूँ जाएँ इसी प्रोटेस्ट मार्च में शामिल एक पोस्टर
पर नज़र डालिए- ‘If
you can’t protect us, kill us in the womb.’ (‘अगर आप हमें सुरक्षित नहीं
रख सकते तो हमें कोख में ही मार दीजिये’). मतलब अगर लड़की पैदा की तो ताउम्र उसे सुरक्षित रखने का झंझट पालिए.
हमारे इरादे तो नेक हैं लेकिन फिर भी हम अपनी अभिव्यक्तियों को नहीं बदल पा रहे
हैं. दरअसल, हम सब उसी मिट्टी के बने हैं जिसे हम किसी बेहतर
सांचे में ढालने की कोशिश कर रहें हैं. इन तत्वों ने ही हमें बुना है और इसके साथ
हम बड़े हुए हैं. हमारे घर-समाज में ऐसा ही होता आये है इसलिए इनकी बुराइयाँ
गिनवाने वाले को छिद्रान्वेषी या 'अति-प्रतिक्रियावादी' होने का तमगा मिलना ही है.
१६ दिसंबर की घटना के बाद
की अपाधापी में वेश्यावृत्ति से लेकर, अश्लील गानों और विवाह के अन्दर रेप तक पर चर्चा हुई. कुछ काम की
बातें हुईं कुछ में सनसनी ज्यादा थी. लेकिन कम से कम हमने इस बात को पहचानना तो
शुरू किया था कि अपने घरों में हमने जो सामाजीकरण की फैक्ट्रियां लगाईं हैं उनका
उत्पाद कुछ गड़बड़ है. लेकिन इस सजा की सुनवाई के साथ ही बड़ा घातक आत्मसंतोष हम
सब पर हावी होने लगा है. पहले एक अपराधबोध था जो अब हवा हो गया है. जनाक्रोश को बस
एक बलि का बकरा चाहिये था जो मिल गया. सबने मान लिया है कि हल निकल गया है और अब
किसी क्रान्ति की न तो फुर्सत है ना ही जरूरत लगती है.
हर हिंसा में खून नहीं बहता, हर असमानता इतनी आसानी से
नजर नहीं आती. असमानता की जो घुट्टी बचपन से पी और पिलाई है उसका हल सिर्फ़ कड़े
कानून और फांसी के फंदे से नहीं निकलेगा. चूंकि ख़ुद को बदलने में कष्ट होगा इसलिए
दिल्ली, मुंबई या पाश्चात्य सभ्यता
पर इल्जाम थोपना और अपराधियों को मृत्युदंड पर चैन की सांस लेना, आसानी से बच निकलने का
रास्ता भर है. इन बातों को हम समय रहते समझ लें तो अच्छा है. समाज को बर्बर बनाएं
या मृत्युदंड ख़त्म कर दें, लिंगभेदी बने रहें या बदलने का कष्ट उठायें, इसका निर्णय हमें ही करना
है क्यूंकि यहाँ हमें ही रहना है!