Friday, April 11, 2014

टाइटैनिक का कायर


1912 में दुर्घटनाग्रस्त हुए मशहूर जहाज़ टाइटैनिक पर उसका मालिक और एक धनी व्यापारी, ‘जोसेफ़ ब्रूस इस्मे’ भी सवार था. जहाज़ जब डूबने लगा तो बच्चों और औरतों को बचाने की परवाह किये बिना वो एक लाइफबोट पर बैठ कर बच निकला. लेकिन बच कर वापस आते ही उसे ब्रिटिश और अमेरिकी मीडिया ने घेर लिया. कोई अखबार उसके कार्टून बनाता तो किसी ने उसकी ‘बर्बरता’ के ख़िलाफ़ कवितायेँ छापीं. उसे ‘टाइटैनिक का कायर’ की संज्ञा दे दी गयी. राहत कार्य में औरतों और बच्चों को दरकिनार करने की ज़िल्लत उसे ताउम्र झेलनी पड़ी. टाइटैनिक पर सवार 75% औरतों के मुकाबले सिर्फ़ 20% पुरुषों को बचाया जा सका था. अमीर से अमीर आदमी की भी जीवित बचने की संभावना निर्धनतम औरतों और बच्चों से कहीं कम थी. ये आंकड़े थोड़ी बहुत फ़ेरबदल के साथ किसी भी दुर्घटना और उसके राहत एवं बचाव कार्यों की सच्चाई बयान कर सकते हैं.
लगभग इसी समय के आस पास, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कई देशों में ‘सेफ्राजेट आन्दोलन' साँसे ले रहा था, जिसमें ‘वोट फॉर वुमन’ के नारे के ज़रिये औरतों को तमाम देशों में मताधिकार दिलाने की जी तोड़ कोशिश हो रही थी. इस आन्दोलन में शामिल औरतों को अक्सर ऐसी नाव दुर्घटनाओं का वास्ता देकर ये यकीन दिलाने की कोशिश की जाती थी, कि जब तक ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ सिद्धांत के पालक-पोषक पुरुष ज़िंदा हैं तब तक उन्हें अपनी चिंता करने की ज़रुरत नहीं. ये मताधिकार नहीं, बल्कि ‘पुरुषोचित व्यवहार’ है जो हमेशा उनका सच्चा हितैषी रहेगा. खीज कर कुछ महिलाओं ने नारा बदल कर ‘वोट फॉर वुमन एंड बोट फॉर मेन’ कर दिया.
ये नारा लैंगिक असमानता की दुधारी प्रवित्ति को रेखांकित करता है, जिसने एक तरफ़ औरतों को मताधिकार नहीं दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ आदमियों को लाइफ़बोट में बैठ कर अपनी जान बचाने की आजादी भी नहीं दी. चुनावी माहौल में वोट की चर्चा तो चल ही रही है, मुलायम सिंह की हालिया विवादास्पद टिप्पणी ने ‘वोट-बोट’ की बहस को देसी सन्दर्भ दे दिया है.
लैंगिक असमानता का शिकार स्त्री-पुरुष दोनों ही होते हैं और ये बयान इस बात का ताजातरीन उदाहरण है. हर उस औरत के लिए जिसे बच्चे पालने के लिए अपना हरा-भरा कैरियर छोड़ना पड़ता है, एक पुरुष है जो जीविकोपार्जन के लिए ओवरटाइम करने के लिए मजबूर है. उन्हें भी अपना पौरुष साबित करने के लिए तमाम परीक्षाएं देनी है. कभी रोना नहीं है, कोई भावनात्मक कमज़ोरी नहीं दिखानी और ज़रुरत पड़े तो शारीरिक बल दिखाने से भी पीछे नहीं हटना है. ‘हर औरत दुखियारी है’ के पीछे ‘हर पुरुष अत्याचारी है’ की एक मूक भावना है. स्त्री की हर एक बेचारगी का एक अनदेखा पुल्लिंग प्रतिबिम्ब भी है और दोनों का उतना ही विरोध होना चाहिए. लेकिन आम समझदारी यही है कि मुलायम सिंह का बयान और ऐसी तमाम चीज़ें स्त्रीविरोधी है, इसलिए इसका विरोध भी या तो महिला संगठन ही कर रहे हैं या फिर महिला सशक्तिकरण की टोन लिए हुए हैं.
मुलायम सिंह ने इसके साथ मृत्युदंड न सन्दर्भ भी टांक दिया है. आप भले ही मृत्युदंड के सिद्धांततः विरोधी हों, लेकिन ये बयान फिर भी आपको कचोटना चाहिए. क्योंकि ये मृत्युदंड के विरुद्ध किसी मानवतावादी नज़रिये से नहीं बल्कि उस मानसिकता से पगा है जो बलात्कार को बहुत बड़ा अपराध नहीं मानता. साथ ही उसे पुरुषों के स्वाभाविक व्यवहार का हिस्सा बताकर उन्हें भी अपमानित करता है.
क्या पुरुषों से हमारी उम्मीदें सचमुच इतनी कम हैं? और हम गाहे-बगाहे ऐसा जताकर पुरुषों की मानसिकता के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? फ़र्ज़ कीजिये कि आपका एक बेटा या बेटी है. आप रिश्तेदारों, पड़ोसियों के सामने दिन-रात उसकी निंदा करते नहीं थकते. उसकी कमअक्ली और नालायकी का रोना रोते रहते हैं. ऐसा करके आप उसी क्षण से उसके मनोबल और नैतिक स्तर के क्षरण के उत्प्रेरक बन जाते हैं. उस बच्चे के पास जीवन में न तो कुछ अच्छा करने का प्रोत्साहन है और ना ही उसे ऐसा करने में कोई फ़ायदा नज़र आता है. सबकी नज़र में तो पहले ही नकारा है, अब उसे कुछ अच्छा करने की क्या पड़ी है? ये नाउम्मीदी एक ऐसा चक्रव्यूह है जो एक बार शुरू हो जाय तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. हम पर लगी उम्मीदें ही हमारी महत्वाकांक्षाओं की सरहद तय करतीं हैं. पुरुष को नारी का रक्षा न कर पाने के लिए तो खूब अपमानित किया जाता है लेकिन बलात्कार या छेड़खानी के लिए उतना नहीं. दोनों बातें फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी लग सकतीं हैं लेकिन दरअसल हैं नहीं. दोनों ही पितृसत्ता कि उस मानसिकता का प्रतीक है को पुरुष को बल मात्र समझता है.
नारीवादी चिंतकों नें ‘वुमन इज़ वॉम्ब’ (नारी कोख मात्र है), की विचारधारा का खूब विरोध किया है. उनके हिसाब से पितृसत्ता में औरत के अस्तित्व को उसकी बायोलौजी से बाँध कर ही देखा गया है जिसके बिना पर उन्हें निर्णय क्षमता से विहीन बच्चे पालने-पोसने का यंत्र बता कर कभी मताधिकार से तो कभी डिग्री पाने से रोका गया. अपनी जगह ये बात बिल्कुल ठीक है. लेकिन ज़रा सोचिये कि इस व्यवस्था में पुरुषों को क्या उनके लिंग से ज्यादा कुछ समझा गया? इसके हिसाब से वो भी हरमोन से संचालित होतें हैं और अपने जननांगों से सोचतें हैं. वो सिर्फ़ असीम शारीरिक बल का प्रतीक हैं, जो या तो मुसीबत में नारी को बचाएंगे या फिर उसी पर शारीरिक बल का इस्तेमाल करेंगे. दोनों ही आयाम उनकी मूल प्रकृति का हिस्सा माने जाते हैं.  
हर तरह की हिंसा और असमानता के बरक्स, ताकत का वास्तविक या सांकेतिक का डंडा जिसके भी हाथ में दिखता है हम उस पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को नज़रंदाज़ करते चले जाते हैं. लैंगिक असमानता ने पुरुषों के साथ जो किया वो हमारी नज़र में नहीं आता क्यूंकि वो ही तो हमारी नज़र में पितृसत्ता के सृजक और पोषक हैं. ये एक मिथ्या अवधारणा है. कोई भी सामाजिक व्यवस्था उस समाज के आर्थिक-सामाजिक परिवेश और पर्यावरण की मिलीभगत से सदियों में अस्तित्व और आकार पा पाती है. अगर उसमें कुछ खामियां हैं तो उसका दोष किसी ख़ास वर्ग पर थोपना, बेहद सतही प्रतिक्रया है. स्त्री को कोमलांगी समझना उसी सिक्के का पट है जिसके चित पर पुरुष की अजेय मांसपेशियां अंकित हैं. एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता था, न ही एक के बिना दूसरा ख़त्म किया जा सकता है.
नारी-अधिकार धुरंधरों के चलते औरतों को ‘वोट’ तो मिल गया है, लेकिन अब समय है कि आदमियों को भी उनकी ‘बोट’ दे दी जाय! साथ ही मुलायम सिंह के बयान की निंदा सिर्फ़ नारीविरोधी नहीं बल्कि पुरुषविरोधी लहजे की वजह से भी की जाय.