tag:blogger.com,1999:blog-7999798760289601032024-03-06T14:00:14.868+05:30टेढ़ी लकीरें A Hindi Blog by Shweta Rani KhatriAnonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.comBlogger26125tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-22179208049148508512015-08-31T13:58:00.000+05:302017-01-12T12:51:39.905+05:30दशरथ मांझी के बहाने प्रेम पर कुछ सवाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
प्रेम करने की क्या कोई शाश्वत पद्धति होती है? क्या कोई विरह वियोग में पहाड़ तोड़े उसके लिए ज़रूरी है कि उसकी पत्नी राधिका आप्टे जैसी सुन्दर दिखती हो? इतनी कि उसकी बेदाग़ खूबसूरती और सांवला सलोनापन आपको धूल-घक्कड़ भरे गाँव में चुभे. जब उसके बच्चे, पति सब मिट्टी से पगे हैं, सगी बेटी तक का शरीर कुपोषित और बाल भूसे से हैं, उसी देशकाल में दशरथ मांझी की पत्नी के बाल क्या इसलिए लहलहा रहें हैं ताकि हमें उनका प्रेम विश्वसनीय लगे? दशरथ मांझी जब फ़िल्म में अपनी बालिका वधु को बरसों बाद देख कर कहता है, 'ई फगुनिया है? ई हमार महरिया है?' तो क्या क्या फगुनिया की रूप राशि ही उसके गौना कराने की बेसब्री का एकमात्र उत्प्रेरक रही होगी. क्या उनकी पत्नी राधिका आप्टे की जगह सीमा बिस्वास जैसी दिखती होती मांझी के प्रेम की तीव्रता कुछ कम हो जाती? कुल मिला कर हमने अपने नायक की जगह तो नवाज़ुद्दीन को स्वीकारना शुरू कर दिया है पर नायिका अभी भी खूबसूरत चाहिए. या ये सिर्फ़ फिल्मकार का भ्रम है जो ज्यादा रिस्क नहीं लेना चाहते?<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
फ़िल्म में मांझी फगुनिया को तरह-तरह से रिझाना शुरू करता है और मेरे अन्दर की एन्थ्रोपोलोजिस्ट मुझे कचोटना. ये कि पुरुष अपनी साधन सम्पन्नता से औरत को रिझाता है और कमाने खाने के कौशल से विहीन स्त्री उसके इसी कौशल पर रीझती है, लम्बे समय तक हमारी evolutionary psychology की स्वीकृत थ्योरी रही है. यहाँ तक कि इंसान के अलावा दूसरे स्तनपायी जीवों में भी नर-मादा संबंधों को इसी नज़रिए से देखा गया. लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान के हर अनुशासन में यूरोपी पुरुषों का वर्चस्व टूटना शुरू हुआ वैसे-वैसे ये समझ विकसित होने लगी कि प्रेम और विवाह को समझने का ये तरीका यूरोपी समाज के भी एक ख़ास वर्ग से जन्मा है और सिर्फ़ उसी पर लागू भी होता है. फिर भी यह बात तमाम हॉलीवुड फिल्में घूम-फिर कर दोहराती रहीं हैं और शायद नक़ल के ज़रिये हमारी भी लोकप्रिय फ़िल्मों में घुस आयी है. और अब हमारे मानस को ऐसे जकड़े बैठी है कि जाने का नाम नहीं लेती.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जबकि हमारे अपने ही देश में कई वर्ग समाज ऐसे भी हैं जिनमें स्त्री-पुरुष सम्बन्ध इतने ग़ैर बराबरी के नहीं है. ख़ास तौर पर फ़िल्म जिस जाति और वर्ग की बात कर रहा है वहां औरतें ज्यादा नहीं तो कम कुशल भी नहीं होतीं. घर-बाहर पति के साथ उसके बराबर का काम करती हैं. अपने आस-पास की प्राकृतिक संपदा का भी पूरा ज्ञान रखती हैं. ऊंची कही जाने वाली जातियों के हाथों दमन उन्होंने साथ झेला है. उनका पति-पत्नी सम्बन्ध अपेक्षाकृत समता का है. शायद इसीलिये उनके यहाँ दहेज़ के बजाय लड़के वाले लड़की वालों को विवाह के वक्त रुपये देते हैं. जिस प्रथा को 'बेटी बेचना' कह कर तिरस्कृत किया गया और अंततः दहेज़ उसकी जगह लेता गया.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फ़िल्म में भी वही हुआ है क्यूंकि फ़िल्मकार ने अभिजात्य वर्ग के लिए फ़िल्म बनायी है. ख़ास जाति-वर्ग की विशिष्टताओं के बजाय प्रेम के जमे-जमाये फार्मूले फ़िट कर दिए हैं. ये विडम्बना है कि जो जाति-वर्ग हमारी फ़िल्मों में मुश्किल से जगह पाता है, इस दुर्लभ मौके पर भी उसको 'उच्च' वर्ग के नज़रिए से देखने की कोशिश की गयी है. जहाँ औरत बात-बात पर लजाती है और उसकी साड़ी या चेहरे पर कमरतोड़ मेहनत बाद भी शिकन नहीं आती. शायद मुख्यधारा में जगह पाने की शर्त ही अपने अनूठेपन को भुला देने की है. विविधताओं को समझने और उन्हें सम्मानित जगह देने के बजाय उन्हें सपाट कर देना हमारे सिनेमा की प्रवित्ति रही है. जो लोग मुख्यधारा से कुछ हटकर हैं, उनका जीवन भी शायद कुछ ऐसा ही है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com4New Delhi, Delhi, India28.6139391 77.20902120000005228.1680166 76.563574200000048 29.059861599999998 77.854468200000056tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-18011559729883752222014-12-29T20:40:00.001+05:302015-12-24T13:54:10.652+05:30लोकप्रिय सिनेमा की अपनी शर्तें हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<br /></div>
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये महज़ इत्तेफ़ाक ही था कि पी.के. देखने से एक दिन पहले
दैनिक भास्कर की वेब साईट पर ‘ऑस्ट्रेलियन दुल्हन लाया बिहार का बेटा’ जैसे किसी
शीर्षक पर नज़र पड़ गयी. रिपोर्टिंग के अंदाज़ से यूं लगा कि बिहार ने कोई मेडल जीता
है. फिर एक सवाल कौंधा कि अगर बिहार की बेटी ने ऑस्ट्रेलियन दूल्हा ढूंढ लिया होता
तो खबर कैसी होती? ये खबर होती भी या नहीं? क्या वजह है कि लव जिहाद की तमाम
लफ्फाजियों के बीच हिन्दू नायिका के मुसलमान नायक से ब्याह के उदाहरण हमारे हिन्दी
सिनेमा में विरले हैं</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> इसका उलटा भले ही मिल जाय. पी.के. से पहले ‘टोटल सियापा’ में ही शायद ये घटना
हुई है. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इस प्रगतिशीलता के बावजूद अनुष्का के उभरे होंठ खटकते हैं. वो
जब नई- नई आयीं थीं तो उन्हें आदित्य चोपड़ा ने कहा था कि ‘तुम बहुत खूबसूरत नहीं
हो, इसलिए कम से कम एक्टिंग तो अच्छी करना.’ सौन्दर्य में एकरसता को बढ़ावा देने में
आलोचना जनित हीन भावना और कॉस्मेटिक सर्जरी का याराना है. विविधताओं को सेलिब्रेट करने
की बात हमारे सौन्दर्य मानकों पर लागू नहीं होती. एक और इत्तेफाक़ के तहत मेरी बुक
शेल्फ़ में अगले साल आ रहे अमान्डा फ़िलिपाकी के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘द
अनफार्चुनेट इम्पोर्टेंस औफ़ ब्यूटी’ का इंतज़ार हो रहा है जो सौन्दर्य मानकों के
बारे में हमारी जड़ता पर सवाल उठाता है. हमारी हीरोइनों की लिप/नोज़ सर्जरी (जिसकी
खबर का हमेशा खंडन ही होगा) इस सवाल पर सवाल है. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पी.के. फ़िल्म की शुरुआत में ही हीरो-हिरोइन </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">बच्चन</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> की कविता सुनने की तिकड़म भिड़ाने
लगते हैं और आप ये सोचने पर मजबूर होते हैं कि इसकी वजह सचमुच हरिवंशराय जी कि
कवितायेँ हैं या फिर उनका ‘बच्चन’ होना? वैसे भी मुख्यधारा में लोकप्रियता हमेशा
सरलीकरण की शर्त पर ही मिलती है. हिन्दी कवि को सिनेमा में पहचान अमिताभ बच्चन पैदा
करने की शर्त पर मिलती है, मैरी कौम को प्रतिनिधित्व प्रियंका चोपड़ा दिखने की शर्त
पर मिलता है और भोजपुरी को जगह बड़े सितारों द्वारा एप्रोप्रिएशन की शर्त पर मिलती
है. पी.के. की भोजपुरी उतनी ही कच्ची है जितनी कि उसमें शामिल प्रेम कहानी, आमिर
का लहजा वैसा ही सतही है जैसे आर्चीज़ से खरीद कर मनाई क्रिसमस की खुशियाँ. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">फ़िल्म पर विवाद इसके पोस्टर की रिलीज़ से ही शुरू हो चुका
था. नग्नता का उपयोग कला या फिर धर्म में नया नहीं है. आमिर के चरित्र की नग्नता
उसकी शुद्धता और इस दुनिया के चाल चलन से अछूते होने का प्रतीक है जो कि फ़िल्म
देखने पर ही समझ आ सकता है. पर हमारे पास इतना धैर्य कहाँ था? हमने पोस्टर का
कनेक्शन कामोत्तेजना और अश्लीलता से ही जोड़ा जो कि हमारे दिमाग में नग्नता के साथ
जोड़ी बनाकर जम चुका है. इस तरह से पी.के. के नंगे एलियन ने हमारे समाजीकरण की
प्रक्रिया और जमी-जमाई मान्यताओं पर प्रहार अपने पोस्टर रिलीज़ के समय से ही करने
शुरू कर दिए थे. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पर पोस्टर में दिखी संभावनाओं के बावजूद ये एक बेहद साधारण
फ़िल्म है. आडम्बर और धर्म के धंधे के ख़िलाफ़ दिए गए तर्क न ही नए हैं और न ही बहुत
गहराई तक जाते हैं. हम इन्हें इससे बेहतर और पैने रूप में ‘ओह माई गॉड’ में देख
चुके हैं. इस तरह से ये फ़िल्म ओह माई गॉड की अगली कड़ी होने के बजाय उसके बराबर या
पीछे ही खड़ी दिखती है. एलियन का कांसेप्ट ज़रूर अनोखा है. हम अपने सामाजीकरण में
इतने धंस चुके हैं कि एक उदासीन साक्षी भाव से अपने समाज को देखने के लिए शायद
हमें एलियन जितना ही दूरस्थ होना ज़रूरी है. आडम्बर की आलोचना शायद उसकी उत्पत्ति
जितनी ही पुरानी है लेकिन फिर भी धर्म का धंधा बदस्तूर जारी है. इसके कारणों की तह
तक जाने की कोशिश ‘ओह माई गॉड’ के बाद पी.के. ने भी नहीं की. इंसान के दुखों को धर्म
की उत्पत्ति और आडम्बरों को मनोवैज्ञानिक इलाज बताने की ज़रा सी कोशिश फ़िल्म करती
है लेकिन ‘तपस्वी जी’ के ज़रिये जो कि फ़िल्म का खलनायक है. दरअसल धर्म के अस्तित्व की
पोषक ही जीवन की अनिश्चितताएं हैं जिनका जवाब अक्सर विज्ञान के पास भी नहीं होता. धर्म
दुःख मिटा नहीं सकता पर उन्हें भगवान की देन बताकर पीड़ा कुछ कम कर देता है. इसलिए
बरकरार है और शायद इसीलिये ये फ़िल्में भी भगवान के अस्तित्व पर सीधे वार करने से बचती
हैं. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">फ़िल्म पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप उतना ही बचकाना है
जितनी आमिर के चरित्र की हरकतें. ये सही है की फ़िल्म में सभी अच्छे- बुरे पात्र
ज़्यादातर हिन्दू हैं. लेकिन ये तो लोकप्रियतावादी सिनेमा का कड़वा सच है. हिन्दी फिल्मों
के पात्र डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ भी हों साथ में बड़ी सहजता से ऊंची जाति के
हिन्दू पुरुष ही रहें हैं. दूसरा कोई भी धर्म फ़िल्म को सेक्युलर दिखाने के वास्ते दाल
में नमक जितना ही आता है. फिर पी. के. में ऐसा होना हमें असहज क्यूं कर रहा है? </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">सिर्फ़ आडम्बर विरोधी होने के लिए फ़िल्म की तारीफ़ करनी हो तो
अलग बात है, वरना फ़िल्म सफ़ेद रंग पहने विधवा का उदास दिखने जैसे स्टीरियोटाइप से लेकर
तुरंत ही सफ़ेद कपड़ों में सजी ईसाई दुल्हन का पी.के. के सामने आने जैसे फ़िल्मी संयोगों
से भरी पड़ी है. हालांकि इस अति सरलीकरण का एक सकारात्मक पहलू ये भी है कि फ़िल्म
उसी वर्ग से संवाद स्थापित करने में सक्षम है जो बाबाओं के चमत्कार पर निछावर होता
है और ‘हैप्पी न्यू इयर’ को करोड़ों की कमाई करवाता है. बाकी धर्म और हिन्दी सिनेमा
में ज़्यादा फर्क नहीं है. दोनों में तर्क का इस्तेमाल बिज़नेस के लिए हानिकारक है!</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br /></div>
(पी. के. पोस्टर विवाद पर लिखा गया लेख- 'नग्नता की शुद्धता और शौक वैल्यू' http://shwetakhatri.blogspot.in/2014/08/blog-post.html)<br />
<div style="background-color: white; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 30px; font-stretch: normal; font-weight: normal; margin: 0px; position: relative; text-align: left;">
<br /></div>
<div class="post-header" style="background-color: white; color: #999955; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 1em;">
<div class="post-header-line-1">
</div>
</div>
<div class="post-body entry-content" id="post-body-237601098681904085" itemprop="articleBody" style="background-color: white; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 1.5; position: relative; width: 788px;">
<div dir="ltr" trbidi="on">
</div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com1New Delhi, Delhi, India28.6322444 77.22072379999997328.186321900000003 76.575276799999969 29.0781669 77.866170799999978tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-18773730523530202692014-11-27T16:41:00.001+05:302014-12-01T09:26:06.493+05:30ए.एम्.यू. लाईब्रेरी: जेंडर और स्पेस के कुछ सवाल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><br />
</span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI"></span><br />
</span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: inherit;">निर्भया काण्ड के बाद से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक सकारात्मक
बदलाव तो ज़रूर आया है. लिंगभेद लगभग जातिभेद और नस्लभेद के समानांतर राजनैतिक
मुद्दा बन गया है. आजकल किसी सार्वजनिक हस्ती का जेंडर सेंसिटिव होना या कम से कम
नज़र आना अनिवार्य है. पर इस बदलाव की बयार का सबसे बड़ा ख़तरा अपना फ़ोकस खो देने का
है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वी.सी. पर एक बयान के बाद हुए शाब्दिक हमले
ऐसे ही दिग्भ्रमित आक्रोश का एक उदाहरण है.</span></div>
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">
</span><o:p></o:p></span></div>
<div style="margin: 0in 0in 0.0001pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">वी.सी. के मौलाना आज़ाद
लाइब्रेरी में लड़कियों को आने देने की मनाही के आधे-अधूरे बयान को सुनकर उन पर
लिंगभेदी होने का आरोप लगा जो कि आजकल एक संगीन लांछन है. जबकि ये पॉलिसी
विश्विद्यालय में काफ़ी समय से है</span>,
<span lang="HI">साथ ही स्नातक तक की छात्राओं के लिए अलग बैठने- पढ़ने की व्यवस्था
है. वी.सी. न ही लड़कियों के मामले में गैर- संवेदनशील हैं न ही ये नीति अपने-आप
में लिंगभेदी है</span>, <span lang="HI">कम से कम
सक्रिय तौर पर तो नहीं. लेकिन एक बड़ा सवाल जेंडर और स्पेस का है जिसकी जड़ें
लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय परिसर से बाहर के समाज में हैं.</span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div style="margin: 0in 0in 0.0001pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">समय का चक्र और स्पेस का
फैलाव दोनों अपने-अपने तरीके से लिंगभेदी हैं. शाम को धुंधलके के बाद और बस स्टॉप
या बैंक जैसी सार्वजनिक जगहों पर लड़कियां कम ही दिखाई देतीं हैं. चंद महानगरों को
छोड़ दें तो कालचक्र और स्पेस के इस लिंग आधारित विभाजन का शायद ही कोई अपवाद है.
अपनी खुद की कस्बाई परवरिश के अनुभवों से कहूं तो पब्लिक स्पेस लड़कियों के लिए
नहीं हैं. यहाँ होने का मकसद उन्हें साफ़-साफ़ जताना होता है कभी अपनी स्कूल
यूनिफार्म तो कभी किसी पुरुष के साथ के ज़रिये. ऐसे में लड़कियों को उनका अपना स्पेस
दे देना आसान बात है बजाय उन्हें पब्लिक स्पेस में पुरुषों जितना ही सहज कर पाना.
ये एक अजीब विरोधाभास है- लड़कियां सार्वजानिक जगहों पर जितनी ज्यादा दिखेंगी</span>, <span lang="HI">उनकी उपस्थिति उतनी ही आम
बात होगी. फ़िलहाल उनकी नगण्य उपस्थिति ही इक्का- दुक्का लड़कियों की उपस्थिति को और
भी विशिष्ट बना देती है. ये बात उन लड़कियों को चर्चा का केंद्र बनाकर असहज करने के
लिए काफ़ी है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि वी.सी. के लड़कियों के माता-पिता से
चिट्ठी लिखकर पूछने पर कि ‘क्या वो अपनी बेटी को मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में जाने
देना चाहते हैं’</span>, <span lang="HI">सिर्फ़ एक
जोड़ा माँ- बाप ने सकारात्मक जवाब दिया.</span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div style="margin: 0in 0in 0.0001pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">ऐसे मामलों में नीति
निर्धारकों को एक समझौता करना पड़ता है- या तो यथा स्थिति रहने दें या फिर लड़कियों
को उनकी अलग जगह देकर कम से कम उन्हें बाहर लाने की एक पहल करें. ज़ाहिर है कि
दूसरा रास्ता ही ज्यादा तर्कसंगत है. अलग लाइब्रेरी</span>, <span lang="HI">मेट्रो में पहला कोच</span>, <span lang="HI">लेडीज़ बस</span>, <span lang="HI">महिला पुलिस चौकी और अब
आगामी महिला बैंक सब इसी समझौते के अलग- अलग रूप हैं. ये लिंगभेद नहीं बल्कि उसे
ख़त्म करने की एक रणनीति भर है. पर दुर्भाग्य से ये नीतियाँ ऐसी दर्दनिवारक दवा बन
गयी हैं जिसे खा कर हम अपनी असली बीमारी भूले बैठे हैं. हमारा अंतिम लक्ष्य तो
पब्लिक स्पेस में लड़कियों को पूरी तरह समाहित करना ही होना चाहिए था. लेकिन स्पेस
विभाजन की नीतियाँ अपनी लोकप्रियता के चलते एक तरह का सुविधाजनक नारीवाद बन गयी
हैं. जिन्हें लागू करके कोई भी जेंडर सेंसिटिव नज़र आ सकता है और वाहवाही बटोर सकता
है.</span><o:p></o:p></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
</div>
<div style="margin: 0in 0in 0.0001pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">उसी तरह से जहां प्राथमिकता
ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को उच्च शिक्षण संस्थानों में लाने की हो</span>, <span lang="HI">जहां माता- पिता भी अलग
पुस्तकालय की व्यवस्था से ज्यादा सहज महसूस करते हों. वहां विश्वविद्यालय के ऐसा
करने पर हाय-तौबा क्यूँ</span>? <span lang="HI">वी. सी.
वही कर रहें हैं जो उनके पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित है. मौलाना आज़ाद
लाइब्रेरी पब्लिक स्पेस का ही एक टुकड़ा है</span>, <span lang="HI">एक संसाधन है जिसका आवंटन वो सामाजिक सन्दर्भों से कटकर नहीं कर
सकते. अगर खेल के नियम ही गड़बड़ हों तो उस खिलाड़ी जो क्यों दोष दें जो नियमानुसार
खेल रहा है</span>? <o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
<div style="margin: 0in 0in 0.0001pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">एक संसाधन के रूप में
समय-स्थान को</span> <span lang="HI">देखना
साथ ही जेंडर के साथ इनका समीकरण समझना दरअसल कभी ज़रूरी नहीं समझा गया. इस समस्या
की भी पेचीदगी वही है.</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI">स्पेस और
समय दोनों ही एक तरह से बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हैं. इनका फ़ायदा वही उठा सकता है
जिसको इनका बेरोक-टोक इस्तेमाल करने की आज़ादी है. जिन पर बंदिशें हैं वो नुकसान
में हैं. फ़र्ज़ कीजिये किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कोई हाई प्रोफ़ाइल नौकरी है
जिसके लिए सुदूर इलाकों में रात- बेरात सफ़र करने की ज़रुरत है. ऐसी नौकरी के लिए
समान क्वालिफिकेशन होने पर भी लड़कों को वरीयता दी जायेगी क्यूंकि सामाजिक
परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं. समय और स्थान रूपी संसाधनों में असीमित पैठ पुरुष का
प्रिविलेज है ऐसे में उन्हें उस पद </span> विशेष <span lang="HI">के लिए पुरुष ही ज्यादा उपयुक्त लगेगा. अब उस नौकरी देने वाली कंपनी को लिंगभेदी कहा जाय या समाज को</span>?</span><br />
<span style="font-family: inherit;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">अब सवाल यही है कि
यथास्थिति को बदलने की पहल कौन करे</span>? <span lang="HI">ये जोखिम कौन उठाए</span>?
<span lang="HI">इस लाइब्रेरी में लड़कियों की मनाही सीमित जगह की समस्या हल करने का
तरीका है</span>, <span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI">लड़कियों के लिए अलग
लाइब्रेरी भी सामाजिक परिवेश देखते हुए वाजिब व्यवस्था लगती है. न माता- पिता ऐसी पहल
कभी करेंगे और विश्विद्यालय के पास तो लड़कियों की सुरक्षा का एक सर्वव्यापी और
सर्वमान्य बहाना है ही. किसी भी सन्दर्भ में लड़के- लड़कियों का मुक्त रूप से मिल
पाना हमारे समाज के लिए गाहे- बगाहे चिंता का विषय बन ही जाता है. लेकिन सवाल
माता- पिता की अनुमति से परे छात्राओं की स्वतंत्र निर्णय क्षमता का भी है.
संसाधनों की कमी और अभिभावकों की अनिच्छा को कब तक उन्हें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी
से वंचित रखने का बहाना बनाया जा सकता है</span>? <span lang="HI">गौरतलब है कि लाइब्रेरी में प्रवेश की मांग छात्राओं की तरफ़ से ही
आयी थी. उसके बाद वी.सी. साहब ने मानव संसाधन मंत्रालय से लाइब्रेरी का स्पेस बढ़ाने
के लिए अनुदान माँगा है जिससे ज्यादा छात्राओं को भी सेन्ट्रल लाइब्रेरी में जगह
दी जा सके. वी.सी. पर ज़्यादा से ज़्यादा यथास्थिति बने रहने देने का इल्ज़ाम लगाया
जा सकता है इसे पैदा उन्होंने नहीं किया. ये ज़रूर है की महत्वपूर्ण पदों पर बैठे
लोग जो शायद बदलाव की पहल करने का माद्दा रखते हैं उनका आत्मसंतोष अक्सर प्रगति
में बाधक होता है. और जेंडर के आधार पर समानता फ़िलहाल प्रगति और मानवाधिकार विकास
का पर्याय बन चुकी है.</span> <o:p></o:p></span></div>
</div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">खबर आ रही है कि इलाहाबाद
हाई कोर्ट में वी.सी. के ख़िलाफ़ दाखिल एक जनहित याचिका के जवाब में कोर्ट ने
लड़कियों को सेन्ट्रल लाइब्रेरी की सदस्यता दिए जाने के आदेश दिए दे हैं. वी.सी.
साहब का बयान उसके सन्दर्भ के साथ देखा जाय तो नारी विरोधी नहीं था लेकिन सेंट्रल
लाइब्रेरी के दरवाज़े लड़कियों के लिए खुलना निश्चय ही लैंगिक समानता की दिशा में
अगला कदम है.</span> <o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
</div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">हमें बीमारी का कोई लक्षण
दीखते ही जड़ तक जाने के बजाय लक्षण पर वार करने की आदत बन गयी है</span>, <span lang="HI">किसी सर्वव्यापी समस्या का
दोष मढने के लिए बलि का बकरा तलाशने की प्रवित्ति है ताकि अपनी ग्लानि और
ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जा सके.</span> <span lang="HI">कम से कम
भारत में ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में देर रात रिसर्च लैब में बैठने से लेकर
हॉस्टल से देर रात गए बाहर रहने के मामले में लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग नियम
हैं. ये सब अलग पुस्तकालय की तरह ही समय और स्पेस के संसाधन पर पुरुष के विशेषाधिकार
को सुदृढ़ करते हैं. इस मामले में बहस तो हर विश्वविद्यालय के पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा होनी चाहिए. </span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0in; text-align: justify;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;"><span lang="HI">पर फ़िलहाल बलि का बकरा
ए.एम्.यू. के वी.सी. ही बने!</span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<span style="font-family: inherit;"><u1:p></u1:p>
<u1:p></u1:p>
<u1:p></u1:p>
<u1:p></u1:p>
</span><br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-2376010986819040852014-08-10T23:33:00.001+05:302017-01-11T11:31:38.354+05:30नग्नता की शुद्धता और शॉक वैल्यू<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYBZJK4DsqFNKwucmQoMdjL5vUQ7v7S47C3p1LY_OUQuHUlcDR-uyzpUXzNE5bLHqA_KLLhOrQqac8hkT_7ufP39D0m1ZHkSU2buwpCdqydXhDso8Zreff1u2YlOJHTzxuTRphWK81yRjt/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">हम अजीब विरोधाभासी दुनिया में रहते हैं. फ़िल्म पी.के. के पोस्टर आते
ही एक लहर आमिर खान को न्यूड पोज़ देने की बहादुरी की प्रशंसा की चली तो वहीं दूसरी
लहर इस बहाने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के दोगलेपन औए लिंगभेद पर हमले की. जो बॉलीवुड (मय
दर्शक) आमिर खान के पोस्टर के लिए नग्न होने को उनका कला के प्रति डेडिकेशन
बता रहा है, वही वर्ग शर्लिन चोपड़ा और पूनम पांडे के ऐसा करने को पब्लिसिटी स्टंट
कहकर फ़तवे जारी करता रहता है. लेकिन विरोध के लिए विरोध करने वाले किसी को भी निराश
नहीं करते. इस जमात ने आमिर पर भी ऑब्सिनिटी ऐक्ट के तहत मुक़दमा ठोंक दिया. अब
सबके सुर बदल गए हैं. लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा सनी लियोन ने किया होता तो यही
जमात आँखें सेंक रही होती. </span><span style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">इन सब विवादों से इतना तो खुल कर सामने आया है कि नग्न देह भी इस क़दर
जेंडर्ड है कि हम पुरुष की देह में बहादुरी और स्त्री की देह में कामुकता ढूंढ ही
लेते हैं. पी.के. का पोस्टर मात्र पब्लिसिटी स्टंट है या फिर सचमुच उस फ़िल्म की
कहानी की कुंजी, इसका फ़ैसला तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद ही हो सकेगा लेकिन ये
पोस्टर सामान्य न्यूड से थोड़ा अलग है. </span></div>
<div style="text-align: left;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">इसमें आपकी नज़र सीधे आमिर की नज़र से मिलती
है, चेहरे के भाव से स्पष्ट है कि वो कुछ बतलाना चाहता है. इसके समानांतर ‘फ़ीमेल
न्यूड’ फ़िल्म या पोर्न में तो क्या, कला के इतिहास में भी ढूँढ पाना मुश्किल है. इनमें
चित्रित औरतें ज़्यादातर खोई हुई सी कहीं और देख रहीं होतीं है. आपकी नज़र उनकी नज़र
पर नहीं बल्कि सीधे उनके शरीर पर पड़ती है जो कि निरीक्षण के लिए हाज़िर है. कभी अगर
नज़र सामने होगी भी तो भाव हमेशा स्त्रियोचित कोमलता या कामुक आमंत्रण के होंगे. आप उन्हें देखे और वो
पलटकर आपको, फ़ीमेल न्यूड में ऐसे असहज व्युत्क्रम का सामना नहीं करना पड़ता. नारीवादी
चाहे नारी देह की स्वतन्त्रता की जितनी सिफ़ारिश करें लेकिन </span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 16px; line-height: 18.39px;">ज़्यादातर </span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">फ़ीमेल न्यूड पुरुष की दृष्टि के लिए बने हैं और वो स्त्री
के अपने भावों के बजाय उन्हें देखने वाले की कामेच्छा का प्रतिबिम्ब होते हैं.</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">लेकिन इन सबसे इतर एक मुद्दा सिर्फ़ नग्नता और उसके विभिन्न
निहितार्थों का भी है. मानव के जातिवृत्त और जीवनवृत्त दोनों ही में देखना, सुनने
और बोलने से पहले विकसित होने वाली इन्द्रिय है. हम जितना कुछ देख पाते हैं क्या
उतना ही और उसे वैसा का वैसा ही कह पाते हैं? दृश्य और भाष्य के बीच का यह फ़र्क ही
नग्नता और अश्लीलता के बीच का फ़र्क है. एक बार पढ़ना-बोलना सीख जाने के बाद हम
बालसुलभ भोलेपन से दुनिया को नहीं देख सकते. अब हमारे और हमारी आस-पास की दुनिया
के बीच हमारे ज्ञान और अनुभवों का पर्दा है. चूंकि बात फ़िल्म के पोस्टर से शुरू
हुई है इसलिए एक फ़िल्म का उदाहरण भी यहाँ मौजूं होगा. हाल ही में आयी फ़िल्म ‘आँखों
देखी’ के बाऊजी जब से सिर्फ़ अपनी आँखों देखी पर यकीन करने की ठान लेते हैं तब से
उन्हें वो चायवाला भी खूबसूरत नज़र आने लगता है जिसे उन्होंने पहले कभी ध्यान से देखा भी नहीं था. हम असलियत नहीं बल्कि असलियत की सांस्कृतिक हस्तक्षेप से बनी छवि देखते हैं. इसलिए
नग्नता हमारे लिए सिर्फ़ निर्वस्त्र होने से ज़्यादा कुछ हो जाती है. इसी वजह से तथाकथित सभ्य समाज में इसकी एक शॉक वैल्यू है जिसका उपयोग अलग-अलग तरीके से होता रहा है. </span><span style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihHCw20vAeZX2kktsxPpAZ5eJ1E63uGNpGrUuvgvQI6NVG4VnNNUNZ5lB_5H4d8esqu9eSE2Gi5Fdkwslvi9pfmqE-HggjfQQJbAtbAPoyAqZmNDsXOcqtNbMBtg3DZXrm1ah1uKb37C9F/s1600/manipurprotest.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">उदाहरण के तौर पर भारतीय सशक्त सेना बलों के द्वारा एफ्स्पा की आड़ में
किये जाने वाले बलात्कारों के विरुद्ध मणिपुर मदर्स के न्यूड प्रोटेस्ट या
फिर इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए ग्रामीण महिलाओं का नग्न होकर हल चलाना ले
सकते हैं. रूटीन से अलग होने ने ही नग्नता को उसकी शॉक वैल्यू दी है जो हमें कभी
कचोटती है तो कभी वीभत्स रस से भर देती है लेकिन हमारा ध्यान खींचने में हमेशा ही
सफ़ल रहती है. जहां 'न्यूड बीच' का चलन है या फिर जिन जनजातियों में कपड़े पहनने या
वक्ष ढंकने की बाध्यता नहीं है, वहां नग्नता पूरी तरह से डीसेक्चुअलाइज्ड है और
किसी को चौंकाती भी नहीं है. </span><span style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">न्यूडिटी का एक बहुत
महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक अर्थ शुद्धता और प्रकृति से निकटता का भी है. ये संयोंग
नहीं है कि ‘पेटा’ </span><span style="font-size: 12pt; line-height: 115%;">(</span><span lang="EN-US" style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US;">people
for ethical treatment of animals) </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">ने
शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए लोकप्रिय शख्सियतों के न्यूड या फिर उनकी सिर्फ़
पौधे-पत्तों में लिपटी छवियों का बारहा इस्तेमाल किया है. इसके अलावा, कोई विरला ही धर्म होगा
जिसके किसी भी पवित्र स्थल पर नग्न मूर्तियाँ या छवियाँ न मिलें. दिगंबर जैन, नागा
साधू इत्यादि की परम्परा विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में नग्नता को शुद्धता का
पर्याय माने जाने को रेखांकित करते हैं. जहां नग्न होना निराभरण और छलरहित होने का पर्याय हैं.</span><span style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">ऐसे में नग्नता को इतनी सहजता से सेक्स और अश्लीलता से जोड़ लेना हमारी
मानसिकता की दो परतों को उघाड़कर सामने लाता है. पहला कि नग्नता हमेशा सेक्स का
पर्याय है और दूसरा- हमारे लिए सेक्स से जुड़ी चीज़ें हमेशा अश्लील और गंदी ही
होंगीं. ये दोनों ही बातें हमारी साइकोलॉजी में घर कर चुकीं हैं. सेक्स एजुकेशन के
विरोध के पीछे भी कमोबेश यही मानसिकता है.</span><span style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">दरअसल बाज़ार और उपभोक्तावाद की संस्कृति के लिए नग्नता का कामुकता से
जुड़ा अर्थ ही सबसे अनुकूल है. शायद हमारी ही दमित कुंठाओं ने बाज़ार को संकेत दिया
होगा जिससे कि नग्नता फ़िल्म या कोई भी उत्पाद बेचने का सबसे सरल साधन बन गयी. शुरुआत
जहां से भी हुई हो, फ़िलहाल ये कुचक्र हमारे ऊपर इतना हावी हो चुका है कि हम
न्यूडिटी में शुद्धता या फिर कलात्मकता देखने की क्षमता खो बैठे हैं. वो चाहे किसी
भी रूप में किसी भी उद्देश्य से हमारे सामने आये, हमें हमेशा कामोत्तेजक ही लगती
हैं. ऐसे में पी.के. का पोस्टर चाहे कुछ भी इंगित कर रहा हो हमें तो वो अश्लील
लगना ही था. एक बार भाषा से बनी कृत्रिम दुनिया का हिस्सा बन जाने के बाद सिर्फ़ दृष्टि
बोध की शुद्ध दुनिया में लौटना असंभव है. <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-37797104068994358162014-07-14T09:37:00.001+05:302017-01-12T13:28:32.768+05:30फ़ीफ़ा का तमाशा और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px; text-align: justify;">जून के महीने में अगर आपने रेड एफ़.एम. सुना हो तो गानों के बीच विज्ञापनों के पारंपरिक व्यवधानों के अलावा फ़ीफ़ा विश्व कप की अपडेट और कपिल शर्मा के लाइव कंसर्ट की सूचना मिलती रही होगी. गूगल ने फ़ीफ़ा वर्ड कप के पहले से लेकर आखिरी दिन तक के लिए अलग-अलग ‘गूगल-डूडल’ मुक़र्रर कर रखे थे. इसी गूगल सर्च पर कपिल टाईप करते ही आने वाले सुझावों में कपिल ‘शर्मा’, ‘देव’ और ‘सिब्बल’ को पीछे छोड़ चुका है. फ़ीफ़ा वर्ड कप और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल अपनी- अपनी दुनिया में मनोरंजन के सिरमौर बन चुके हैं. इनके सर्वव्यापीपन से अनजान होना आपके ‘बोरिंग’ होने या फिर आपके पिछड़ेपन(?) का सबूत माना जा सकता है. कपिल शर्मा इस महीने की पांच तारीख को अपने कंसर्ट में करोड़ों बटोर चुके है, आगे शायद फ़िल्मों में काम करेंगे. आज बीसवें विश्व कप का विजेता भी जर्मनी घोषित हो गया है. खेलों को, ब्राज़ील को, हास्य को और हमें क्या मिला? ये सवाल रह जाएगा.</span><br />
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px; text-align: justify;"><br /></span>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">ब्राज़ील में बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है. दरअसल, मनोरंजन अब वक्त काटने का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा अफ़ीम बन गया है जिसकी खुराक लेकर हम सच्चाई से पलायन कर जाना चाहते है. जिसके नशे में हम लिंगभेद, नस्लभेद, भ्रष्टाचार को भुलाए रखना चाहते हैं. ऐसे में ब्राज़ील का अपनी ही ज़मीन पर हारना शायद इस तंद्रा को तोड़े.</span><br />
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 16px; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span>
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 16px; line-height: 18.399999618530273px;">प्रसिद्ध दार्शनिक वोल्टेयर का कहना था कि ‘अगर ये जानना हो कि आपके ऊपर राज कौन करता है, ये जानने की कोशिश करो कि आप किसकी आलोचना नहीं कर सकते.’ इसी तर्ज़ पर क्या ये माना जा सकता है कि हम जिसकी आलोचना बिना किसी बात के कर सकते हैं, जिस पर बात-बेबात हंस सकते हैं, वो समाज का सबसे शोषित वर्ग है? व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर मनोरंजन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है और इसे हम किस हद तक मनोरंजन के नाम पर अनदेखा कर सकते हैं? भव्यता का अश्लील प्रदर्शन और गले फाड़ कर हंसना ही मनोरंजन का पर्याय कब से बन गया? इन सब सवालों के सही-सही जवाब मिलना शायद संभव न हो पर इनकी पड़ताल करना किसी समाज की नब्ज़ टटोलने जैसा है.</span><br />
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 16px; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">कॉमेडी नाइट्स विद कपिल के हास्य, या कहें परिहास का केंद्र सारे महिला पात्र हैं. उसकी पत्नी जब-तब अपनी औसत शक्ल सूरत और कम दहेज लाने के लिए अपमानित होती रहती है. कपिल अर्थात बिट्टू शर्मा की एक ढलती उम्र की बुआ है जिसका कुंवारा रह जाना उसकी सबसे बड़ी व्यथा है और उसकी पुरुष-पिपासा हमारे हास्य का स्रोत. थोड़ी आज़ादी है तो दादी के चरित्र के लिए जो दारू पी कर झूम सकती है और शो में आये पुरुषों को ‘शगुन की पप्पी’ चस्पा कर सकती है. उम्रदराज़ औरतों पर हमारे समाज में बंधन नियंत्रण की ज़रुरत वैसे भी नहीं समझी जाती. एक वजह यह भी है कि दादी का चरित्र एक पुरुष अदाकार निभा रहा है. पुरुषों का स्त्रियों जैसी वेशभूषा पहनना और उनके जैसी हरकतें करना हमारे लिये इतना हास्यास्पद है कि इसके अलावा हमें हंसाने के लिए उसे ज़्यादा मेहनत की भी ज़रुरत नहीं पड़ती.</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span>
<span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुमान के मुताबिक़ २०१४ के विश्व कप पर लगभग 14 अरब डॉलर का खर्च आया है. ब्राज़ील के आर्थिक हालातों को मद्देनज़र रखते हुए विश्वकप का आयोजन पहले ही देश पर वैसे भी एक भार था. विश्व के अब तक के सबसे महंगी स्पर्धा की तैयारी के लिए ब्राजील सरकार को पब्लिक परिवहन का किराया बढ़ाना पड़ा साथ ही बहुत सी ज़रूरी सार्वजनिक परियोजनाओं को भी रोकना पड़ा. विश्व कप के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए किये गए चाक-चौबंद सुरक्षा इंतज़ामात में हुआ खर्च एक अतिरिक्त भार था. फ़ीफ़ा प्रमुख ‘सेप ब्लैटर’ पर जब-तब भ्रष्टाचार की आरोप लगते रहें है. ब्रिटेन के सन्डे टाइम्स के एक खुलासे के अनुसार २०२२ में फ़ीफ़ा के आयोजन का अधिकार ‘क़तर’ को मिलना एक अंदरूनी फिक्सिंग थी. न सिर्फ़ इस अरबी देश की गर्म जलवायु इस खेल के आयोजन के प्रतिकूल है बल्कि वहां खेलों की तैयारी के लिए भारतीय और नेपाली प्रवासी मजदूरों से अमानवीय तरीके से काम लिया जा रहा है. मजदूरों की लगातार होती मौत और उनके मानवाधिकारों का हनन, क़तर के चुनाव को निष्पक्ष बताने वालों के गले की हड्डी बनती जा रही है.</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">हिन्दी में हास्य को एक अलहदा विधा का रूप देने वाले हरिशंकर परसाई का तीखा व्यंग्य सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार होता था. स्टैंड अप कॉमेडी में भी फूहड़पन शुरुआत से रहा हो ऐसा नहीं है. सुरेन्द्र शर्मा के हास्य में भी ‘घरवाली’ आती है लेकिन सिर्फ़ नीचा दिखाई जाने के लिए नहीं. शैल चतुर्वेदी और अशोक चक्रधर का व्यंग्य ज़्यादातर या तो ट्रेजेडी से उपजता है या फिर ख़ुद की कमियों पर ही हँसते हुए उत्तम हास्य की कसौटी पर खरा उतरता रहा है. ये धारा अब टी.वी. के कॉमेडी शोज़ में तिरोहित हो चुकी है.</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"> </span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">इसी तरह फ़ुटबॉल का उद्भव ‘हार्पेस्तान’ नाम के एक प्राचीन यूनानी खेल से हुआ माना जाता है. ये एक बर्बर, आक्रामक और ग्रामीण खेल था जिसके कोई ख़ास नियम नहीं थे. सालों के मानकीकरण और वैश्वीकरण ने फ़ुटबॉल को उसका आधुनिक रूप बख्शा है. इस विषय में ऑस्कर वाइल्ड का प्रसिद्ध कथन है, ‘फ़ुटबॉल बर्बर लोगों के लिए बना वह खेल है जिसे सभ्य लोग खेलते हैं.’ व्यवसायीकरण और मुनाफ़े की मंशा में गुड़ में मक्खी की तरह आ जुटे प्रायोजकों ने कॉमेडी और फ़ुटबॉल दोनों ही को उसका मौजूदा विकृत रूप दिया है. ज़ाहिर है, </span><span style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">तत्सम जब तद्भव बनता है तो अपनी बर्बरता तो बचा ले जाता है लेकिन अपनी सादगी नहीं</span><b style="font-family: Mangal, serif; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">.</b></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">कपिल शर्मा के शो पर कई बार महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने पर केस दर्ज करने की कोशिश हुई. लेकिन उसे एक अतिवादी प्रतिक्रया कह कर पल्ला झाड़ लिया गया. ब्राज़ील विश्व कप पर हुए अनाप-शनाप खर्च को वहन करना भी सालों तक बढ़े हुए टैक्स के रूप में वहां के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से ही आयेगा और सारा मुनाफ़ा फ़ीफ़ा का होगा. लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी इस अन्याय का विरोध करने के लिए अपनी ही सरकार का दमन झेल रहें है. जो सबसे ज़्यादा प्रभावित है उसे ही मनोरंजन के नाम पर सबकुछ बर्दाश्त करने को कहना हमारी प्रवित्ति है और ये किसी टी.वी. कलाकार या खेल संस्था से ज़्यादा हमारी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.</span><span style="font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">ये एक अजीब संयोग है लेकिन भ्रष्टाचार का गढ़ होने के साथ- साथ ऐसे खेल आयोजन प्रतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का भी एक ज़रिया बन सकते हैं. ब्राज़ील के नागरिकों का विश्व कप की पूर्व संध्या पर किया गया अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन इस मामले में हमारी प्रेरणा बनने लायक है जिसमें फ़ीफ़ा और जागरूक नागरिक, अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में एक दूसरे के आमने- सामने थे. ऐसे में नागरिकों का इनकी दी अफ़ीम चाटकर अशक्त नींद में सो जाना एक पाले की सबसे बड़ी उम्मीद है दूसरे पाले की सबसे बड़ी हार. क्यूंकि टी.वी. के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है और फ़ीफ़ा जैसी संस्थाएं किसी भी सरकार के लिए उत्तरदायी नहीं है.<o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;">महिलाएं, बच्चे, मजदूर और आर्थिक रूप से अल्पविकसित तबका इस चमकती तस्वीर का वो निगेटिव है जिसकी ज़रुरत सिर्फ़ भव्य आयोजनों और भड़कीले कॉमेडी शोज़ की रंगीन तस्वीर रचने के लिए पड़ती है. कुछ विरले लोग इस तस्वीर और निगेटिव के बीच की खाई लांघ भी सके हैं. ख़ुद साधारण पृष्ठभूमि से आये ख़ुद कपिल शर्मा की सफ़लता इसका प्रमाण है. या फिर सोमालिया जैसे पिछड़े देश से आये रैपर ‘के नान’ की कहानी जिसका गाना २०१० के फ़ीफ़ा विश्व कप का आधिकारिक चिन्ह और अफ्रीकी देशों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरा था. पर इन गिने चुने उदाहरणों के अलावा ज़्यादातर किस्से निराशाजनक ही हैं. आज, १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार ‘डाऊज़ केमिकल’ लन्दन के ओलम्पिक का प्रायोजक हो सकता है, आई.पी.एल. की टी.आर.पी. मैच फिक्सिंग की खबरों के बाद और भी बढ़ सकती है, महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाले ‘मिस इंडिया’ के निर्णायक हनी सिंह हो सकते हैं. हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि ये बातें अब हमें परेशान भी नहीं करतीं. हालिया विश्व कप के लिए गाया गया ‘पिटबुल’ का गाना ‘वी आर द वन’ हमारी इस स्थिति के लिए सबसे सटीक रूपक है. इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी सह लेने के मामले में क्या भारत, क्या ब्राज़ील हम सब एक ही हैं!</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><a href="http://www.patrakarpraxis.com/2014/07/blog-post_15.html" target="_blank">'पत्रकार प्राक्सिस' पर यह लेख.</a></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-35887103132948266522014-07-09T15:08:00.000+05:302015-12-24T13:54:50.159+05:30बिलकीस बानो अक्का 'बॉबी जासूस' <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘बॉबी जासूस’ से पहले शायद ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ ही ऐसा कर पायी है. जिसमें
मुख्य किरदारों के नाम ‘शर्मा’, ‘मेहता’ या ‘सिंह’ नहीं थे. ऐसा होने के बाद भी वो
एक मुख्यधारा की फिल्म थी. उस फ़िल्म के तमाम मुख्य किरदार ‘खान’ थे लेकिन उसकी
बार-बार उद्घोषणा की ज़रुरत नहीं थी. अब तक ये विशेषाधिकार हमारी फिल्मों में सिर्फ़
हिन्दू नायकों के लिए सुरक्षित है. हमारी
फ़िल्म के सारे नायक ऊंची जाति के पुरुष ही क्यूं होंगे ये सवाल हमने अपने
फिल्मकारों से कभी पूछा ही नहीं. शायद हमारे दिमाग में भी नहीं आया. क्यूँ मुस्लिम
युवक या तो आतंकवादी होंगे, या फिर हीरो की रोमांस में मदद करने वाले शायर या फिर
शान्ति के मसीहा जैसे कुछ, जिससे बाकियों के पाप धुल जाएँ? कुल मिलाकर उनका
मुस्लिम होना ही उनकी पहचान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहेगा. बाक़ी बातें गौण
होंगी. वो ‘फ़ना’ का नायक हो सकता है, ‘दबंग’ या ‘हौलिडे’ का कतई नहीं. हिन्दू नायक
कभी डॉक्टर होगा, कभी सैनिक, कभी इंजीनियर, साथ में उसका हिन्दू होना जैसे उसके
खाने-पीने, सांस लेने जितना ही स्वाभाविक है. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ऐसे में मुस्लिम औरत एक ऐसा क्रॉस सेक्शन है जिसका हमारी फ़िल्म में
नायक बनकर आना एक घटना है. ‘बॉबी जासूस’ की खूबसूरती ये नहीं है कि उसकी नायिका एक
मुस्लिम औरत है. बल्कि एक फ़िल्म के रूप में अपनी तमाम खामियों के बावजूद उसकी
सफ़लता ये है कि फ़िल्म देखते हुए हम ये बात बिलकुल भूल जाते हैं. ‘बिलकीस बानो’ को
फ़िल्म का नायक (जब तक फ़िल्म को अपने कन्धों पर उठाने वाले के लिए कोई ‘जेंडर
न्यूट्रल’ विशेषण न हो) बनने के लिए न दंगा पीड़ित होने की ज़रुरत हुई, न ही औरतों
के ऊपर हुए अत्याचारों का बदला लेने की. हैदराबादी लहजे में बोलने वालों को जोकर
दिखाने की भी ज़रुरत नहीं है. कैरियर के चुनाव को लेकर तनाव और संवादहीनता की
स्थिति पिता और ‘बेटी’ में भी हो सकती है. बिलकीस अपने जैसी रहते हुए भी सिर्फ़
‘समानांतर सिनेमा’ नहीं बल्कि मुख्यधारा सिनेमा का मुख्य किरदार हो सकती है जहां उसे
‘मर्दानी’ बनने की ज़रुरत नहीं. ‘वुमन’ और ‘माइनौरिटी’ के ख़ास दर्जे और मुद्दों के
बिना भी एक पूरी फ़िल्म उस पर केन्द्रित रह सकती है. बराबरी शायद ऐसी ही दिखती है! <o:p></o:p></span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-85385437058953876102014-06-27T15:01:00.000+05:302017-01-11T11:37:53.555+05:30कंडोम बनाम कल्चर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> <o:p></o:p></span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हाल ही में न्यूयॉर्क
टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एड्स से लड़ने के लिए कंडोम
के बजाय भारतीय संस्कृति को प्राथमिकता देने की कह कर सोशल मीडिया के निर्दय
चुटकुलों के ताज़े- ताज़े शिकार बन गए हैं. हालांकि उन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज के
ज़रिये सफ़ाई देने की कोशिश की है कि उनके बयान को तोड़ा- मरोड़ा गया है. वो कंडोम के
विरोधी नहीं लेकिन सेक्स संबंधों में ईमानदारी के पक्षधर हैं. पर तब तक सोशल
मीडिया पर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कल्चर ही कंडोम है</span>’, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपना कल्चर पाहन कर चलो</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">जैसे जुमले उछाले जा चुके
थे. उनके इस बयान के बहाने ही सही दो मुद्दों महत्वपूर्ण पर प्रायः प्रतिबंधित
मुद्दों पर चर्चा की जानी चाहिए- पहली स्वास्थ्य नीतियों में नैतिकता के दखल और
दूसरा विज्ञापनों में कंडोम का चित्रण.</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">फ़िलहाल अगर स्वास्थ्य
मंत्री के बयान के सन्दर्भ को परे रख कर बात करें तो संस्कृति के ज़रिये समस्या का
समाधान निकालना कोई हास्यास्पद बात नहीं है. कोई भी संस्कृति अपने मूल में अपनी
जन्मदाता सभ्यता के लोगों की ज़रूरतों का जवाब भर ही है. जब तक तकनीक किसी समस्या का
तोड़ न ढूंढ ले</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">संस्कृति ही समाधान है.
लेकिन तकनीक का विकास होते ही संस्कृति का पलक झपकते ही बदल जाना संभव नहीं है.
इसके जीवाश्म आधुनिकता के साथ हमेशा ही लिपटे रहते है. गर्भनिरोधकों के
आविष्कार-प्रसार से पहले के समय में</span>, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">संयम</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">की संस्कृति निश्चय ही अनचाहे गर्भ</span>,
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">संक्रमण
से बचाव और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए वरदान रही होगी. ये किसी ख़ास धर्म या
संस्कृति की विशिष्टता हो ऐसा भी नहीं है. ईसाई धर्म का भी ब्रह्मचर्य और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एब्स्टिनेंस</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">पर कमोबेश उतना ही ज़ोर रहा
है. लगभग सभी पोप गर्भनिरोध</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कंडोम और गर्भपात को लेकर अपने
अनुदार विचारों से विश्व को चौंकाते रहें है.</span><br />
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<o:p></o:p></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इस तरह की नैतिकता का पाठ
पढ़ाना धर्मगुरु होने की पात्रता तो हो सकती है लेकिन स्वास्थ्य नीतियों के साथ
इसका घाल-मेल बहुत घातक है. नीति नियंताओं और शिक्षकों ने जब भी जागरूकता पैदा
करने की ज़िम्मेदारी नैतिक शिक्षा के सहारी छोड़ी है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तब-तब मुंह की खाई है. नब्बे के दशक में अमेरिका में किशोर लड़कियों
में बढ़ती गर्भाधान की दर से निपटने के लिए किये गए उपाय इसका उदाहरण है. कुछ
कैथोलिक स्कूलों ने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">यौन-शिक्षा</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">के बजाय </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एब्स्टिनेंस ओनली</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कार्यक्रमों का सहारा लेना ज़्यादा पसंद किया. २०१० के सरकारी आंकड़े
बताते हैं कि मिसीसिपी जैसे राज्यों में जहां यौन शिक्षा नहीं दी गयी वहां
किशोरियों में अनचाहे गर्भ की दर न्यू हैम्पशायर जैसे उदार राज्यों से अधिक है
जहां के स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाती है. जागरूकता विहीन युवा और किशोरों के
पास ग़ैरइरादतन गर्भ और एड्स से बचने की कोई तैयारी नहीं होती. क़ानून या उपदेश के
बूते हम किसी के लिए यौन गतिविधि की उम्र नहीं तय कर सकते. कम से कम नीति नियंताओं
को इस मुगालते में नहीं आना चाहिए. हां</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सही जानकारी और कंडोम के प्रचार-प्रसार के ज़रिये उन्हें एड्स जैसी
तमाम संक्रामक बीमारियों के खतरे से ज़रूर बचाया जा सकता है.</span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अब बात कंडोम के विज्ञापनों की
आती है. डॉक्टर हर्षवर्धन की शिकायत कंडोम के विज्ञापनों के ज़रिये हर तरह के
संबंधों को जायज़ दिखाने की है. गौरतलब है कि हाल ही में अभिनेता रणवीर सिंह ने
ड्यूरेक्स कंडोम का ऐड किया जिसमें वो हर बार अलग लड़की के साथ नज़र आते हैं. ये एक
अजीब संयोग है लेकिन फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी दिखने वाली इन दोनों घटनाओं में एक
जैसा ही सन्देश निहित है. डॉ. हर्षवर्धन अगर मोनोगैमी को कंडोम का विकल्प मानते
हैं तो क्या वो इस बात की अनदेखी नहीं कर रहे कि बेहद इमानदार संबंधों में भी
अनचाहे गर्भ और एस.टी.डी. का ख़तरा होता है. इसी तरह </span><span style="font-family: Mangal, serif;">‘<span lang="HI">डू द रेक्स</span>’
<span lang="HI">का विज्ञापन पुरुषों की </span>‘<span lang="HI">बिन लगाम के घोड़े</span>’
<span lang="HI">वाली छवि को भुना रहा है. दोनों ही अपने- अपने तरीके से वैवाहिक
संबंधों के भीतर कंडोम की ज़रुरत को कम करके आंक रहें है. ये ठीक है कि</span>
<span lang="HI">नैतिकता किसी भी विज्ञापन को कटघरे में खड़ा करने का बहाना नहीं बन
सकता लेकिन जो उत्पाद किसी सामाजिक सारोकार से जुड़ा हो मीडिया में उसके चित्रण की
पड़ताल ज़रूरी है. अस्सी-नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले निरोध के विज्ञापनों
में पुरुष कभी </span>‘<span lang="HI">कैसीनोवा</span>’ <span lang="HI">नहीं होते
थे. वो ज़्यादातर हमारे आस-पास का शादीशुदा आदमी थे. क्या मध्यम और निम्न-मध्यम
वर्ग तक जागरूकता पहुंचाने के लिए ये </span>‘<span lang="HI">आम आदमी</span>’ <span lang="HI">वाली छवि ज़्यादा सहायक नहीं है</span>?</span><o:p></o:p></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक और रोचक पहलू महिलाओं का
ऐसे विज्ञापनों से नदारद रहना भी है. क्या इसे हमारे समाज में शारीरिक संबंधों के
मामले में औरतों के पास निर्णय लेने का ज़्यादा अधिकार न होने का प्रतिबिम्ब माना
जाय</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक पूजा बेदी के </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कामसूत्र</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">विज्ञापनों को अपवादस्वरूप
छोड़ दें</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तो आज भी किसी मुख्यधारा की
अभिनेत्री का कंडोम के ऐड में दिखाई देना उसके कैरियर के लिए घातक होगा. औरतें
दिखीं हैं तो </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">माला डी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">के ऐड में</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वो भी हमेशा शादीशुदा जिनके
लिए गर्भनिरोधक गोलियां बच्चों में अंतर रखने का एक तरीका है निडर प्रणय संबंधों
का साधन नहीं. </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">डू द रेक्स</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">में लड़कियां तो हैं लेकिन
वो निर्णयकर्ता नहीं निष्क्रिय सजावटें हैं जो सिर्फ़ विज्ञापन को ज़्यादा उत्तेजक
बनाने के लिये है. लेकिन स्थापित मानकों का इस्तेमाल शायद ऐसे विज्ञापन निर्माताओं
की मजबूरी है कभी व्यावसायिक लाभ के लिए तो कभी ज़्यादा से ज़्यादा जनता को बिना
प्रतिरोध के जागरूक करने के लिए.</span><o:p></o:p></div>
<o:p></o:p>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<br /></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन स्वास्थ्य मंत्री और
डॉक्टर होने के नाते क्या हर्षवर्धन जी की क्या ये ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इस
बहस को नैतिकता के बजाय यथार्थ के प्रिज़्म से देखने और दिखाने की कोशिश करें. आज
इंटरनेट और टी.वी. की व्यापक पहुँच हर तरह के अधकचरा ज्ञान को घर- घर पहुंचा रही
है. आप न यौन जिज्ञासा को रोक सकते हैं और न ही आपसी सहमति से बने किसी भी तरह के
विवाह-पूर्व</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">विवाहेतर या वैवाहिक
संबंधों को. लेकिन उन्हें सुरक्षित ज़रूर बना सकते है. एड्स की बढ़ती दरों के बीच
कंडोम सबसे प्रक्टिकल उपाय है. वैसे भी ये एक बचकानी अवधारणा है कि लोग हर तरह के
यौन सम्बन्ध सिर्फ़ इसलिए बनाने लगेंगे क्यूंकि कंडोम आसानी से उपलब्ध है! स्वास्थ्य
विभाग अगर अपना नैतिक-अनैतिक थोपे तो असफ़ल होगा क्यूंकि सबके लिए एक ही रेडीमेड
नैतिकता काम नहीं करती. वहीं अगर वो नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष रहकर जागरूकता
अभियान में अपनी ताकत झोंके तो ज़रूर सफ़लता मिलेगी क्यूंकि जागरूकता की कमी ही उनकी
चिंता का विषय हो सकता है. नैतिकता की कमी की भरपाई करना किसी भी मंत्री या सरकारी
मंत्रालय के अधिकारक्षेत्र के बाहर है.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%;">
<br /></div>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; line-height: 18.399999618530273px;"> <a href="http://india.blogs.nytimes.com/2014/06/23/health-minister-questions-stress-on-condoms-in-aids-fight/?_php=true&_type=blogs&_r=0" target="_blank">डॉक्टर हर्षवर्धन का साक्षात्कार </a></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; line-height: 18.399999618530273px;"><a href="http://visfot.com/index.php/comentry/11198-culture-ka-condom.html" target="_blank">विस्फोट.कॉम पर यह लेख </a></span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-4002871002433783302014-06-09T17:22:00.001+05:302014-08-20T17:49:51.958+05:30जातिवाद और दलित महिलाओं का संघर्ष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">बात राजस्थान के
भटेरी गाँव की है. गाँव के गूर्जर समुदाय के कुछ युवकों ने एक दलित औरत को ‘सबक
सिखाने’ की ठान ली. वो औरत सरकारी संस्थाओं की ‘साथिन’ बनकर गाँव में बाल विवाह
रुकवाने की कोशिश कर रही थी. और तो और, उसने नौ साल की बच्ची का विवाह रुकवाने के
लिए एक सवर्ण परिवार के ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने का दुस्साहस भी दिखाया
था. इस समुदाय के पांच युवकों ने 22 सितम्बर 1992 की शाम ‘साथिन’ भंवरी देवी का
बलात्कार किया. भंवरी देवी, मेडिकल जांच, पुलिस और गाँव-समाज की प्रताड़ना से लेकर हर कदम
पर मुसीबतों से जूझने के बावजूद न्याय पाने में असफ़ल रहीं. 1995 में सेशन कोर्ट ने
पाँचों अभियुक्तों को बाइज्ज़त बरी कर दिया. उस निर्णय में बाक़ायदा लिखित है कि,
‘ये अविश्वसनीय है कि कोई ‘ऊंची’ जाति का पुरुष किसी दलित स्त्री का बलात्कार
करेगा.’ </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इसी वर्ष २३ मार्च
को हरियाणा के भगाणा गाँव में बाल्मीकि समुदाय की चार लड़कियों का गाँव के जाट
युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया. न्याय पाने के लिए उनका संघर्ष देश की राजधानी
में धरने के रूप में अभी तक जारी है. हाल ही में उत्तर प्रदेश के बंदायूं जिले के
कटरा गाँव में</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">चौदह व पंद्रह साल की दो नाबालिग चचेरी बहनों के साथ</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">गाँव के ही कुछ दबंगों ने
सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर दी.</span><span dir="RTL"></span><span dir="RTL" lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><span dir="RTL"></span> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हत्या<span dir="RTL"></span><span dir="RTL"><span dir="RTL"></span> </span>के बाद बलात्कारियों ने उन लड़कियों का शव
को बड़ी बेरहमी से पेड़ पर लटका दिया। इस भयानक सीनाजोरी से अपराधियों के बिल्कुल
निरापद होने का अनुमान लगाया जा सकता है. आरोपी युवक यादव जाति से सम्बंधित थे जो
कि उस गाँव में एक प्रभावी जाति है. पुलिस ने न सिर्फ़ एफ़. आई. आर. दर्ज करने में
आनाकानी की बल्कि लड़कियों के परिवार वालों पर भी रिपोर्ट वापस लेने का दबाव डालती
रही. अब मध्य प्रदेश से भी मिलती-जुलती खबरें आ रहीं है. बदायूं की घटना के बाद
अखिलेश यादव की संवेदना शून्य प्रतिक्रया से ज़ाहिर है कि भंवरी देवी काण्ड के बाईस
वर्ष बाद भी इस तरह के मामलों में पुलिस, प्रशासन और समाज, तीनों ही अपेक्षाकृत कम
संवेदनशील है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘निर्भया काण्ड’ के
बाद आई बहुचर्चित और प्रायः प्रशंसित वर्मा कमेटी रिपोर्ट में जातिवाद उत्प्रेरित बलात्कार
का बारंबार उल्लेख था. इसी घटना के बाद दिए गए एक बयान में आर. एस. एस. प्रमुख
मोहन भागवत ने कहा था कि ‘भारत’ में बलात्कार नहीं होते. ग्रामीण क्षेत्रों में
व्याप्त दलित महिलाओं पर होने वाली हिंसा शायद उनके लिए बलात्कार की श्रेणी में ही
नहीं आते और ऐसी मान्यता रखने वाले वो अकेले नहीं हैं. ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन
से पहले गाँव में आने वाली किसी दलित की नवविवाहिता पर गाँव के ज़मींदार का अधिकार
स्वाभाविक माना जाता था. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">यहाँ उद्देश्य न तो
किसी देश-धर्म, संस्कृति या जाति व्यवस्था को घेरने का है और न ही किसी ख़ास जाति
के सभी पुरुषों को अमानवीय ठहराने का है. इस तरह की प्रतिक्रियाएं सिर्फ़ प्रतिरोध
और आक्रोश को दिग्भ्रमित करती हैं. लेकिन ये शोचनीय है कि भंवरी देवी का संघर्ष
आखिर अंतहीन क्यूँ बन गया या भगाणा की बलात्कार उत्तरजीविताओं का संघर्ष वैसा ही
क्यूँ बनता जा रहा है? क्यूं बदायूं की घटना के विरोध में हर शहर के हर गली-चौक
में ‘१६ दिसंबर’ के उत्तरार्द्ध जैसी उग्र भीड़ इकट्ठा नहीं हो सकी? इन सबका जवाब
पाने के लिए विभिन्न जातियों के अंतर्संबंध के इतिहास और समाजशास्त्र की गहराई में
जाने की ज़रुरत है. </span><o:p></o:p><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जाति व्यवस्था,
सामाजिक वर्गीकरण की सबसे पुरानी व्यवस्थाओं में से एक है जिसमें हर एक वर्ग का एक
नियत स्थान है. शुद्ध-अशुद्ध और स्वीकार्य-निषिद्ध के नियमों ने इन वर्गों को
पारस्परिक निर्भरता के बावजूद एक दूसरे से नितांत अलग अस्तित्व बनाए रखने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जाति व्यवस्था और लिंगभेद की गड्डमगड्ड ने भारतीय समाज
की जो परिपाटी तैयार की है उसमें सवर्ण पुरुष सबसे पहली और दलित महिलाएं सबसे
निचली पायदान पर आते हैं. इस जटिल व्यवस्था में, विवाह संबंधों में स्वीकार्य
संबंधों के बजाय निषिद्ध सम्बन्ध अधिक स्पष्टता से परिभाषित हैं. ख़ास तौर पर, लड़कियों
के मामले में हिन्दू समाज में लड़की का सम्बन्ध अपने बराबर या फिर अपने से ऊंची
कुल-जाति में करने की परम्परा है. ऐसे में ऊंची जाति की महिला और नीची जाति के
पुरुष का सम्बन्ध सर्वथा अनुचित और अवांछनीय है. जो स्त्री जितनी ही ऊंची जाति से
सम्बन्ध रखती हो उसकी लैंगिक स्वतंत्रता पर उतनी ही बंदिशें होंगी. दलित वर्ग में
अपनी स्त्रियों पर ऐसा नियंत्रण लगाने की प्रथा या आवश्यकता कभी नहीं रही. ऊंची
जाति के पुरुष के लिए दलित स्त्रियाँ हमेशा से ज्यादा प्राप्य हैं जबकि इसका उलटा
वर्जित है. ऐसे में सवर्ण स्त्री और दलित पुरुष के स्वेच्छा से बने संबंधों तक को
रूढ़िवादी समाज का बहुत आक्रामक प्रतिरोध झेलना पड़ता है, जबकि दलित स्त्री पर सवर्ण
पुरुषों द्वारा किये गए बलात्कार की भी ‘शॉक वैल्यू’ बेहद कम है. जो दलित
धर्मान्तरित हो गए हैं उनकी भी सामाजिक स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं है. भारतीय
उपनिवेश में, जाति व्यवस्था उन धर्मों में भी परासरित होती गयी है जिनमें इसका
नामो-निशान भी नहीं था. ज़्यादातर समाजशास्त्रियों का मानना है कि बलात्कार का
उत्प्रेरण, काम-वासना के बजाय ‘पावर’ से जुड़ा हुआ है. अगर पितृसत्ता ने पुरुषों को
ये ताकत दी है तो भारत में जाति व्यवस्था ने वही ताकत ऊंची जाति के पुरुषों के
हाथों में संकेंद्रित कर दी है. ये ताकत शारीरिक नहीं, सामाजिक है. किसी ऊंची जाति
के पुरुष को अपने समाज की स्त्री की ‘रक्षा’ न कर पाने के लिए जितना शर्मिन्दा किया
जाएगा, अपने से नीची जाति की स्त्री का उत्पीड़न करने के लिए उतना नहीं. समाज और
न्याय प्रणाली में समुचित और सुनिश्चित दंड और शर्मिन्दगी का न होना ही ऐसे
अपराधियों की ताकत है.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">आम तौर पर इस घटना
के विरोध में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रहीं हैं उनमें या तो मीडिया के
पूर्वाग्रह की चर्चा है, या देश और संस्कृति को शर्मिंदा करने की कोशिश, या फिर इन
घटनाओं को ‘बलात्कार’ की स्थूल श्रेणी में डाल देने की कवायद, जो कि जातिवाद के
सूक्ष्म सन्दर्भों की अनदेखी करती है. आलोचना ये है कि इन घटनाओं को आगामी चुनावों
के मद्देनज़र ज़्यादा तूल दिया जा रहा है. ऐसा संभव है कि इन घटनाओं को मिलने वाला
मीडिया कवरेज मौसमी हो या उस क्षेत्र की राजनैतिक परिस्थितियों और किसी राजनैतिक दल
विशेष के प्रति दुराग्रह से प्रेरित हो. लेकिन मीडिया की एकतरफ़ा रिपोर्टिंग इन
अपराधों का गुरुत्व कम नहीं कर सकती. अपराध फिर भी अपराध है और उतना ही निंदनीय! इसी
तरह देश और संस्कृति पर आक्रमण, भावावेश में की गयी अभिव्यक्ति हो सकती है लेकिन
समस्या का समाधान नहीं. ऐसी प्रतिक्रियाएं उल्टा, सम्बंधित वर्ग और समाज में,
बदलाव के प्रति और प्रतिरोध ही पैदा करती हैं. जाति आधारित भेदभाव मिटाने के
तरीकों के बारे में तमाम महान सुधारकों में भी मतभेद रहा है. जहां बाबा साहब
आंबेडकर जाति व्यवस्था के ही समूल नाश की बात करते थे वहीं महात्मा गांधी सिर्फ़
छुआ-छूत जैसी कुरीतियों का ही बहिष्कार करने के पक्ष में थे. तरीका चाहे जो भी
अपनाया गया हो दलित महिलाओं की स्थिति में सुधार की गति, नौ दिन चले अढ़ाई कोस की
कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आ रही है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कोई आश्चर्य नहीं कि
विपक्षी दलों के नेता भी ऐसे अवसरों को भुनाने का प्रयास करते दिख रहें है. मगर
आंकड़ों की माने तो दलित उत्थान के नाम पर वोट लेने वालों के शासन में भी दलित
औरतों की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं है. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि
दलित महिलाओं को अपने आप में कभी एक वर्ग या ‘वोट-बैंक’ के रूप में नहीं देखा गया.
महिलाओं या फिर दलितों के उत्थान की योजनाओं में ही उनका भला समझ कर हर एक सरकार
ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. ऐसा अनुमान था कि दलितों और महिलाओं के सशक्तिकरण
के लिए किये गए प्रयासों का फल अंततः दलित महिलाओं तक भी पहुँच ही जाएगा. लेकिन अब
तक ये एक मिथ्या अवधारणा ही साबित हुई है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">तमाम उदाहरणों से ज़ाहिर
है कि जातिगत बलात्कार का प्रतिफल चाहे अन्य यौन हिंसाओं जैसा ही दिखे, मगर इसके
पीछे का उद्देश्य, इरादा और उत्प्रेरण बहुत अलग है इसलिए इन पर अलग से चर्चा किये
जाने की ज़रुरत है. ऐसी घटनाओं को धड़ल्ले से अंजाम दिया गया, क्यूंकि ऐसा आसानी से
किया जा सकता था और करके आसानी से बचा भी जा सकता था. इसलिए बलात्कार, अपराधियों
के लिए दलित महिलाओं को उनकी हद याद दिलाने का सबसे सुगम रास्ता बन गया. ऐसी
स्थिति में दलित लड़कियों के साथ हुई इन घटनाओं के लिए क्या कुछ विशेष प्रावधान
होना चाहिए? इसमें एक कानूनी पेचीदगी यह है कि, कानून कभी भी उद्देश्य या अपराध के
पीछे इरादों के आधार पर सज़ा नहीं दे सकता. लेकिन अगर दो अलग-अलग बीमारियों के
लक्षण सामान भी हों तो दोनों के इलाज के लिए एक ही दवा काम नहीं कर सकती. इससे
पहले भी दलित उत्पीड़न रोकने के लिए भारत सरकार ने 1989 में ‘शेड्यूल कास्ट एंड ट्राइब
एक्ट’ पास किया था. जिसके तहत आरोपी को बिना वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकता था
साथ ही जातिवादी हिंसा को गैर ज़मानती अपराध बना दिया गया था. हालांकि जातिवाद की
गहरी जड़ों के कारण ऐसे कानूनों का क्रियान्वयन अपने आप में एक समस्या है जिसके
चलते ऐसे कानून अक्सर दंतहीन साबित होते हैं. लेकिन समाज विशेष की संरचना के हिसाब
से यदि न्याय व्यवस्था पक्षपातपूर्ण हो जाय तो उसे तटस्थ बनाने को कोई न कोई तरीका
निकालना तो आवश्यक हो जाता है.</span><o:p></o:p></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये एक दुखद सत्य है
कि किसी भी समाज में किसी व्यक्ति के न्याय पाने की संभावना उसकी सामाजिक स्थिति
के समानुपाती होती है. जिनका सामाजिक ओहदा- धर्म, जाति, संख्या, आर्थिक या लैंगिक
किसी भी आधार पर कमतर है उनको न्याय मिल पाने की संभावना बहुत क्षीण होती है. ऐसी
स्थिति में दलित स्त्रियाँ अपनी जाति और लिंग के आधार पर दोहरा दमन झेलती हैं. दलित
महिलाओं के बलात्कार पर प्रशासन, कानून और मीडिया, तीनों ही की चुप्पी का बहुत लंबा
इतिहास रहा है. क़ानून व्यवस्था में कोई परिवर्तन हो न हो, कम से कम बड़े पैमाने पर
विमर्श और प्रतिरोध के ज़रिये नागरिकों और न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों को ऐसे
मुद्दों पर संवेदनशील बनाने की पहल तो होनी ही चाहिए. कुल मिलाकर दलित महिलाओं के
संघर्ष को एक ऐसा अंधा कुआँ बनने से बचाना होगा जिसमें न तो रोशनी हो और न ही रास्ता!<o:p></o:p></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><a href="http://visfot.com/index.php/current-affairs/11127-%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%B6.html" target="_blank">विस्फ़ोट पर इस लेख के अंश.</a></span><br />
<br />
एक मित्र शुभम गुप्ता की बदौलत अब ये लेख ऑडियो फॉर्मेट में यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है-<br />
<a href="https://www.youtube.com/watch?v=wmifvOfrvy0" target="_blank">https://www.youtube.com/watch?v=wmifvOfrvy0</a></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-64857986049077188702014-06-05T01:40:00.000+05:302017-01-11T11:40:24.240+05:30संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">अमेरिका के दक्षिणी तट पर मिसीसिपी नदी की लाई
जलोढ़ मिट्टी पर बना लुइसियाना नाम का एक स्टेट है. ये स्टेट अपने खूबसूरत तटवर्ती
इलाकों और एक अनोखे पक्षी ‘पेलिकन’ के लिए मशहूर है. लुइसियाना के झंडे और सील पर
विराजमान इस पक्षी की खासियत, इसकी अनूठी, लम्बी चोंच है जिसके नीचे एक थैलीनुमा
संरचना होती है. पेलिकल नदी के ऊपर आराम से उड़ते-उड़ते अचानक पानी में गोता लगाता
है और अपने प्रिय आहार मछली को इसी थैली में कैद कर लेता है. 1950 के दशक में
अचानक इस पक्षी की संख्या घटने लग गयी. 1960 आते-आते सिर्फ़ दो जोड़े ही बचे. तमाम शोध
के बाद पता लगा कि इसकी वजह एक कीटनाशक ‘डी. डी. टी.’ है. जो फैक्ट्रियों के
अपशिष्ट के साथ नदी में आकर मिलता है. वहां से मछलियों के पेट में जाता है और फिर
वहां से उसे खाने वाले पेलिकन के शरीर में. प्रकृति का एक अजीब तंत्र ये है कि
लाभदायक चीज़ों को तो जीवों का शरीर ज़रुरत भर ही अवशोषित कर पाता है लेकिन डी. डी.
टी. जैसी हानिकारक चीज़ें शरीर की वसा में इकट्ठी होती चली जाती हैं.</span><span lang="HI" style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">डार्विन के अनुसार किसी जीव
की दुरुस्ती उसकी प्रजनन दर से मापी जा सकती है. </span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">बस, पेलिकन भी यहीं पर मात खा रहे
थे. उनके शरीर में जमकर बैठा डी. डी. टी. उनके अण्डों के कवच को कमज़ोर करे दे रहा
था. अंडे सेने के लिए जैसे ही मादा पेलिकन उन पर बैठती, वो अंडे उसके भार से टूट
जाते. वजह पता चलते ही लुइसियाना सरकार ने डी. डी. टी. पर प्रतिबन्ध लगा दिया.
देखते ही देखते कुछ ही सालों में पेलिकन की संख्या चार से चार सौ हो गयी. लुइसियाना
में पेलिकनों की वापसी, मानव द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र की क्षतिपूर्ति का एक दुर्लभ
उदाहरण है. ऐसा इसीलिये संभव हो पाया क्यूंकि समय रहते ही, दो बिलकुल जुदा दिखने
वाली चीज़ों के बीच सम्बन्ध पहचान लिया गया. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
प्रकृति की हर एक जैविक-अजैविक इकाई, मिट्टी से लेकर मनुष्य तक, सब एक दूसरे से
जुड़े हैं! पर्यावरण संरक्षण के लिए बस इतनी ही समझदारी विकसित करने की ज़रुरत है.</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">आम तौर पर पर्यावरण से जुड़े खतरों में ग्लोबल
वार्मिंग का जिक्र ज़रूर आता है. लेकिन ये भी सिर्फ़ ग्लेशियरों के पिघलने तक ही सीमित
रहता है. बर्फ़ पिघलना तो तापमान बढ़ने का बहुत प्रत्याशित परिणाम है</span><span lang="HI" style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">लेकिन ज़्यादातर परिणाम बहुत
अप्रकट और दूरगामी होते हैं. उदाहरण के तौर पर दक्षिण अफ़्रीका में पाए जाने वाले
बहुत से हानिकारक परजीवी हैं जो कि ऊंचे तापमान पर आसानी से जीवित रह सकते हैं. पृथ्वी
का औसत तापमान बढ़ने से इनकी संख्या बढ़ती जा रही है, साथ ही मलेरिया जैसे रोग भी. कछुओं
की कुछ प्रजातियों में भ्रूण का लिंग निर्धारण तापमान पर निर्भर करता है. भ्रूण के
विकास के दौरान यदि तापमान, एक सीमा से ज़्यादा हो तो सारे बच्चे नर पैदा होते हैं.
लेकिन बिना पर्याप्त मादा कछुओं के प्रजाति आगे कैसे बढ़ सकती है? पारिस्थितिकी
तंत्र में विभिन्न जीवों के बीच का सम्बन्ध इतना संतुलित और इतना सूक्ष्म है कि
हमें ये दिखाई नहीं देता, जब तक कि हमारी खुद की गतिविधियाँ इस संतुलन को गड़बड़ा न
दें. फर्ज़ कीजिये कि शिकारी किसी जंगल में शेरों का अंधाधुंध शिकार करते रहें और
शेरों की संख्या में भारी कमी आ जाय तो, उस जंगल में हिरन जैसे शाकाहारी जीवों की
संख्या बढ़ जायेगी जो कि अब तक शेर का आहार थे. निरंकुश हिरन अब जंगल की घास और
पेड़-पौधों को चर कर धीरे-धीरे जंगल का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे. मामूली से
मामूली दिखने वाली प्रजाति की अपनी एक
भूमिका है जो कोई और नहीं कर सकता. जब ‘न्यूरोस्पोरा’ नाम के एक परजीवी फंगस ने
दुनिया भर की चावल की फ़सलों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया था तब केरल के
जंगलों में मिली चावल की एक किस्म में इस फंगस का प्रतिरोधी जीन मिला था. इस
साधारण से जंगली चावल ने, मनुष्य की एक भयानक अकाल से रक्षा की थी. ये अच्छा ही था
कि केरल के जंगल तब तक हमारी विनाशलीला से बचे हुए थे. लेकिन तमाम जानी या
अनचीन्ही प्रजातियों पर ये ख़तरा लगातार बना हुआ है. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मैल्थास का कहना था कि प्रकृति
में खाद्य उत्पादन इतनी तेजी से नहीं बढ़ता जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ती है. उनके
अनुसार संसाधनों की ये कमी ही जनसंख्या पर अंकुश लगाएगी. लेकिन मैल्थास ने मनुष्य
की रचनात्मकता को कम करके आंक लिया था. जैसे-जैसे संसाधनों की कमी पड़ती गयी हमने नित
नए उपाय-आविष्कार करने शुरू कर दिए. मानव सभ्यता की शुरुआत में जब तक मनुष्य शिकार
और कंद-मूल इकट्ठा करके जीवित रहते थे तब तक वो प्रकृति से सिर्फ़ उतना ही लेते थे
जितना कि उनके लिए ज़रूरी था. संचय की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी. उनकी जनसंख्या भी
प्रकृति में उपलब्धता के आधार पर ही नियंत्रण में रहती थी. कहते हैं कि मनमाफ़िक
औजार विकसित कर लेने की क्षमता ने ही हमें जानवरों से अलग पहचान दी. बड़े-बड़े
पत्थरों को घिस-घिस कर इंसान ने अपना पहला हथियार बनाया. जिससे कि वो कभी जानवरों
का शिकार करता, तो कभी पेड़ों की जड़ें खोदता. फ़िर उसने जंगल साफ़ करके खेती करने की
ठानी और तभी कुल्हाड़ी-कुदालें बनाई और पूजी जाने लग गयीं. फिर धातु की खोज और बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की
शुरुआत हुई. औद्योगिक क्षेत्रों में बसते ही, परिवार उत्पादक के बजाय उपभोक्ता हो
गए. जैसे ही हमने खाद्यान्न उगाने के बजाय, बाज़ार से खरीदना शुरू किया, वैसे ही
प्रकृति और संस्कृति के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गयी. अब के वैज्ञानिक युग
में तकनीकी उन्नति की दर सालों में नहीं हफ़्तों में नापी जाती है. इस तरह हम
शिकारी से कृषक हुए, कृषक से उद्योगपति और अब जब खेती योग्य ज़मीन कम पड़ रही है तो
हम रासायनिक खाद से लेकर फसलों की जीन संरचना तक में घुसपैठ कर चुके हैं. अब हम
प्रकृति को जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों का अंगूठा दिखा रहें है, कि देखो हमें
तुम्हारी दया की ज़रुरत नहीं! हर एक आविष्कार ने हमें प्रकृति में मनचाहा फ़ेरबदल कर
लेने की ताकत दी. सभ्यता की तरफ़ बढ़ता हर क़दम, हमें प्रकृति से दूर करता चला गया और
ये दूरी हज़ारों बरसों में पैदा हुई है. लेकिन आज भी तमाम जन-जातियां आदिकाल जैसी
स्थितियों में रह रहीं है. उनको देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है. वो प्रकृति के
साथ सामंजस्य बैठाना जानते हैं. वो अगर पेड़ काटते हैं तो सिर्फ़ सूखे हुए, फल खाते
हैं तो पेड़ों से गिरे हुए, जानवरों का शिकार करते हैं तो मादा और बच्चों को कतई नहीं
और अगर जानवर पालते हैं तो उनकी दिनचर्या के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं. उनके
साथ चारागाह से चारागाह भटकते हैं, उन्हें डेयरी फार्मों में बांधकर अपने हिसाब से
जीने पर विवश नहीं करते. उनकी भाषा, लोकोक्तियों और लोक गीतों में साफ़ ज़ाहिर है कि
उनके लिए प्रकृति और संस्कृति का भेद बहुत गहरा नहीं है. इसलिए संरक्षित क्षेत्रों
और वन्य अभ्यारण्यों से भी उन्हें निकाला नहीं जाता. जंगल उनके जीविकोपार्जन नहीं
बल्कि जीवन का हिस्सा है. वो ये कभी नहीं कहते कि ‘ये जंगल हमारा है’ बल्कि कहते
हैं- ‘हम इस जंगल के हैं, ये जंगल ही हम सबको पालता है.’ इन जनजातियों से सीख लेकर
यदि हम भी प्रकृति को अपना संसाधन समझने के बजाय खुद को प्रकृति का अटूट हिस्सा
समझना शुरू कर दें तो हम शायद ही इसका विनाश कर पायेंगे. क्यूंकि विकास के नाम पर प्रकृति
का क्षरण करने वाला हर क़दम विनाश की ऐसी श्रृंखला अभिक्रिया की शुरुआत कर देता है
जिसका आदि और अंत, दोनों हम ही हैं. रॉकेट, जेट प्लेन और रेफ्रिजरेशन जैसी तकनीकों
का अगर लाभ उठाना है तो उनसे निकली जहरीली गैसों के धुंए से ओजोन परत में हुए छेद
से आती हानिकारक पराबैंगनी किरणों का दंश भी हमें ही भुगतना है. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">अंत में एक अमेरिकी पर्यावरणविद, एडवर्ड एबी के
शब्दों में-<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">“Growth for the
sake of growth is the ideology of cancer cell.”<o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">(“अंधाधुंध विकास,
कैंसरग्रस्त कोशिका का लक्षण है.”)<o:p></o:p></span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-30362913851342198442014-04-11T22:21:00.000+05:302014-07-09T15:18:56.092+05:30टाइटैनिक का कायर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><br /></span>
<span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">1912 </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">में दुर्घटनाग्रस्त हुए मशहूर जहाज़ टाइटैनिक पर उसका मालिक और एक धनी
व्यापारी, ‘जोसेफ़ ब्रूस इस्मे’ भी सवार था. जहाज़ जब डूबने लगा तो बच्चों और औरतों
को बचाने की परवाह किये बिना वो एक लाइफबोट पर बैठ कर बच निकला. लेकिन बच कर वापस
आते ही उसे ब्रिटिश और अमेरिकी मीडिया ने घेर लिया. कोई अखबार उसके कार्टून बनाता
तो किसी ने उसकी ‘बर्बरता’ के ख़िलाफ़ कवितायेँ छापीं. उसे ‘टाइटैनिक का कायर’ की
संज्ञा दे दी गयी. राहत कार्य में औरतों और बच्चों को दरकिनार करने की ज़िल्लत उसे
ताउम्र झेलनी पड़ी. टाइटैनिक पर सवार 75% औरतों के मुकाबले सिर्फ़ 20% पुरुषों को
बचाया जा सका था. अमीर से अमीर आदमी की भी जीवित बचने की संभावना निर्धनतम औरतों
और बच्चों से कहीं कम थी. ये आंकड़े थोड़ी बहुत फ़ेरबदल के साथ किसी भी दुर्घटना और
उसके राहत एवं बचाव कार्यों की सच्चाई बयान कर सकते हैं. </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">लगभग इसी समय के आस पास, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कई देशों में
‘सेफ्राजेट आन्दोलन' साँसे ले रहा था, जिसमें ‘वोट फॉर वुमन’ के नारे के ज़रिये
औरतों को तमाम देशों में मताधिकार दिलाने की जी तोड़ कोशिश हो रही थी. इस आन्दोलन
में शामिल औरतों को अक्सर ऐसी नाव दुर्घटनाओं का वास्ता देकर ये यकीन दिलाने की
कोशिश की जाती थी, कि जब तक ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ सिद्धांत के पालक-पोषक पुरुष ज़िंदा हैं
तब तक उन्हें अपनी चिंता करने की ज़रुरत नहीं. ये मताधिकार नहीं, बल्कि ‘पुरुषोचित
व्यवहार’ है जो हमेशा उनका सच्चा हितैषी रहेगा. खीज कर कुछ महिलाओं ने नारा बदल कर
‘वोट फॉर वुमन एंड बोट फॉर मेन’ कर दिया. </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">ये नारा लैंगिक असमानता की दुधारी प्रवित्ति को रेखांकित करता है, जिसने एक
तरफ़ औरतों को मताधिकार नहीं दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ आदमियों को लाइफ़बोट में बैठ कर
अपनी जान बचाने की आजादी भी नहीं दी. चुनावी माहौल में वोट की चर्चा तो चल ही रही
है, मुलायम सिंह की हालिया विवादास्पद टिप्पणी ने ‘वोट-बोट’ की बहस को देसी
सन्दर्भ दे दिया है.</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">लैंगिक असमानता का शिकार स्त्री-पुरुष दोनों ही होते हैं और ये बयान इस बात
का ताजातरीन उदाहरण है. हर उस औरत के लिए जिसे बच्चे पालने के लिए अपना हरा-भरा
कैरियर छोड़ना पड़ता है, एक पुरुष है जो जीविकोपार्जन के लिए ओवरटाइम करने के लिए
मजबूर है. उन्हें भी अपना पौरुष साबित करने के लिए तमाम परीक्षाएं देनी है. कभी
रोना नहीं है, कोई भावनात्मक कमज़ोरी नहीं दिखानी और ज़रुरत पड़े तो शारीरिक बल
दिखाने से भी पीछे नहीं हटना है. ‘हर औरत दुखियारी है’ के पीछे ‘हर पुरुष
अत्याचारी है’ की एक मूक भावना है. स्त्री की हर एक बेचारगी का एक अनदेखा पुल्लिंग
प्रतिबिम्ब भी है और दोनों का उतना ही विरोध होना चाहिए. लेकिन आम समझदारी यही है कि
मुलायम सिंह का बयान और ऐसी तमाम चीज़ें स्त्रीविरोधी है, इसलिए इसका विरोध भी या
तो महिला संगठन ही कर रहे हैं या फिर महिला सशक्तिकरण की टोन लिए हुए हैं. </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">मुलायम सिंह ने इसके साथ मृत्युदंड न सन्दर्भ भी टांक दिया है. आप भले ही
मृत्युदंड के सिद्धांततः विरोधी हों, लेकिन ये बयान फिर भी आपको कचोटना चाहिए.
क्योंकि ये मृत्युदंड के विरुद्ध किसी मानवतावादी नज़रिये से नहीं बल्कि उस
मानसिकता से पगा है जो बलात्कार को बहुत बड़ा अपराध नहीं मानता. साथ ही उसे पुरुषों
के स्वाभाविक व्यवहार का हिस्सा बताकर उन्हें भी अपमानित करता है.</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">क्या पुरुषों से हमारी उम्मीदें सचमुच इतनी कम हैं? और हम गाहे-बगाहे ऐसा
जताकर पुरुषों की मानसिकता के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? फ़र्ज़ कीजिये कि आपका एक
बेटा या बेटी है. आप रिश्तेदारों, पड़ोसियों के सामने दिन-रात उसकी निंदा करते नहीं
थकते. उसकी कमअक्ली और नालायकी का रोना रोते रहते हैं. ऐसा करके आप उसी क्षण से
उसके मनोबल और नैतिक स्तर के क्षरण के उत्प्रेरक बन जाते हैं. उस बच्चे के पास
जीवन में न तो कुछ अच्छा करने का प्रोत्साहन है और ना ही उसे ऐसा करने में कोई
फ़ायदा नज़र आता है. सबकी नज़र में तो पहले ही नकारा है, अब उसे कुछ अच्छा करने की
क्या पड़ी है? ये नाउम्मीदी एक ऐसा चक्रव्यूह है जो एक बार शुरू हो जाय तो ख़त्म
होने का नाम ही नहीं लेती. हम पर लगी उम्मीदें ही हमारी महत्वाकांक्षाओं की सरहद तय
करतीं हैं. पुरुष को नारी का रक्षा न कर पाने के लिए तो खूब अपमानित किया जाता है
लेकिन बलात्कार या छेड़खानी के लिए उतना नहीं. दोनों बातें फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी
लग सकतीं हैं लेकिन दरअसल हैं नहीं. दोनों ही पितृसत्ता कि उस मानसिकता का प्रतीक
है को पुरुष को बल मात्र समझता है. </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">नारीवादी चिंतकों नें ‘वुमन इज़ वॉम्ब’ (नारी कोख मात्र है), की विचारधारा
का खूब विरोध किया है. उनके हिसाब से पितृसत्ता में औरत के अस्तित्व को उसकी
बायोलौजी से बाँध कर ही देखा गया है जिसके बिना पर उन्हें निर्णय क्षमता से विहीन बच्चे
पालने-पोसने का यंत्र बता कर कभी मताधिकार से तो कभी डिग्री पाने से रोका गया. अपनी जगह ये बात बिल्कुल ठीक है. लेकिन ज़रा सोचिये कि इस व्यवस्था में पुरुषों को क्या उनके लिंग से ज्यादा कुछ
समझा गया? इसके हिसाब से वो भी हरमोन से संचालित होतें हैं और अपने जननांगों से
सोचतें हैं. वो सिर्फ़ असीम शारीरिक बल का प्रतीक हैं, जो या तो मुसीबत में नारी को
बचाएंगे या फिर उसी पर शारीरिक बल का इस्तेमाल करेंगे. दोनों ही आयाम उनकी मूल
प्रकृति का हिस्सा माने जाते हैं. </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">हर तरह की हिंसा और असमानता के बरक्स, ताकत का वास्तविक या सांकेतिक का
डंडा जिसके भी हाथ में दिखता है हम उस पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को नज़रंदाज़ करते चले
जाते हैं. लैंगिक असमानता ने पुरुषों के साथ जो किया वो हमारी नज़र में नहीं आता
क्यूंकि वो ही तो हमारी नज़र में पितृसत्ता के सृजक और पोषक हैं. ये एक मिथ्या अवधारणा
है. कोई भी सामाजिक व्यवस्था उस समाज के आर्थिक-सामाजिक परिवेश और पर्यावरण की
मिलीभगत से सदियों में अस्तित्व और आकार पा पाती है. अगर उसमें कुछ खामियां हैं तो
उसका दोष किसी ख़ास वर्ग पर थोपना, बेहद सतही प्रतिक्रया है. स्त्री को कोमलांगी
समझना उसी सिक्के का पट है जिसके चित पर पुरुष की अजेय मांसपेशियां अंकित हैं. एक
के बिना दूसरा नहीं हो सकता था, न ही एक के बिना दूसरा ख़त्म किया जा सकता है. </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-hansi-theme-font: major-bidi;"><o:p></o:p></span></div>
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: major-bidi; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: major-bidi; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin; mso-hansi-theme-font: major-bidi;">नारी-अधिकार
धुरंधरों के चलते औरतों को ‘वोट’ तो मिल गया है, लेकिन अब समय है कि आदमियों को भी
उनकी ‘बोट’ दे दी जाय! साथ ही मुलायम सिंह के बयान की निंदा सिर्फ़ नारीविरोधी नहीं
बल्कि पुरुषविरोधी लहजे की वजह से भी की जाय.</span></div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com6New Delhi, Delhi, India28.635308 77.2249600000000128.1893855 76.579513 29.081230499999997 77.870407000000014tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-16141235960281862722014-02-26T20:13:00.001+05:302017-01-12T12:35:24.340+05:30क्यूंकि सड़क पर तो हम ही मिलतें हैं.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-saytMCygu2ibsMLP3-vYVMW3WYhFIjCBZPZYghNlhE3IresrtvTmgrU1ZhqiNphZ167NY2UdNvUJTm9FzMQl4cSO1ivDLklS5MUu26bANrZjR_h8TpMC1TVDRn-RtqZ611QuvHUsbKc6/s1600/20140219-0003.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-saytMCygu2ibsMLP3-vYVMW3WYhFIjCBZPZYghNlhE3IresrtvTmgrU1ZhqiNphZ167NY2UdNvUJTm9FzMQl4cSO1ivDLklS5MUu26bANrZjR_h8TpMC1TVDRn-RtqZ611QuvHUsbKc6/s1600/20140219-0003.jpeg" width="240" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ऑटोचालक जैनू</td></tr>
</tbody></table>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%;">जोड़ा-ए-माँ बाप ने नाम दिया</span><span lang="HI" style="font-size: 12pt; line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%;">है जैनू. पेशे से ऑटोरिक्शा चालक और प्रजाति- आम आदमी. भारत की भीड़ का वो ‘मिनिमम कॉमन डिनॉमिनेटर’ जो दशमलव की
बिंदी की तरह कहीं भी लगकर कभी वोट और कभी चवनिया फ़िल्मों के कलेक्शन कई गुना घटा-बढ़ा
सकता है. या फिर मारे गए गुलफ़ाम का हीरामन कहूं, जो सोच रहा है कि अपने ऑटो पर
बैठी संभ्रांत सवारी से बात कैसे शुरू की जाय? कि उसे ‘आप’ कहा जाय या ‘तुम’?</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">कहतें हैं कि दुनिया में हर चीज़ के दो प्रयोजन होते हैं- एक प्रत्यक्ष
और दूसरा अप्रत्यक्ष. इस तर्ज़ पर राजनीति का अघोषित मकसद शायद अजनबियों के बीच
बातें शुरू करवाने का उत्प्रेरक बनना है. घर से यूनिवर्सिटी तक पहुँचने ‘आप’ का एक
पोस्टर पड़ा. मेरा उसे देखना जैनू रियर व्यू मिरर में ताड़ लेते हैं. “अबकी वोट दोगे
इनको?” बस, बातचीत शुरू हो गयी.</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">“आप लड़कियों की वजह से क्लास लग रही है आजकल हमारी.” तो असल गांठ ये
है!</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">भारत सरकार, मानस नाम की एक संस्था के सहयोग से दिल्ली में जेंडर
सेन्सिटाईज़ेशन प्रोग्राम चला रही है. ऑटो रिक्शा चालक और पुलिस वालों के लिए. चार
दिनों तक हर रोज़ दो घंटे की क्लास करनी पड़ेगी. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">“हमारा लाइसेंस तभी रिन्यू होगा.” बदलाव के लिए या तो दंड देना होगा
या फिर लालच. नए से लग रहे ओटो में महिला फ्रेंडली होने के पोस्टर पटे पड़ें हैं.
आप सोच सकतें हैं कि इनसे होगा क्या? लेकिन शुरुआत तो कहीं ना कहीं से करनी ही
होगी. बरसों की व्यवस्था चुटकियों में नहीं बदलती. पर सरकार और क़ानून हमेशा से ही
बदलाव की बयार चलाने में सक्षम रहें है. सही दिशा मिलनी चाहिए बस. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKVpR10s1pFGOXGkBm63Uhn4zK1kHRYo3JJQ8nYbeQEYJ5j5zGYAfcUkEQVvKBO0eIposiXTMGFOmp8YskyxV4-OESReKb1RVZL113QfVRQNYOSSSjEztzR7r3yQ4u3St_eT9uVauhYGRc/s1600/20140219-0002.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKVpR10s1pFGOXGkBm63Uhn4zK1kHRYo3JJQ8nYbeQEYJ5j5zGYAfcUkEQVvKBO0eIposiXTMGFOmp8YskyxV4-OESReKb1RVZL113QfVRQNYOSSSjEztzR7r3yQ4u3St_eT9uVauhYGRc/s1600/20140219-0002.jpeg" width="240" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जैनू का ऑटो</td></tr>
</tbody></table>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">जैनू की क्लास का कंटेंट जानने की इच्छा हुई. “आप ही के जैसी लड़कियां
सिखातीं हैं हमें. (थोड़ी तगड़ी आपसे कम हैं!) हमें बताया जाता है कि कोई लेडीज़
सवारी को ये मत समझो कि हमारी ग्राहक है, ये समझो कि हमारी माँ है, बहन है उसकी इज्ज़त
करो.” इस बात के साथ अपनी समस्याएँ है. क्या ये ‘माँ-बहन’ और ‘सुरक्षा देने’ वाला
मामला उसी सिस्टम का प्रतीक नहीं है जिससे लड़ने की कोशिश की जा रही है? उन लड़कियों
का क्या जो ‘माँ- बहन’ की तरह रहती, बरतती, पहनती, ओढ़ती नहीं है. मनमर्ज़ी से देर
रात आती-जाती हैं? क्या सुरक्षा का जिम्मा राज्य से हटकर जनता के हाथ में आ जाने
का मतलब ये होगा कि आत्मनिर्भर लड़कियां, इन जोशीले ‘रक्षकों’ की शिकायत भरी
भिनभिनाहट सुनेंगी कि उनके स्वच्छंद व्यवहार ने ही उनकी सुरक्षा करना कितना
मुश्किल बना दिया है? आर ख़ुद जैनू का क्या जिन पर इन अतिरिक्त अपेक्षाओं भार आ पड़ा
है? या फिर लोहे को लोहे से काटने, ज़हर को ज़हर से ही उतारने की तर्ज़ पर ये
फ़ार्मूला सफ़ल होगा?</span></div>
<span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span><br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. इतना तय है कि समानता पर आधारित समाज में
पुरुष को सिर्फ़ रक्षक या भक्षक ही नहीं समझा जाएगा. लड़की भी किसी की ज़िम्मेदारी
नहीं होगी. लेकिन वहां तक पहुँचने के लिए शायद इन पूर्वस्थापित, पितृसत्तात्मक
प्रतीकों का सहारा लेना ही पड़ेगा. जो पहले से ही लैंगिक समानता के पक्षधर हैं उनके
लिए शायद ये मुहिम ज़्यादा काम की नहीं है लेकिन अगर इनसे इतर लोगों को प्रभावित
करना है तो उनकी मानसिकता में झांकना पड़ेगा. उन्हीं की भाषाई गुफ़ा-कन्दराओं में
भटकना पड़ेगा. कुछ वैसे ही जैसे ‘पोलियो उन्मूलन’ कार्यक्रमों के लिए धार्मिक फ़तवों
की मदद लेनी पड़ी था. शौचालय बनवाने के लिए प्रेरित करने के लिए ‘बहू-बेटियों’ के
खुले में शौच करने को उनकी ‘मर्यादा’ के ख़िलाफ़ बताना पड़ा था. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">आखिर इस ‘मिनिमम कॉमन डिनॉमिनेटर’ तक जो ज्ञान न पहुंचे वो किस काम
का? क्यूंकि बकौल जैनू ही, “रात-बेरात कहीं भी जाओ, सड़क पर तो हम ही मिलेंगे मैडम!” </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">अपना कॉलेज आ चुका था. “हम भी चलते हैं मैडम. वापस बुराड़ी जाना है.
सुबह भी क्लास की थी अभी भी दोबारा दो घंटे बुराड़ी में क्लास. मेरे जैसे बहुत से
ऑटो वालों की.” इस कथन में उलाहना तो है लेकिन तिरस्कार नहीं. </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">अब चलना होगा हीरामन. फिर मिलेंगे. तब तक शायद कुछ बदल चुका होगा या
फिर बदलाव का दौर यूं ही चल रहा होगा. सफ़र शायद मंजिल से ज़्यादा सिखाते हैं. सबक
सीखने की प्रक्रिया में हम भी कुछ बदल जाते हैं और शायद सबक भी वैसा का वैसा नहीं
रहता. </span><br />
<br />
<span style="font-family: "mangal" , serif;"><span style="line-height: 18.399999618530273px;">ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है -</span></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;">http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=62632%3A2014-03-24-06-55-03&catid=21%3Asamaj <o:p></o:p></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%;"><br /></span>
<span style="font-family: "mangal" , serif;"><span style="line-height: 18.399999618530273px;">फ़ोटोग्राफ़ में- ऑटोचालक जैनू और उनका ऑटो.</span></span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com7India20.593684 78.962880000000041-8.580994 37.654286000000042 49.768361999999996 120.27147400000004tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-53610076577545491192014-01-12T12:10:00.001+05:302014-07-16T17:12:44.658+05:30एक खुला ख़त अरविन्द केजरीवाल के नाम <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div>
<span style="font-family: Mangal, serif;"><span style="line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></span></div>
<span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">श्री अरविन्द केजरीवाल
जी,</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal, serif;"><span style="line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></span><span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">अभी कुछ ही महीने पहले
की बात है. चुनाव कैम्पेन का माहौल था. तमाम वादे-नारे कहे-सुने जा रहे थे. ऐसे
में आपका एक विज्ञापन ऑटो के पीछे दिखाई दिया- “हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा के
लिए कमांडो फ़ोर्स बनाएगी.” इरादा नेक ही लगा और मुद्दा भी मौजूं था. उसी वक्त आपको
एक खुला ख़त लिखकर इस मुद्दे पर आपका विस्तृत विचार जानने की इच्छा हुई. लेकिन आप
भी जानते हैं कि हमारे देश में जनता और नेता के बीच एक अबोला सा है. यथास्थितिवाद
का फैशन है और ‘छोड़ो, इससे क्या होगा’ वाली उदासीनता भी है. हालांकि आपके आने का
बाद स्थिति बदली है. ऐसा लगने लगा है राजनीति आम आदमी से दूर कोई हवा-हवाई चीज़
नहीं है और भ्रष्टाचार जैसे ज़मीनी मुद्दे पर भी चुनाव लड़-जीते जा सकते हैं. इसलिए
उस चिट्ठी को लिखने की इच्छा दोबारा बलवती हुई. अंततः लिखे ही दे रही हूँ, ताकि
सनद रहे.</span><br />
<span style="font-family: Mangal, serif;"><span style="line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></span><span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">इससे पहले कि दिल्ली में
महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर बात की जाय, ये जान लेना ज़रूरी है कि दिल्ली में
आखिर कौन लड़कियां रहतीं हैं और दिल्ली उनको क्या देती है? दिल्ली, मूल निवासियों
और जाने पहचाने पड़ोस वाला शहर नहीं है. ये असीमित संभावनाओं का शहर है जहाँ लोग
अपनी महात्वाकांक्षाओं को पूरा करने आते हैं. कस्बों से उठकर यहाँ आने वाली
लड़कियां कॉल सेंटरों में काम कर रहीं हैं, मैकडोनाल्ड में पार्ट टाइम जॉब कर रहीं
हैं, घरेलू कामगार हैं, यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. कर रहीं हैं, साल-दर-साल
प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ रहीं हैं. वो सबकुछ कर रहीं हैं जिसकी इजाज़त बंदिशों
की उमस भरा क़स्बाई परिवेश उन्हें नहीं देता.</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">विश्वविद्यालय में पढ़ने
वाली लड़कियां दिन भर कौलेज के छतों-मीनारों-सेमिनारों में फेमिनिज़म, कम्यूनिज़म से
लेकर डार्विन के सिद्धांतों पर गले फाड़ती हैं. आन्दोलनों में नारेबाज़ी करतीं,
लिंगभेद की थ्योरिटिकली ऐसी- तैसी करतीं हैं. फिर घड़ी में आठ बजता देखकर सरपट
भागतीं हैं ताकि हॉस्टल की समय-सीमा ना पार हो जाय. जो वोट देने की उम्र की हो
चुकी हैं वो भी बात- बात में गार्जियन से कंसेंट फॉर्म भरवाती हैं. तुर्रा ये है
कि ये सब उन्हीं की सुरक्षा के लिए तो है.</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">यहाँ मेरी नीयत नियमों-अनुशासनों की भर्त्सना करने की
नहीं है. लेकिन सुरक्षा और नियंत्रण में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? क्या किसी
को सुरक्षा देने के लिए उसकी बुद्धि-विवेक और निर्णय क्षमता पर सवालिया निशान
लगाना अपरिहार्य है?</span><br />
<span style="font-family: Mangal, serif;"><span style="line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></span><span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">इतने सब के बावजूद 16 दिसंबर
जैसी कोई घटना हो ही जाती है और मीडिया उस पर टूट पड़ती है. दिल्ली की लड़कियों की
बेचारगी पर स्पेशल प्रोग्राम बनते हैं जिसमें दिल्ली हमेशा विलेन होती है. घरवाले
आतंकित होकर दिल्ली गयी लड़कियों को वापस बुलाने की जुगत में लग जाते हैं. सपनों को
पूरा करने के लिए मिली मियाद, जो पहले ही छोटी थी, उसमें और भी कटौती हो जाती है. क्या
दिल्ली को बदनाम और लड़कियों को आतंकित किये बिना इस समस्या से लड़ना मुमकिन नहीं
है?</span><br />
<span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">कहते हैं कि राजनीति
संख्या का खेल है. महिलाएं आधी आबादी तो हैं लेकिन फिर भी किसी जाति या धर्म की
तरह कोई वोट बैंक नहीं बनातीं. वो अलग-अलग धर्म, जातियों और क्लास के बीच बंटी हुई
रहतीं हैं. इन वर्गों की समस्याओं को ही उनकी समस्या और उनके समाधान में ही महिलाओं
की समस्या का समाधान निहित मान लेने की प्रवृत्ति रही है. पश्चिम में महिलाओं लम्बे
समय तक मताधिकार ना देने के पीछे यही मानसिकता थी. हमारे अपने देश में भी आज़ादी के
बाद मताधिकार देकर ये समझ लिया गया कि भुखमरी-ग़रीबी ही देश की मुख्य समस्याएँ हैं
और इन वर्गों की महिलाओं की जो भी समस्याएँ हैं वो इनके निवारण के साथ ही ख़तम हो
जायेंगीं. जो कि सत्तर के दशक में बड़ी मशक्कत से तैयार की गयी ‘टुवर्ड्स
इक्वालिटी’ रिपोर्ट के हिसाब से एक ग़लत
अनुमान निकला. दहेज उत्पीड़न, भ्रूण हत्या से लेकर शैक्षिक और आर्थिक मुद्दों में
औरतों की लगभग नगण्य भागीदारी जैसे तमाम
मुद्दे सामने आने शुरू हुए.</span><br />
<span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">ज़ाहिर है, महिलाओं की
अपनी समस्याएँ तो हैं लेकिन इन मुद्दों को राजनीति में मिलने वाली की महत्ता का
मौसमी उतार-चढ़ाव अक्सर महिलाओं पर होने वाली हिंसा की रिपोर्टों पर ही निर्भर रहा
है. ऐसा लगता है जैसे जेंडर का मतलब सिर्फ़ औरतें हैं और लिंगभेद का मतलब सिर्फ
महिलाओं के पर होने वाले शारीरिक अत्याचार ही हैं. हिंसा से इतर, लिंगभेद के तमाम
महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो कि महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी को ज़्यादा बाधित
करते हैं. जैसे- महिला शौचालय और कामकाजी महिलाओं के बच्चों के लिये क्रचेज़ की
व्यवस्था ना होना. ये मुद्दे अक्सर यौन अपराधों की आक्रामक खबरों और उन्हें मिलने
वाले मीडिया कवरेज के पीछे छुप जाते हैं. ‘आप’ ने भी महिला मुद्दों का संज्ञान 16
दिसंबर की घटना के बाद ही लिया था. खैर, ‘देर आये दुरुस्त आये’ की तर्ज़ पर मुझे इस
बात से कोई ऐतराज़ भी नहीं है. मेरी मंशा तो महिला सशक्तिकरण के मामले में आपका सैद्धांतिक
स्टैंड जानने की है. क्या आपकी नीतियाँ भी ‘महिला-स्पेशल’ की बौछार करने और लैंगिक
अपराध की दर नीचे लाने तक ही सीमित रहेंगी या लैंगिक समानता के बारे में आपकी
पार्टी की कोई वृहद् विचारधारा भी है?</span><br />
<span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">महिला बैंक से लेकर
लेडीज़ बस और महिला पुलिस चौकी तक के वादे तो दूसरी पार्टियों ने भी किये हैं और
कभी-कभी वो पूरे भी हुए हैं. दरअसल इस तरह से लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना
बहुत आसान है और ऐसा करने में वाहवाही मिलने की गुंजाइश भी ज़्यादा है. लेकिन
उन्हें पब्लिक स्पेस में उसी तरह से फिट कर पाना जिस तरह पुरुष हैं या फिर पब्लिक
स्पेस को महिलाओं के लिए उतना ही अनुकूल बना पाना जितना वो पुरुषों के लिए है, ज्यादा
मुश्किल काम है. अक्सर आसान काम कर लेने का आत्मसंतोष हमसे पड़ाव को ही मंजिल समझ
लेने की भूल करवा देता है. ऐसे में ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि किसी भी क्षेत्र में
‘महिला स्पेशल’ श्रेणी, अपने आप में कोई समाधान ना होकर लैंगिक समानता तक पहुँचने
की एक रणनीति भर है और अंततः उस श्रेणी को ख़त्म करने की तरफ़ बढ़ना है. यहीं पर
राजनैतिक दृढ़ता की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है. मैं जानती हूँ कि यहाँ आदर्शस्थिति की
बात की जा रही है जिसे चुटकियों में नहीं पैदा किया जा सकता. वहां तक पहुँचने के
लिए शायद इस लेडीज़-स्पेशल कैटेगरी का इस्तेमाल करना भी पड़े. लेकिन तब तक अपने
कर्तव्यों की इतिश्री नहीं मान लेनी है जब तक इन बैसाखियों की ज़रुरत ना रह जाय. चाहे
वो बिजली कंपनियों की ऑडिट करने का निर्णय हो या फिर भ्रष्टाचार विरोधी
हेल्प्लालाइन लाना हो, बाकी मामलों में भी आपने आसान और लोकप्रिय होने के बजाय कड़क
और सिद्धांतवादी होने को तरजीह दी है, इसलिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर भी आपसे
अपेक्षाएं थोड़ी ऊंची ही हैं.</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">लैंगिक उत्पीड़न हर लड़की
की ज़िंदगी का हिस्सा ही न हो, लेकिन इससे बचाने के लिए उन पर लादे गए सामाजिक और
न्यायिक बंधन उनकी दिनचर्या बन जाते हैं. दिल्ली को बदनाम करने का असर अपराधियों
पर हो ना हो उन हज़ारों लड़कियों के भविष्य पर ज़रूर होता है जिनके दिल्ली आने पर
प्रतिबन्ध लग जाता है क्यूंकि वो एक ‘बुरा’ शहर है. इसका मतलब उनका देश के
सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों और बहुत सी बेहतरीन करियर संभावनाओं से वंचित रह जाना
है, जो कि अपना आप में एक ‘सायलेंट’ लिंगभेद है, जिससे बचना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">जितना ज़रूरी है उतना ही
मुश्किल भी.</span><br />
<span style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">इतना कुछ मांगकर शायद
मतदाता का नेता पर जितना हक़ होता है उसका भी अतिक्रमण कर रही हूँ. लेकिन जब माँगने की दीनता करनी ही है तो आसान
चीज़ें क्यूँ माँगी जाएँ?. महिलाओं के लिए अलग से बैंक क्यूँ मांगूं, हर एक बैंक
उनका होना चाहिए. वो सिर्फ लेडीज़ कम्पार्टमेंट या लेडीज़ बस के बजाय हर जगह हर वक्त
सुरक्षित क्यूँ न महसूस करें? अलग से महिला पुलिस फ़ोर्स के बजाय पूरी पुलिस फ़ोर्स
को ही जेंडर सेंसिटिव बनाने की कोशिश क्यों ना की जाय? महिलाएं भी नागरिक हैं और समान
नागरिक का दर्जा देना उन्हें विशेषाधिकार दिए बिना भी संभव है. क्या ‘आप’ ये (कम
से कम कोशिश) कर सकेंगे?</span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com7India28.579697994029313 77.35473632812528.133775494029315 76.709289328125 29.025620494029312 78.000183328125tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-50416009090120008582013-12-16T17:41:00.001+05:302017-01-12T12:36:46.607+05:30बनावटी प्राकृतिक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<div align="center" class="MsoNormal">
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">जापान की मियोको मियाज़ाकी २००३ में जब मिस वर्ल्ड
बनीं तो उनसे पूछा गया कि, “आपकी जिन्दगी की सबसे बड़ी व्यक्तिगत उपलब्धि क्या है?”
और उन्होंने जवाब दिया कि, “अपनी लेफ्टहैंडेडनेस (बाएं हाथ इस्तेमाल करने की आदत) पर
विजय पाना.” क्योंकि जिस संस्कृति से वो ताल्लुक रखतीं हैं वहां बाएं हाथ का
इस्तेमाल अशुभ माना जाता है. माँ-बाप न सिर्फ बच्चों को ‘सीधा’ करने के लिए जोर
ज़बरदस्ती करते हैं बल्कि लड़कियों की शादी के समय भी उनके बायाँहत्था होने की बात
उनके भावी ससुराल वालों से छुपाई जाती है. कई एशियाई देशों और धर्मों में में बाएं
हाथ का प्रयोग शुभ कार्यों के लिए निषिद्ध है.</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">धर्म को हमेशा दो ध्रुवों की दरकार रही है- एक
शुभ होगा और दूसरा निषिद्ध. बुराई पर अच्छाई की विजय की कहानियों से सभी धर्म पटे पड़े
हैं. एक के पवित्र होने के लिए दूसरे का अपवित्र होना ज़रूरी है. एक प्रक्रिया पर
प्राकृतिक होने का ठप्पा लगने के लिए दूसरी को अप्राकृतिक होना होगा. किसी समय दास-प्रथा
बाइबिल के हिसाब से सही मानी जाती थी. क्यूंकि अश्वेत लोग प्राकृतिक रूप से ही
बुद्धिहीन और शारीरिक रूप से बलवान माने गए थे जिन्हें नियंत्रित रखने और आदेश
देने के लिए ‘प्राकृतिक’ रूप से ज्यादा बुद्धिमान सफ़ेद चमड़ी वालों का उन पर राज
करना न्यायोचित था. एक वक्त ऐसा भी था जब औरतों का प्रसव-पीड़ा सहना ज़रूरी था और
उनकी मदद करने वाली दाइयों को मौत तक की सज़ा मिलने का प्रावधान था क्यूंकि ऐसी मदद
‘अप्राकृतिक’ और भगवान् की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ थी. हिटलर ने यहूदियों के दमन को
‘प्राकृतिक’ ठहराने के लिए डार्विन के सिद्धांत के बेतुके मतलब निकाल दिखाए थे. उसने
दो नस्लों के मिलन को घातक बताया था. हमारे देश में ऐसे तर्क जातियों के सन्दर्भ
में दिए जाते रहे हैं. ‘शुद्ध-अशुद्ध’ के ताम- झाम ने तमाम जातियों का मंदिर में
प्रवेश करना तक वर्जित कर रखा था. </span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">गौरतलब है कि प्राकृतिक-अप्राकृतिक की ये
श्रेणियां और इनमें आने वाले समूह हमेशा एक जैसे नहीं रहे. ये देश-काल और सन्दर्भ
के हिसाब से बदलते रहें हैं, निर्भर करता है कि गिनती या ताकत के हिसाब से किस
समूह का पलड़ा भारी बैठता है. तभी तो मासिक धर्म जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के साथ
भी ‘अपवित्र’ होने का तमगा लगा है क्यूंकि ये औरतों से जुड़ा है. किस हद तक इस
पवित्र-अपवित्र का पालन होगा ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि उस समय किसी सभ्यता
की जरूरतें क्या हैं? उदाहरण के तौर पर गर्भपात को ले लीजिये, अमेरिका में ये एक
बड़ा मुद्दा है जहां राजनेताओं को ‘प्रोचॉईस’ या ‘प्रोलाईफ़’ के रूप में अपना सैद्धांतिक
पक्ष स्पष्ट करना होता है. जबकि भारत में बढ़ती जनसंख्या की चिंता के चलते तमाम
धार्मिक लफ्फाजियों के बावजूद औरतों को ये अधिकार बिना लड़े मिला हुआ है और कन्या
भ्रूणहत्या में होने वाले इसके इस्तेमाल की तो बात ही मत कीजिये. </span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">धर्म की दी परिभाषाएं कभी तोड़ी-मरोड़ी भी गयीं हैं
और कभी पीछे भी छोड़ दी गयीं हैं लेकिन हमेशा बहुसंख्यकों की सुविधा के हिसाब से. ये
लचीलापन इस बात का सबूत है कि ‘प्राकृतिक-अप्राकृतिक’ की पूरी अवधारणा ही मानव
निर्मित है. बहुसंख्यक और ताकतवर समूह की परिभाषा ही मानदंड होगी चाहे वो दायें
हाथ से लिखना हो या परलैंगिकता (heterosexuality). बाकी सबको या तो इनके जैसा बनना
होगा या फिर इनके जैसे होने का नाटक करना होगा. चाहे दायेंहत्थे लोगों को ही ध्यान
में रख कर कर बनाए गए उपकरण हों या परलैंगिकों के हिसाब से ही बने नियम-कानून हों,
बाकी लोगों को ख़ुद को इनके लिए डिज़ाइन की गयी दुनिया में ख़ुद को ढालना होगा. <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">अगर आप परलैंगिक हैं तो आपके लिए कल्पना करना भी
मुश्किल है कि अपने जननांगों का अपनी मर्ज़ी से अपने ही घर के एकांत में इस्तेमाल
करने का अधिकार भी किसी को लड़ कर लेना पड़ता है. आप इतने विशिष्ट हैं कि आपको ख़ुद
अपने प्रिविलेज (विशेषाधिकार) का अंदाज़ा नहीं है. हाई कोर्ट के आर्डर के बाद
जिन्होनें अपनी पहचान ज़ाहिर करने की हिम्मत की थी, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद
उनका भविष्य एक बार फिर अधर में है. उनकी नींद कैसी होती होगी जो ये सोच कर सोते
होंगे कि सुबह तक पता नहीं वो ‘लीगल’ रह जायेंगे या नहीं, क्या आप ये समझ सकतें
हैं?</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;">ऐसे में ये बहस बेमानी है कि फ़ैसला समलैंगिकों के
ख़िलाफ़ है या समलैंगिक संबंधों के. अगर चोरी करना अपराध है तो चोर ही तो अपराधी ही
हुआ. कर्ता और कर्म एक दूसरे के बिना परिभाषित नहीं हो सकते. इसलिए फैसला पूरे
LGBT समुदाय के ख़िलाफ़ है. वैसे भी लैंगिकता कोई व्यवसाय या संपत्ति नहीं है. ये किसी की पहचान का अहम् हिस्सा है जो उनको
परिभाषित करता है. उसे अपराधिक गतिविधि घोषित करना उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन
है. दरअसल हमारे समाज में हर चीज़ फ़र्टिलिटी के चारों तरफ़ घूमती है. परलैंगिक जोड़ों
की शादियों के महिमामंडन के पीछे वंशवृद्धि की कामना छिपी है. अब वो प्राकृतिक या
किसी और व्यक्तिगत कारणों से बच्चे पैदा न करें ये अलग बात है. लेकिन बच्चों के
जन्म से ही उन्हें भविष्य में अपनी इस ज़िम्मेदारी के लिए तैयार करने की कोशिशें
शुरू हो जाती हैं. जहां शादियाँ व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक दायित्व हैं वहां बिना
संतानोत्पत्ति की संभावना वाले दैहिक सम्बन्ध अगर अप्राकृतिक घोषित कर दिए गए हों,
तो हैरानी कैसी? शुद्ध-निषिद्ध के मामले में हर समाज का अपना इतिहास है जो धीरे-धीरे
हमारी समझ में भी घुसपैठ करता जाता है. हम जब पैदा होते हैं तो ये मानदंड समाज में
पहले ही इस्तेमाल हो रहे होते हैं. हमारे हर फैसले में हमसे ज्यादा हमारे समाजीकरण
का हाथ होता है. ऐसे में समलैंगिकता का हमारे समाज में heterosexuality के
समानांतर एक विकल्प ना होना ही ख़ुद समलैंगिकता के न होने का प्रमाण नहीं माना जा
सकता. <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">प्राकृतिक-अप्राकृतिक के तर्कों के अलावा, 377 के
हिमायती बहस को विकास की तरफ ले जाने पर भी अमादा हैं कि जिस देश में लोगों की
मूलभूत जरूरतें और महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य अभी तक पूरा ना हुआ हो वहां
समलैंगिकों के अधिकारों पर कैसे ध्यान दिया जा सकता है? ये कोई नई बात नहीं है.
किसानों और जनजातियों से जमीन अधिग्रहण करने के लिए भी देश के विकास की दुहाई दी
जाती रही है. लेकिन यहाँ तो मसला पहचान की राजनीति का है, किसी प्राकृतिक संसाधन
का नहीं. वैसे भी विकास के नाम पर लैंगिक अल्पसंख्यकों की बलि क्यों चढ़े? </span></div>
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;"><br /></span>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 115%;">लैंगिक पहचान के निर्धारण के अधिकार और
समलैंगिकता की बहस को पश्चिमी संस्कृति से आयातित होने के तर्क के विरोध में
खजुराहो से लेकर अर्धनारीश्वर तक के उदाहरण गिनाये जा सकते है. लेकिन ऐसा क्यूँ
करें? संस्कृति सिर्फ़ वो नहीं है जो इमारतों और शास्त्रों में रुक गयी है. ये
पारंपरिक कपड़ों-गहनों और पकवानों में भी नहीं है जिनकी याद कभी-कभी त्यौहारों पर आती
है. कोई संस्कृति सिर्फ उन विशिष्टताओं- विचत्रताओं में नहीं बसती जिनकी फ़ोटो
पोस्टकार्डों पर छाप कर विदेशी पर्यटकों को लुभाया जाता है. संस्कृति वो है जिसे हम
हर रोज़ जीते हैं. लोग बदलते हैं इसलिए संस्कृति भी बदलती रहती है. सुप्रीम कोर्ट
के फ़ैसले के विरोध में लोगों का खुल कर के सामने आना इस बात का सबूत है. कभी लड़के-लड़कियों
के लिए अलग-अलग शिक्षा थी क्योंकि तकनीकी विषयों में लड़के प्राकृतिक रूप से ज्यादा
समझदार माने जाते थे. आज ये बात सुनने में भी हास्यास्पद लगती है क्यूंकि हम बदल
चुके हैं. समलैंगिक संबंधों को कानूनी जामा पहनाने का मुद्दा आज से पचास साल पहले
महत्त्वपूर्ण रहा हो या ना रहा हो, लेकिन अब है. ये ज़ाहिर करना ज़रूरी है. अच्छा
होगा कि हम राजनैतिक पार्टियों को भी इस विषय में अपना पक्ष स्पष्ट करना के लिए कहें
ताकि जो रास्ता न्यायपालिका ने बंद कर दिया वो बाज़रिये विधायिका खुल सके. <o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;">वाशिंगटन पोस्ट पर एक अच्छा मैप है. समलैंगिकता के बारे में हमारे रवैये की वजह से हम किन देशों के साथ जा खड़े हें हैं एक बार ये देख लेना भी अच्छा होगा- <a href="http://www.washingtonpost.com/blogs/worldviews/wp/2013/12/11/a-map-of-the-countries-where-homosexuality-is-criminalized/">http://www.washingtonpost.com/blogs/worldviews/wp/2013/12/11/a-map-of-the-countries-where-homosexuality-is-criminalized/</a></span><br />
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;">(हिंदी में sex और gender के लिए दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं, ऐसे लेख लिखते समय यही सबसे बड़ी बाधा होती है. मेरे शब्द चुनाव से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं, कोई नए शब्द भी सुझाए जा सकते हैं.)</span><br />
<span style="font-family: "times" , "times new roman" , serif;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 18.399999618530273px;">(ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&task=view&id=58376&Itemid=)</span><br />
<div>
<span lang="HI" style="font-family: "times" , "times new roman" , serif; line-height: 18.399999618530273px;"><br /></span></div>
<br /></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com8India20.593684 78.962880000000041-8.5815185000000014 37.654286000000042 49.7688865 120.27147400000004tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-76482857766867836292013-11-23T18:04:00.000+05:302014-07-16T17:14:10.497+05:30न्याय की भी 'प्रॉक्सी'? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हाल ही में समाज के
अलग- अलग वर्गों से मिलती-जुलती खबरें आईं. तरुण तेजपाल ने एक रिपोर्टर से छेड़छाड़
की, दिल्ली में एक वरिष्ठ जज के एक लॉ इन्टर्न से छेड़छाड़ करने का मामला सामने आया
और अफसरों, विधायकों और उनकी बीवियों ने अपनी घरेलू नौकरानी के साथ हैवानियत दिखाई.
आख़िरी मामला भी सीधे तौर पर लगे ना लगे पर है लिंग आधारित हिंसा ही. घरेलू नौकर के
रूप में महिलाओं को ही वरीयता मिलती है क्यूंकि हमारे हिसाब से एक पुरुष नौकर के
मुक़ाबले वो ज्यादा दब्बू होंगी, कम तनख्वाह लेंगी और हमारा गुस्सा सहने की सीमा भी
उनमें ज्यादा होगी. घर की चारदीवारियों में उनके साथ की गयी हिंसा को घर का
अंदरूनी मामला बताकर कानूनी जांच को भी रोका जा सकता है. ये घर आखिर उन घरेलू
नौकरों के कार्यस्थल ही हैं. फिर ये भी कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न का ही तो
मामला हुआ! </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘आजकल ये घटनाएं
कितनी बढ़ गयीं हैं?’ आमतौर पर ऐसी खबरों के बाद हमारी प्रतिक्रया कुछ ऐसी ही होती
है. सुनकर ऐसा लगता है कि पहले हम कुछ सही कर रहे थे और अब कुछ गड़बड़. पहले हम जो
कर (नहीं) रहे थे उसकी लिस्ट कुछ यूं है-</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpFirst" style="text-indent: -18pt;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Mangal;">-<span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 7pt;"> </span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">माध्यम वर्ग और उच्च माध्यम वर्ग की स्त्रियों को उनके घर
वाले नौकरियाँ नहीं करने दे रहे थे. (ध्यान रहे कि औरतों का काम करना कोई नया नहीं
है, निम्न वर्ग की औरतें हमेशा से घरेलू नौकरों और दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम
करती आईं हैं, हालांकि उनके शोषण पर कभी ध्यान नहीं दिया गया.)</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="text-indent: -18pt;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Mangal;">-<span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 7pt;"> </span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">महिलाओं का नाईट शिफ्ट में काम करना कानूनन वैध नहीं कर रहे
थे, भले ही वो तमाम फैक्ट्रियों, अस्पतालों और कॉल सेंटरों में काम कर रहीं थी.
इससे वे आर्थिक या लैंगिक शोषण की शिकायत करने की सोच भी नहीं सकतीं थी. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpLast" style="text-indent: -18pt;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Mangal;">-<span style="font-family: 'Times New Roman'; font-size: 7pt;"> </span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">सेक्सुअल हरासमेंट कमेटी के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं दे
रहे थे. इसके बावजूद कि ‘सेक्सुअल हरासमेंट ऐट वर्क प्लेस’ का सबसे वीभत्स मुद्दा
हमारे देश में ही हुआ है, (अरुणा शानबाग, जिन्हें हम इच्छा-मृत्यु के लिए ज्यादा
जानते हैं) विशाखा गाइडलाइन्स आने में सालों लग गए. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">बहरहाल कई क़ानून आये
और स्थिति बदली. अगर सेक्चुअल हरासमेंट से मुक्त कार्यस्थल अब नहीं है तो पहले भी
नहीं थे. हर तरह के रोजगार में महिलाओं की बढ़ती घुसपैठ, क़ानून की उपलब्धि और लैंगिक उत्पीड़न की विस्तृत की गयी परिभाषा ने
इन मुद्दों को ज्यादा गोचर बनाया है बस. हालांकि इसका लाभ सिर्फ एक ख़ास वर्ग ही
उठा पा रहा है. इसकी वजह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की औरतों पर अपनी
रोज़ी- रोटी बनाए रखने की मजबूरी होना भी है. ऐसे में ये हैरानी की बात नहीं कि
विरोध की ज्यादातर आवाजें तुलनात्मक रूप से समृद्ध परिवारों की लड़कियों की तरफ से
आ रही है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हर एक कार्यस्थल पर
रोजगार देने और पाने वाले के बीच असमानता का रिश्ता होता है. बॉस की बातें कितनी
भी बेतुकी लगें उन्हें अक्सर मानना ही होता है. सहमति-असहमति का प्रश्न तो तब है
जब असहमति जताना एक विकल्प हो न कि नौकरी छुड़वाने या प्रमोशन रुकवाने का सबब. ऐसे
में तरुण तेजपाल का इसे ‘जजमेंट एरर’ या ‘शराब का नशा’ कहना कितना हास्यास्पद है!
यह तो एकदम सटीक निर्णय है. अपराधकर्ता को पता है कि उसकी सत्ता कहाँ चलेगी</span>. <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> नौकरी और बॉस की कृपादृष्टि बचाए रखने के लिए
कौन चुप रहेगा</span>?<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> नहीं रहेगा तो क्या धमकियां देनी हैं? और फिर ‘मौनम् सम्मति लक्षणं’ की तर्ज
पर इसे ‘कन्सेन्चुअल’ का जामा कैसे पहनाना है? समाज की सफ़ाई करने की बड़ी-बड़ी बातें
करने वाले भी अपनी इस ताकत का इस्तेमाल लैंगिक उत्पीड़न के लिए कर रहें हैं तो
इसमें हैरानी कैसी? जेंडर सेंसिटिविटी न तो हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा हैं और ना
ही बौद्धिकता नापने की कसौटी. वैसे भी किसी बौद्धिक निर्वात में रहकर लैंगिक
समानता की बातें करना एक बात है, व्यवहारिकता की बयार के बीच उन सिद्धांतों को
संभाले रखना बिल्कुल अलग. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये एक अच्छा संकेत
है कि तरुण तेजपाल मामले में सभी एकमत होकर कानूनी जांच की मांग कर रहें हैं लेकिन
इसमें शायद हमारा एक बड़े आदमी को मटियामेट होते देखने का सुकून भी शामिल है, तमाम
चैनलों की चटखारे ले कर की जा रही रिपोर्टिंग इस कुंठा का सबूत है. तेजपाल ने अपनी
पत्रकारिता से कई धुर विरोधी भी पैदा किये हैं, जो इस बहती गंगा में हाथ धो रहे
हैं और विक्टिम की पहचान छुपाना और मुद्दे के साथ संवेदनशीलता बरतना हाशिये पर है.
ऑनलाइन एक्टिविज़म की चिल्ला-चिल्ली के बीच पीड़िता का पक्ष गायब है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हम हमेशा यही मानते और
मनवाते आये हैं कि लैंगिक उत्पीड़न में जो आहत हुआ उसकी कोई ग़लती नहीं, चाहे उसने
शराब पी हो या कैसे भी कपड़े पहने हों, उसका ना कहने का अधिकार उसके अतीत में कही
गयी ‘हाँ’ के भार से मुक्त हो. अपना चरित्र की दृढ़ता साबित करने का भार उस पर
क्यों आये? ठीक उसी तर्क से भीड़ की न्याय-लिप्सा शांत करने का भार उस पर क्यूं आये?
क़ानून की धाराएं सबके लिए एक जैसी हो सकतीं हैं लेकिन न्याय की परिभाषा नहीं. न्याय
मिलने और मुद्दे के समापन का संतोष किसी को माफी देकर भी मिल सकता है, किसी को
आतंरिक शिकायत करके, किसी को दूसरों को जागरूक करके तो किसी को सिर्फ ब्लॉग लिखकर
जैसा कि उस लॉ इन्टर्न ने किया. न्याय सबके लिए टेलर मेड नहीं हो सकता. इन्हीं सब
कारणों से ‘आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट’ या आतंरिक ‘एंटी सेक्चुअल हरासमेंट कमेटी’
बनाने जैसे प्रावधान है. ये सच है कि सामाजिक दबावों के चलते भी पीड़ित को केस वापस
लेने पर मजबूर किया जा सकता है. लेकिन आन्दोलनों का दबाव बना कर विक्टिम को पुलिस
रिपोर्ट दर्ज करने पर मजबूर करना और न करने पर कमज़ोर कह कर उसकी आलोचना करना उस
सामाजिक दबाव का दूसरा रूप ही तो है. कानूनी प्रक्रियाएं लम्बी चलतीं है. किसी को न्याय
पाने का संतोष अगर उससे पहले ही मिल जाय और फिर भी उसे ये कड़वा अनुभव वकीलों और
पुलिसवालों के क्रॉस-एग्ज़ामिनेशन में बार-बार दोहराना पड़े तो क्या ये उसके साथ एक
और अन्याय नहीं है? ये सच है कि ज्यादातर अपराध सिर्फ व्यक्ति नहीं स्टेट के
विरुद्ध होते हैं. पीड़ित अगर फैसले लेने की दशा में ना हो तो उसकी और से किसी भी
प्रत्यक्षदर्शी या जागरूक नागरिक को रिपोर्ट लिखाने का हक़ है जैसा कि घरेलू हिंसा
के मामलों में अक्सर होता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि पीड़ित पर सामाजिक
न्याय की परिभाषाएं थोपी जाएँ और उन पर समाज के सामने एक आदर्श या उदाहरण प्रस्तुत
करने की नैतिक ज़िम्मेदार मढ़ दी जाय. स्टेट की ज़िम्मेवारी है के अपने नागरिकों को न्याय
पाने के तमाम विकल्प और रास्ते उपलब्ध कराये. एक्टिविस्ट और स्टेट मिलकर ज्यादा से
ज्यादा ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि शिकायतकर्ता के पास हर विकल्प खुला रहे. अब
उसे कौन सा विकल्प अपनाना है ये अधिकार उसी के पास रहे तो अच्छा है. सामाजिक दबाव
और जबरन समाज सुधार के दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है जो कि शिकायत करने
वाले की इच्छा का सम्मान करने पर ही मुमकिन है.<o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-58484087286137707442013-11-08T21:22:00.000+05:302017-01-12T12:39:31.911+05:30एक ऋतुमती परुष के प्रसव की कहानी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ये कहानी अरुणाचलम्
मुरुगनाथम् के जीतने से ज्यादा हमारे हारने की है. मुरुगनाथम् तमिलनाडु के
कोयम्बतूर जिले के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं. उनकी जिन्दगी अपने गाँव के
बाकी लोगों जैसी ही थी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">नाम-मात्र की पढ़ाई</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">फैक्ट्री में नौकरी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कच्ची उम्र में घर वालों की पक्की की हुई शादी.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">पत्नी को एक दिन हाथ पीछे
बांधे</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कुछ छुपा कर ले जाते देखकर
पूछा</span>, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">क्या छुपा रही हो</span>?’<span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तुमसे मतलब</span>?’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">पत्नी से रूखा सा उत्तर
मिला.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन मुरुगनाथम् ने पत्नी
के हाथ में मैला कुचैला कपड़ा देख ही लिया जिसे हम अपने घरों में झाड़ने-पोंछने के
लिए भी इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे. वो वजह ताड़ गए और पत्नी से पूछा कि वो टी.वी.
पर दिखाए जाने वाले सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल क्यूँ नहीं करती</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">पत्नी के कहा कि ऐसा किया
तो घर के लिये दूध खरीदना बंद करना पड़ेगा.</span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">नयी-नयी पत्नी को
इम्प्रेस करने के लिए सेनेटरी नैपकिन खरीदने के इरादे से अरुणाचलम् मुरुगनाथम् एक
दूकान में घुसे. दुकानदार नैपकिन के पैकेट जब भी किसी को देता तो इधर-उधर देखकर
जल्दी-जल्दी उन्हें अखबार में लपेटकर काली पन्नियों में छुपा देता</span><span style="font-family: Mangal, serif;">, <span lang="HI">मानों कोई
प्रतिबंधित ड्रग्स बेच रहा हो. उन्होंने नैपकिन का एक पैकेट हाथ में उठाया</span>,
<span lang="HI">वजन कोई दस ग्राम रहा होगा और दाम दो सौ से भी ऊपर. हैरान-परेशान
मुरुगनाथम् ने एक नैपकिन खुद ही बनाने का फैसला किया. रूई खरीदी</span>, <span lang="HI">उसके ऊपर कपड़ा लगा कर आढ़ी-टेढ़ी सिलाई मारी और बीवी को पकड़ा दिया. एक
तो असंतुष्ट बीवी का खराब फीडबैक और उस पर इस बात की शर्म कि अपने घर-गाँव की
औरतों के लिए पैड बनाने के लिए एक विदेशी कंपनी की जरूरत है. बस तब से कम दाम के
नैपकिन बनाने की खब्त सवार हो गयी. नयी-नयी तरकीबों से पैड बनाते और पत्नी को
पकड़ा देते. पत्नी महीने में एक ही बार फीडबैक दे सकती थी</span>, <span lang="HI">इसलिए
बहनें उनका अगला निशाना बनी. लेकिन कोई इस बारे में बात तक करने को राज़ी नहीं था.
हारकर उन्होंने शहर के मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से संपर्क साधने की कोशिश की. उनमें
भी वही झिझक. शर्म-धरम की संस्कृति से ऐसे बेशरम प्रयोगों के लिए वॉलंटीयर कहाँ से
आते</span>? <span lang="HI">ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की हार है जो सामाजिक
रूढ़ियों के आगे अक्सर दम तोड़ देती है.</span></span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वैसे भी जो बरसों से
पीरियड्स के नाम पर सकुचा जाना ही सीखती आयीं हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">जिनकी दादी-नानी-माँ ने मिलकर उन्हें मासिक धर्म में सिर्फ खुद को
अपवित्र समझने का पाठ पढ़ाया है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">उनमें ऐसी बेझिझक निर्भीकता कहाँ से आयेगी कि वो किसी पुरुष के सामने
इस बारे में बात कर सकें. कुछ लड़कियों के फीडबैक के सहारे प्रयोग थोड़ा आगे बढ़ा
लेकिन मुरुगनाथम् समझ गए थे कि लड़कियों के भरोसे नहीं रहा जा सकता. बस</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">फिर जैसे नील आर्मस्ट्रांग
चन्द्रमा पर जाने वाले पहले पुरुष बने थे</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तेनजिंग नोर्गे एवरेस्ट पे चढ़ाई करने वाले पहले पुरुष बने थे वैसे
ही मुरुगनाथम् सेनेटरी पैड पहनने वाले पहले पुरुष बन गए. जानवरों के खून से भरा एक
लचीला ब्लैडर उनके हाथ में होता जो एक नली के सहारे सेनेटरी पैड से जुड़ा होता.
मुरुगनाथम् चलते-फिरते</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">साइकिल चलाते थोड़ा-थोड़ा खून पम्प करते जाते. उनके अनुसार ये उनके
सबसे मुश्किल दिन थे. औरतों की समस्याएँ जानने के लिए उन्होंने खुद औरतों की
दिनचर्या और दिमाग में उतरने फ़ैसला किया. यहाँ वो हमारी पौरुष की परिभाषा को
हराते हैं और मासिक धर्म से जुड़े अशुद्धि और कमज़ोरी जैसे पूर्वाग्रहों को भी. और
ऐसा करके अच्छा ही करते हैं.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन अब तक उनकी पत्नी
शांती का धैर्य जवाब दे चुका था. उन्हें शक होने लगा कि मुरुगनाथम् लड़कियों से
बात करने के बहाने ढूंढते रहते हैं. वो उन्हें छोड़कर चली गयीं. कुछ महीनों में
तलाक का नोटिस भी आ गया. लेकिन वो सपना ही क्या जो आपको चैन से सोने दे. जुनूनी
मुरुगनाथम् ने लड़कियों से उनके इस्तेमाल किये हुए पैड माँगने शुरू कर दिए. वो
उनका कभी खुद परीक्षण करते कभी किसी टेस्टिंग लैब में भेजते. उनकी माँ ने पहले उन
पर से भूत-प्रेत उतरवाने के जतन किये और आखिरकार अपनी क़िस्मत ठोंक कर घर छोड़
दिया. गाँव वालों को लगता कि मुरुगनाथम् को कोई गुप्त रोग हो गया है. दोस्त उन्हें
देखकर रास्ता बदलने लगे. आखिरकार उन्होंने पता लगा ही लिया कि सेनेटरी पैड बनते तो
लकड़ी की लुगदी से ही हैं लेकिन उन्हें बनाने की भारी- भरकम मशीन बहुत महंगी है.
मुरुगनाथम् उस मशीन एक छोटी और सस्ती नक़ल बनाने की कोशिश करने लगे.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आज जब मुरुगनाथम् आई.आई.टी
और आई.आई.एम. में लेक्चर देते हैं तो कहते हैं</span>, “<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मैं आपलोगों की तरह पढ़ा-लिखा नहीं था</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इसलिए तमाम असफलताओं के बाद भी रुका नहीं. पढ़ा- लिखा होता तो कब का
रुक जाता.</span>” <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">उनका ये कथन सबसे करारी चोट
करता है. पढ़- लिख कर हम सबने एक जैसी डिग्रियां पायीं और अपनी मौलिकता खो दी.
स्थाई नौकरी पाने की जद्दोजहद</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कुछ नया कर दिखाने के जूनून पर हावी हो गयी. ये हमारे अभिजात्य की
हार है जिसकी ठसक में हमने मुरुगनाथम् जैसों को हमेशा हेय समझा है. </span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="separator" style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<br /></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अंततः वो मशीन बन गयी. कम
लागत में बढ़िया गुणवत्ता के सेनेटरी नैपकिन बनाने का तरीका मिल गया. उस देश में
जहां सेनेटरी नैपकिन की पहुँच शहरी इलाकों में सात प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में
सिर्फ दो प्रतिशत है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वहां ये तकनीक मुरुगनाथम् के लिए सोने की चिड़िया साबित हो सकती थी.
लेकिन उन्होंने न सिर्फ इसे पेटेंट कराने से मना कर दिया बल्कि ये मशीनें ग्रामीण
महिलाओं को मुफ्त में इस्तेमाल करने को दे दी. उनका लक्ष्य इसके ज़रिये ग्रामीण
महिलाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा रोज़गार और स्वास्थ्यकर ज़िन्दगी मुहैया कराना
है. यहाँ वो हमारे अर्थशास्त्र को हराते हैं जो सिर्फ मांग-आपूर्ति और अधिकतम लाभ
का रट्टा लगाता है. बस यही एक हार हमें नहीं कचोटती.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आज सैकड़ों गाँव और कई
देशों में मुरुगनाथम् की तकनीक और उनके नाम की धाक पहुँच चुकी है. उनके जीवन पर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मेंसट्रूअल मैन</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">नामक एक डॉक्यूमेंट्री भी
बन चुकी है. आई.आई.टी से </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सर्वश्रेष्ठ आविष्कार</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">समेत कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं.
लेकिन मुरुगनाथम् को अभी भी चैन नहीं मिला है. वे वर्ष २०३० तक इस तकनीक को भारत
के गाँव-गाँव तक पहुंचाना चाहते है. तभी उनकी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">रजोनिवृति</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हो पायेगी. इसे उन्होंने भारत की </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सेनेटरी पैड क्रान्ति</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">का नाम दिया है. भारत की कुछ जनजातियों में तरुण कन्या के पहले
मासिक-स्राव पर पर्व मनाया जाता है. क्योंकि अब वो प्रजनन करने लायक हो गयी है और
वंशवृद्धि कर सकती है. इसी तरह मुरुगनाथम् के मासिक धर्म के फलदायी होने का एक
उत्सव हम सबको मनाना चाहिए. इसी बहाने कम से कम एक प्रतिबंधित विषय पर बात तो हो
सकेगी.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<br /></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">और चूंकि हम सबको सुखान्त
पसंद है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इसलिए बता दूं कि अरुणाचलम्
मुरुगनाथम् की पत्नी और माँ उनके पास वापस आ चुकी हैं!</span> <span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%;">
<br /></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com6India20.593684 78.962880000000041-8.580994 37.654286000000042 49.768361999999996 120.27147400000004tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-78531208487684205572013-10-14T23:24:00.001+05:302017-01-12T12:41:24.092+05:30क्यूंकि हमें स्त्रियों की ज्यादा चिंता है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div class="MsoNormal">
<br />
<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCZBdGam7K5ncIeh2TpeZTvVfDYjgbgiH_0UFNgfd_49bh1T7S27cs8C1y9ivkcV4os_PDY0EOMPJ2brAHD8x6s6BYji_CqA3ZK4j9Woh83s42xjRPTMk8fwzjJt_WWQi4HfMmgu4q2J9B/s1600/Rajkishor.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCZBdGam7K5ncIeh2TpeZTvVfDYjgbgiH_0UFNgfd_49bh1T7S27cs8C1y9ivkcV4os_PDY0EOMPJ2brAHD8x6s6BYji_CqA3ZK4j9Woh83s42xjRPTMk8fwzjJt_WWQi4HfMmgu4q2J9B/s320/Rajkishor.jpg" width="165" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जनसत्ता में यह लेख<br />इमेज- जनसत्ता ई पेपर से साभार</td></tr>
</tbody></table>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">पिछले दिनों जनसत्ता
में वरिष्ठ लेखक-पत्रकार <a href="http://www.jankipul.com/2013/10/blog-post_1234.html" style="font-family: Mangal, serif;" target="_blank">राजकिशोर जी का लेख</a></span> <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रकाशित हुआ. लेख वैसे तो सोशल
मीडिया के बारे में है जिस पर बहुत कुछ लिखने और समझने को है, पर ना जाने कैसे ये
सिर्फ स्त्रियों पर केन्द्रित होकर रह गया. </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";"> इसमें उन्होंने ‘कर सकते हैं’ में ‘कर सकती हैं’ को शामिल
बताया है और ‘स्त्री’ में ‘स्त्रीवादियों’ को. और पूरा लेख इसी अतार्किक अवधारणा का
प्रतिबिम्ब है. इस लेख से मुझे कुछ सैद्धांतिक असहमतियां हैं और कुछ सवाल भी, जिन्हें
यहाँ लिख रहीं हूँ-</span><br />
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पहला सवाल तो ये कि
अगर समाज में ही ‘फेस’ को ‘बुक’ से ज्यादा महत्त्व मिलता है तो ‘फेसबुक’ उसे उलट
कैसे देगा, जैसा कि राजकिशोर जी कि उम्मीद है? और दूसरा यह कि, तकनीक का सदुपयोग
करने और अपनी बौद्धिकता साबित करने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों पर ही क्यूँ हो? </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">तकनीक हो या तंबाकू,
मोबाइल फ़ोन हो या फेसबुक. इनके उपयोग- दुरुपयोग की चिंता अगर हमें है तो लड़कियों
के लिए ये चिंता हमारी दुगुनी हो जाती है. कोई भी नयी वस्तु या परम्परा समाज में
स्त्रियों के लिए देर से ही स्वीकृत होती है. हमारे छोटे शहरों में शायद ही लड़के अपनी
रोजमर्रा की जिन्दगी में भारतीय वेशभूषा में दिखें लेकिन लड़की का जींस पहन लेना
उसे ‘बुरी’ लड़कियों की श्रेणी में शामिल करने के लिए काफी है. नयी बातों, विचारों
और तकनीक के प्रति हमारी पहली स्वाभाविक प्रतिक्रया
अक्सर शंका और प्रतिरोध की ही होती है. लेकिन लड़कियों का जीवन और शरीर हमारे
रीति-रिवाजों के रक्षण-संरक्षण का सबसे उपयुक्त स्थल है. इसलिए किसी भी बदलाव का
उन तक पहुँचने का रास्ता ज्यादा दुर्गम है. यही बात नयी तकनीकों पर भी लागू होती
है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पहले तो हम ये समझते
हैं कि किसी तकनीक को इस्तेमाल करने की लियाक़त औरतों में है ही नहीं. औरतों को
बुरा ड्राइवर और खराब टेक्नीशियन बताने वाले चुटकुलों की हमारे पास भरमार है. अगर
कभी ये मशीनें उनके हाथ लग भी गयीं तो उनकी हर हरकत को सूक्ष्मदर्शी से देखा
जाएगा. किसी आदमी के द्वारा कार दुर्घटना हो जाने पर आप ये नहीं कहेंगे कि आदमी
बुरे ड्राइवर होते हैं. लेकिन कोई कार चलाती महिला अगर गलत दिशा में मोड़ ले तो हम
सब यही कहेंगे कि ‘औरतें ऐसे ही चलातीं हैं.” खाप पंचायत आये दिन लड़कियों के
मोबाइल रखने पर प्रतिबन्ध लगाने जैसे ऊट-पटांग फरमान जारी करती रहती है. सवाल ये
है कि अगर लडकियां</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">और लड़के एक दूसरे से बात करके मोबाइल का दुरुपयोग कर रहें
हैं तो प्रतिबन्ध एकतरफा क्यूँ हो? </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">भारत के आम लोगों की
जिन्दगी में सोशल मीडिया की दस्तक ज्यादा पुरानी नहीं है. इसकी उपादेयता और नुकसान
के बहुत से आयामों पर बहस होनी अभी बाकी है. औरतों की श्रृंगारप्रियता और फेसबुक
पर इसके दिखावे को लेकर राजकिशोर जी ने सवाल तो उठा दिया पर उसे सामाजिक सन्दर्भ
में देखने की कोशिश नहीं की. हम सब को समाज से लिखी- लिखाई पटकथा मिलती है. उनसे
अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रशंसा मिलती है और वैसा न किया तो सज़ा भी. लड़कियां
लड़कों के मुक़ाबले आसानी से रो देती हैं क्यूंकि उनका ऐसा करना सामान्य माना जाएगा
जबकि लड़के ऐसा नहीं कर सकते क्यूंकि उन्हें पता है कि इससे उनका मजाक बनेगा. यही
बात फेसबुक पर अपनी अलग-अलग पोज़ में फ़ोटो डालने पर भी लागू होती है. सोशल मीडिया
में हर व्यक्ति अपनी सामाजिक समझ और ट्रेनिंग के साथ आता है. जो जैसा समाज में है
कमोबेश वैसा ही अपने फेसबुक या ट्विटर खातों पर भी व्यवहार करेगा. पहले जो लोग
आपको भगवान को न मानने पर पाप लगने से डराते थे वो ही अब फेसबुक पर भगवान की फोटो
साझा या लाइक न करने पर कुछ बुरा होने की वर्चुअल धमकियां देते दिख जाते हैं. ऐसे
में लड़के और लड़कियों के व्यवहार में भी विभिन्नता दिखे तो हैरानी की बात नहीं है. दोनों
का समाजीकरण और ट्रेनिंग समाज में अलग तरह से होती है. लेकिन एक को दूसरे से बेहतर
क्यूं माना जाय? लड़कियों पर ये साबित करने का अतिरिक्त भार क्यूँ हो कि वो तकनीक
का सदुपयोग ही करेंगी? जितनी विभिन्नता लड़के और लड़कियों में है, उससे कहीं ज्यादा
अंतर लड़की-लड़कियों और लड़कों-लड़कों में आपस में है. न हर, लड़की हर घंटे अपनी फोटो
बदलने में मशगूल है और न ही हर लड़का बौद्धिक बहस करके सोशल मीडिया के ज़रिये देश का
उत्थान कर रहा है. दरअसल, कोई भी व्यक्ति हर वक्त तार्किक नहीं होता. वैसे भी फ़ोटो
बदलने की दर का किसी के बुद्धिमान या बुद्धिहीन होने से क्या लेना-देना है? समाज
पूरी तरह से नहीं बदला है इसलिए सारी स्त्रियाँ भी नहीं बदलीं है. ज्यादा नहीं तो
रविवार को अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन पलट डालिए, कितने लोग अपने पुत्र के लिए
बौद्धिक कन्या की मांग करते हैं? लड़कियों की ख़ूबसूरती को हमेशा से समाज में उनके
अन्य गुणों से ज्यादा महत्त्व दिया जाता रहा है, सोशल मीडिया उसका एक प्रतिबिम्ब
मात्र है. दरअसल राजकिशोर जी ने स्त्री और स्त्रीवादी को एक ही शब्द मान लिया है
और इसी वजह से ऐसी अतार्किक बात लिखी है. न हर एक स्त्री, स्त्रीवादी है और न ही स्त्रीवाद
की समर्थक सिर्फ स्त्रियाँ हैं. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">देश के अधिकाँश
हिस्सों में सोशल मीडिया का पहुँचना अभी बाकी है. लेकिन कम से कम जिन लोगों तक
इसकी पहुँच है, अभिव्यक्ति के माध्यमों में शायद सोशल मीडिया ही एक ऐसा है जहाँ
अपनी बात कहने-लिखने के लिए आपको किसी का मुंह नहीं ताकना है. प्रकाशित या लोकप्रिय
होने की चिंता नहीं करनी है. ऐसे में इसे बस एक माध्यम ही रहने दिया जाय तो अच्छा
है. क्योंकि बौद्धिक होने या दिखने की अनिवार्यता के साथ ही उसमें एलीटिस्ट
(उच्चवर्गवादी) हो जाने का ख़तरा है. और साथ ही एक सवाल भी कि, बौद्धिक होने की
कसौटी क्या है और इसे निर्धारित कौन करेगा?</span><o:p></o:p></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">वैसे भी, अगर हम
शुरू से ही लड़कियों को हर लिहाज से कमतर समझते आये हैं तो एक भी ऐसा उदाहरण हमारी
विचारधारा की पुष्टि करने के लिए काफ़ी है और उसके विरोध में उपस्थित सैकड़ों प्रमाण
भी हमारे लिए अदृश्य ही रहेंगे. अपनी फ़ोटो बदलते रहने वाली लड़कियां तो दिखेंगी
लेकिन हनी सिंह के वीडियो और बेकार के चुटकुलों को शेयर करने वाले लड़के नहीं
दिखेंगे. क्यूंकि अंततः हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं!</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: mangal, serif;">यह लेख जनसत्ता के सम्पादकीय में प्रकाशित है- </span><br />
<a href="http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/53607-2013-10-28-04-14-19" style="font-family: 'Times New Roman';">http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/53607-2013-10-28-04-14-19</a><span style="font-family: "times new roman";">)</span></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-20280630936459038812013-09-17T00:40:00.001+05:302017-01-12T12:43:28.094+05:30हर समस्या का समाधान फांसी है?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI"><br />
</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">१६
दिसंबर की घटना की कालिख जो हमने कभी दिल्ली</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कभी दिल्ली पुलिस तो कभी हनी सिंह जैसों के ऊपर पोतने की कोशिश की थी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">जो थोड़ी-थोड़ी हम सब के
चेहरों पर पुतनी चाहिए थी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वो फांसी के जश्न में स्वाहा हो गयी. और हम सब ने चैन की सांस ली कि
अब सब कुछ बदल जाएगा. ड्राइंग रूम की चमेली पहले जितनी ही चिकनी रहेगी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">भाई (छोटा वाला भी) पहली
जितना ही </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">प्रोटेक्टिव</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">रहेगा जो कभी भी गेट पर
ज्यादा देर खड़े होने के लिए बहन को डांट देगा</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हमारी माँ का नाम अब भी घर के दरवाज़े पर नहीं होगा</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन दुनिया फिर भी स्वर्ग
होगी क्योंकि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">रेयरेस्ट ऑफ रेयर</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अपराधी जहन्नुम के रास्ते
पर हैं.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मानवाधिकार की गुहार फिलहाल
किसी को हजम नहीं होगी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आजकल बयार ही ऐसी है. उसकी बात नहीं करते. लेकिन आंकड़ों की माने तो
अमेरिका के जिन राज्यों में फांसी का प्रावधान है उनमें अपराध दर उन राज्यों के
मुक़ाबले कहीं अधिक है जहां इस सज़ा का प्रावधान ख़त्म किया जा चुका है. दरअसल
इक्का-दुक्का मामलों में फांसी नहीं बल्कि हर मामले में सुनिश्चित सज़ा का डर ही
अपराध को रोक सकता है. एक बात और भी है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सज़ा जितनी कड़ी हो कोई भी न्यायाधीश या न्यायपीठ उस सज़ा को देने से
बचना चाहता/चाहती है. ऐसे में बलात्कार की सज़ा फांसी होने से सज़ा होने की दर कम
ही हो जायेगी जो वांछनीय नहीं है.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन इस सज़ा का असल
हक़दार है कौन</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अगर</span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मान लें</span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कि</span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">उस रात की घटना एक नाटक थी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तो उसमें शामिल वो छः आदमी तारीफ़ के पात्र हैं. उन्होंने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">पुरुष</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">नामक पात्र को बिल्कुल
हमारी भावनाओं के अनुरूप जिया. कोई भावनात्मक कमजोरी नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कोई डर नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सिर्फ और सिर्फ पाशविक बल.
वो लड़की बहुत बुरी ऐक्ट्रेस थी और उस नाटक की कमजोरी भी</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">जो न सिर्फ गलत समय और जगह पर स्टेज पर आयी बल्कि दया की भीख मांगने
वाला डायलॉग भी भूल गयी. तभी तो हमें उसका </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">देश की बेटी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">के रूप में दोबारा नामकरण करना पड़ा ताकि वो हमारे समाज में </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अच्छी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लड़कियों के लिए स्थापित
चुनिन्दा श्रेणियों फिट बैठ सके और हम उसके लिए दुःख जैसा कुछ महसूस कर पायें.
लड़कियों को इंसान से कमतर और लड़कों को इंसान से बद्तर बनाने की इस प्रक्रिया में
हमारी बरसों की मेहनत लगी है. ये कुछ महीनों के प्रोटेस्ट मार्च से नहीं जाएगी.
लैंगिक असमानता बलात्कार की देन नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">बलात्कार इस असमानता की एक
हिंसक अभिव्यक्ति मात्र है.</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक परुष मित्र ने इस घटना
के बाद मुझसे बड़ी तक़लीफ भरी आवाज में पूछा</span>, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मैं भी लड़का हूँ</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">क्या मैं भी किसी दूसरे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इंसान</span>’
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">के साथ
ऐसा कर सकता हूँ</span>?’
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मैंने
जवाब तो नकारात्मक दिया लेकिन फिर सोचा कि हमने लड़कियों को एक स्वतंत्र इंसान का
दर्जा दिया ही कब है</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वो किसी साथी इंसान के साथ ऐसा नहीं कर सकता लेकिन किसी </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">चीज</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">के साथ ज़रूर कर सकेगा.
लड़कियों को वस्तु बनाने की चेतन/अचेतन और सुनियोजित प्रक्रिया में हमने भाषा</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">धर्म</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">बाजार</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">संस्कृति हर चीज का सहारा
लिया है. अब ये असमानता हमारे दैनिक जीवन में इतना रच-बस गयी है कि उसका विरोध कर
पाना नामुमक़िन सा है. आपसे पूछा जाय कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आप अपनी माँ को ही तुम क्यूँ कहते हैं</span>?’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">तो आप कहेंगे कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ये तो मेरा प्यार है</span>’, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">चीयर गर्ल्स को घूरने से रोका तो आप कहेंगे कि </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इससे कुछ नहीं होता</span>’, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कन्यादान</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">जैसे शब्दों पर सवाल उठाया
तो आप कहेंगे </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ये तो रस्म है</span>’. <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ये हम हर दिन सुनते हैं</span>, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक फिल्म ही तो है</span>’, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक चुटकुला ही तो है</span>’, ‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक विज्ञापन ही तो है</span>’. <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हम किसी हिंसक बलात्कार का
विरोध कर सकते हैं</span>,
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन
अपने मनोविज्ञान की तहों में हम सब (लड़कियां भी) </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सेक्सिस्ट</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हैं. ज्यादा दूर क्यूँ जाएँ इसी प्रोटेस्ट मार्च में शामिल एक पोस्टर
पर नज़र डालिए-</span><span class="apple-converted-space"> </span>‘If
you can’t protect us, kill us in the womb.’<span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">(</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अगर आप हमें सुरक्षित नहीं
रख सकते तो हमें कोख में ही मार दीजिये</span>’). <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मतलब अगर लड़की पैदा की तो ताउम्र उसे सुरक्षित रखने का झंझट पालिए.
हमारे इरादे तो नेक हैं लेकिन फिर भी हम अपनी अभिव्यक्तियों को नहीं बदल पा रहे
हैं. दरअसल</span>,<span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हम सब उसी मिट्टी के बने हैं जिसे हम किसी बेहतर
सांचे में ढालने की कोशिश कर रहें हैं. इन तत्वों ने ही हमें बुना है और इसके साथ
हम बड़े हुए हैं. हमारे घर-समाज में ऐसा ही होता आये है इसलिए इनकी बुराइयाँ
गिनवाने वाले को छिद्रान्वेषी या </span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अति-प्रतिक्रियावादी</span>' <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">होने का तमगा मिलना ही है.</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">१६ दिसंबर की घटना के बाद
की अपाधापी में वेश्यावृत्ति से लेकर</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अश्लील गानों और विवाह के अन्दर रेप तक पर चर्चा हुई. कुछ काम की
बातें हुईं कुछ में सनसनी ज्यादा थी. लेकिन कम से कम हमने इस बात को पहचानना तो
शुरू किया था कि अपने घरों में हमने जो सामाजीकरण की फैक्ट्रियां लगाईं हैं उनका
उत्पाद कुछ गड़बड़ है. लेकिन इस सजा की सुनवाई के साथ ही बड़ा घातक आत्मसंतोष हम
सब पर हावी होने लगा है. पहले एक अपराधबोध था जो अब हवा हो गया है. जनाक्रोश को बस
एक बलि का बकरा चाहिये था जो मिल गया. सबने मान लिया है कि हल निकल गया है और अब
किसी क्रान्ति की न तो फुर्सत है ना ही जरूरत लगती है.</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हर हिंसा में खून नहीं बहता</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हर असमानता इतनी आसानी से
नजर नहीं आती. असमानता की जो घुट्टी बचपन से पी और पिलाई है उसका हल सिर्फ़ कड़े
कानून और फांसी के फंदे से नहीं निकलेगा. चूंकि ख़ुद को बदलने में कष्ट होगा इसलिए
दिल्ली</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मुंबई या पाश्चात्य सभ्यता
पर इल्जाम थोपना और अपराधियों को मृत्युदंड पर चैन की सांस लेना</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आसानी से बच निकलने का
रास्ता भर है. इन बातों को हम समय रहते समझ लें तो अच्छा है. समाज को बर्बर बनाएं
या मृत्युदंड ख़त्म कर दें</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लिंगभेदी बने रहें या बदलने का कष्ट उठायें</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इसका निर्णय हमें ही करना
है क्यूंकि यहाँ हमें ही रहना है!</span><span style="font-size: 13.5pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%;">
<br /></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-8813299472856738002013-08-15T11:31:00.002+05:302017-01-12T12:45:36.333+05:30निक़ाबी निन्जा और बुर्के की बहस <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आपकी आधुनिकता का परिचय आपके ख़यालात
देते हैं या कपड़े</span>? <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिस
तालिबान को अमेरिकी सेना से डर नहीं लगता वो पंद्रह-एक साल की उस लड़की से क्यूँ
घबराता है जिसके हाथों में किताब है</span>? <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हमें देसी कपड़ों में सजे-धजे लोग पिछड़े क्यूँ नज़र आते हैं</span>?
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">औरतों पर कुछ ख़ास ड्रेस-कोड थोपना बुरा
है लेकिन क्या जबरदस्ती उघड़वा देना इसका हल है</span>?<o:p></o:p></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";"><o:p></o:p>और
बुर्के की तो बात ही न कीजिये. हर कोई मुस्लिम औरतों को आधुनिकता की रोशनी दिखाना
चाहता है. फ़्रांस की सरकार हो या पश्चिमी साम्राज्यवाद</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">नारीवादी हों या सेक्युलरिस्ट</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">सबको
बुर्काधारिणियों पर तरस आता है. ऐसे में पाकिस्तान में बनी एक कार्टून फिल्म और
वीडियो गेम </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">बुर्का अवेंजर</span>’<span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">ने आधुनिकता बनाम बुर्के पर बहस छेड़ दी
है. इसकी हिरोइन एक स्कूल टीचर </span>'<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">जिया</span>' <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">है
जो दिन में लड़कियों को पढ़ाती है और रात में बुर्के में अपनी पहचान छुपा कर
कठमुल्लों से लड़ती है जो लड़कियों के स्कूल बंद कराने पर आमादा हैं. उसकी कलम
सचमुच तलवार से भी ज्यादा ताकतवर है</span>,
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">कराटे-कला और किताबें
उसका हथियार हैं. अपने लहराते बुर्के की मदद से</span> <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पेड़ों-छतों पे छलांग लगाती है. उसकी
तुलना मलाला से हो रही है जिन्होंने अपनी क़िताब और कलम के बल पर रूढ़िवादियों को
कुछ ऐसे ही छकाया था. लोग हैरान भी हैं कि दमन का प्रतीक बुर्का किसी आधुनिक सुपर
हिरोइन पर कैसे जंच सकता है</span>? <o:p></o:p></div>
<div class="separator" style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">दरअसल</span><span style="font-family: "Mangal","serif";">, <span lang="HI">आधुनिकता की बात हम ऐसे
करते हैं मानो वो कोई इकहरा चोला हो</span>, <span lang="HI">कुछ ख़ास तरह की चाल-
ढाल और कपड़े-व्यवहार अपना लिए और बस </span>‘<span lang="HI">मॉडर्न</span>’ <span lang="HI">हो गए. बात महज ऊपरी रंगत से कहीं गहरी है. मैं बुर्के की हिमायती नहीं
हूँ. स्वेच्छा (</span>?) <span lang="HI">से बुर्का अपनाने वाली कई महिलाओं का कहना
है बुरका उन्हें सुरक्षा और आत्मविश्वास देता है. अपनी सुरक्षा के लिए महिलाओं को
अपनी पहचान छुपाने के लिए मजबूर करने वाला समाज निश्चय ही आधुनिक नहीं है.
आधुनिकीकरण</span>, <span lang="HI">सशक्तीकरण</span>, <span lang="HI">महिला स्वतन्त्रता</span>,
<span lang="HI">इन सबकी परत-दर-परतें हैं. सामाजिक मानदंडों को धता-बता कर अपनी
मर्जी के कपड़े- व्यवहार- आदतें अपनाने वाली लड़कियां तो मॉडर्न हैं हीं</span>, <span lang="HI">लेकिन सर ढककर लड़कियों की शिक्षा की हिमायत करने वाली मलाला उन
बिकनीधारिणियों से कहीं ज्यादा आज़ादख़याल है जो दुनिया की नज़र में सुन्दर बने
रहने के लिए बिना खाए अधमरी हो रहीं हैं. अगर किसी लड़की को बिना कठमुल्लों का
शिकार बने शरीर दिखाने का अधिकार है तो उसे फैशन और आधुनिकता के मानदंडों की परवाह
किये बिना अपना शरीर ढकने का भी उतना ही अधिकार होना चाहिए. इस बात का ध्यान रखना होगा
कि आधुनिकता के नाम पे हम कहीं किसी ख़ास तरह की संस्कृति और वेश-भूषा को तो
बढ़ावा नहीं दे रहे</span>? <span lang="HI">परदे की जगह </span>‘<span lang="HI">सेक्चुअल
ओब्जेक्टीफिकेशन</span>’ <span lang="HI">को बैठा कर हम कुछ नहीं पायेंगे. आधुनिकता
का मतलब ऐसा समाज बनाने से है जहां औरतें अपनी मर्ज़ी से पढ़ और पहन सकें.</span> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">मध्य-पूर्वी और इस्लामी देशों की औरतों
की चिंता में दुबले होते हुए हम ये भूल जाते हैं कि असल विद्रोह उनके अन्दर से ही
पैदा हो रहा है. दमित ही दमनकारियों के खिलाफ़ उठ खड़े होते हैं. मलाला वहीं पैदा
होती है जहां उसे गोली मारने वाले हैं. अमेरिका इन देशों में जितनी भी दखलंदाज़ी
करे</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "\0022serif\0022"; mso-hansi-font-family: "\0022serif\0022";">खुद फूटी क्रांती ही कोई स्थाई परिवर्तन
ला पाती है. इसलिए इन औरतों को आधुनिकता की अपनी परिभाषा और मानक खुद गढ़ने
दीजिये. अपने बुर्के-बंधन काटकर कर ख़ुद निकलने दीजिये.</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><o:p></o:p></span></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस कार्टून फिल्म को</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बुर्के को युवतियों के बीच </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कूल</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">का दर्जा दिलाने की साजिश बताने वाले ये
भूल जाते हैं कि </span>'<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बुरका
अवेंजर</span>' <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उर्फ़ स्कूल टीचर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिया</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपनी रोज़मर्रा की जिन्दगी में बुर्का
नहीं पहनती. ऐसा वो सिर्फ गुंडों से लड़ते वक्त अपनी पहचान छुपाने के लिए करती है.
काल्पनिक सुपरहीरो हमेशा से अपनी पहचान छुपाते रहे हैं. अपने देशकाल और सन्दर्भ को
ध्यान में रखते हुए पाकिस्तानी सुपरहिरोइन ने मास्क की जगह बुर्का इस्तेमाल कर
लिया तो इसमें बुरा क्या है</span>?<o:p></o:p></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">बरसों से डिज्नी लड़कियों को
परियों और नाजुक राजकुमारियों की कहानी सुना रहा है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">उन्हें
सिंड्रेला और मरियल बार्बी जैसे फिगर पाने के सपने दिखा रहा है और दुनिया को बचाने
की ज़िम्मेदारी बैट</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मैन</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">और सुपर</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">मैन</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ने ले रखी है. ऐसे में उन्हें अगर किताब-क़लम के बल पर </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">बाबा बन्दूक</span>’ <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">से लोहा लेने वाली
सुपरहिरोइन मिल गयी है तो अच्छा ही है ना</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">इंग्लिश वीडियो गेम्स में
औरतें कटे- कुतरे कपड़ों में सिर्फ गेम का ग्लैमर बढाती हैं. जब पश्चिमी </span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कैटवुमन</span>' <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">या </span>'<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वंडरवुमन</span>' <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">परदे पे आती भी हैं तो
कटे-फटे और तंग रेक्सीन सूटों में जो उन्हें ताकतवर से ज्यादा उत्तेजक दिखाते हैं.
ऐसे में अपनी निक़ाबी निन्जा को देखना अच्छा लगता है</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">बिना ये जाने की उसकी कमर कितनी पतली है और फिगर कितना संतुलित है! </span><o:p></o:p></div>
<div style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<span lang="HI"><br />
</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ये लेख
जनसत्ता में प्रकाशित</span> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">है-</span> <a href="http://epaper.jansatta.com/151320/Jansatta.com/24-August-2013#page/6/1">http://epaper.jansatta.com/151320/Jansatta.com/24-August-2013#page/6/1</a> <o:p></o:p></div>
<div class="separator" style="line-height: 150%; margin: 0cm 0cm 0.0001pt;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZIxiSwVekglMJSsLu2lpnn-N1HqEHOunLV_9f-0Jpe_E-o5zdr0lByBpEioyed09R0kfcG060L9Y2JQKnwYMCOH0dRfBigR4pwuc-k_G-CdQX4fVAWJXzU0__-5sWez_ebb3cxkDWhuz0/s1600/Burqua.jpg" imageanchor="1" style="float: right;"><span style="mso-no-proof: yes; text-decoration: none; text-underline: none;"><!--[if gte vml 1]><v:shapetype id="_x0000_t75"
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<o:p></o:p>
<o:p></o:p>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%;">
<br /></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-76731921889597291552013-06-30T17:22:00.000+05:302013-11-11T15:58:49.840+05:30चम्पकवन, ट्रेन और बारामूडा ट्रायेंगल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">उन दोनों को ट्रेन में खिड़की वाली
सीट पर बैठना हमेशा से पसंद था. उल्टी दिशा में भागते खेत-पेड़ जब चलती रेलगाड़ी के
पेट में समाते जाते तो तेज हवा में आँखे मिचमिचाते बाहर देखते लाजवंती और वीर किसी
और ही दुनिया में चले जाते थे. बादलों में आकार बन जाते, आस-पास के लोग और आवाजें
खो जातीं और वो छूने की दुनिया छोड़कर सोचने की दुनिया में चले जाते. हर दो स्टेशन
के बीच फैले खेत-जंगल देखकर वो सारी कहानियाँ सजीव हो उठतीं जिनमें बच्चे अपनी
नानी से मिलने जंगल पार करके जाते थे और भालू या शेर को चकमा देकर नानी के घर ठाठ
से खीर खाते थे. चम्पकवन के राजा शेर सिंह ने इन्हीं जंगलों में अपना दरबार लगाया
होगा. भालू का नाम भोला, बाघ का नाम बघीरा और हर गिलहरी चीकू होती होगी. खेत में
पंछी भगाते किसानों को देखकर उन्हें रंज होता कि वो भी इनके जैसी ही झोपड़ियों में
क्यों नहीं रहते. ज्य़ादा दिल दरिया हो रहा हो तो खिड़की के पास बैठने का समय आधा-
आधा बाँटा भी जा सकता था.</span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">लेकिन आज की ट्रेन का सफ़र कुछ अलग
है. जिस शहर जाना है वो उनके सपनों के आकार का कटा-बुना है. वहां पैकेट वाला दूध हर
गली- दूकान पर मिलता है और पॉपकॉर्न बहुत महँगा है. चलते वक्त किसी लाजवंती के घरवालों
के कान में मंतर फूंक दिया था कि हॉस्टल का माहौल लड़कियों को बिगाड़ देता है, वहां
हर तरह की लड़कियां हर तरह की बातें करतीं हैं. वीर के घर छोड़ते वक्त उसके घरवालों
ने उसे तिलक किया, नज़र उतारी कि वो इंजीनियर बन के ही लौटे. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">ट्रेन के बाथरूम अच्छे तो कभी भी
नहीं लगते पर उस दिन और भी घिनौने लगे. उससे पहले उनकी ऊंचाई कम थी और वो हिलते
बाथरूमों में सधे हाथों से जाने किन इरादों से लिखे वैसे वाले वाक्य नहीं पढ़ सकते थे.
वैसे वाले वाक्य जो सबको पता है वहां लिखे मिलेंगे लेकिन जिसके बारे में कोई किसी
को सावधान नहीं करता, जिसका दरियादिल पेंटर कभी अपने काम का क्रेडिट नहीं लेता, जो
पढ़कर आप अपने कपड़े वापस चढ़ाते हैं, हाथ धोकर अपनी सीट पर वापस आकर सह-सीट-वासी से देश
की गंभीर समस्याओं के बारे में बात चालू कर देते हैं. लेकिन अब वैसा वाला सचित्र
वर्णन उनकी बढ़ती नज़र के दायरे में आने लग गया था. उस पर लिखा था- ‘देख क्या रही
है, तू भी करवायेगी क्या?’ जो करवाना था उसका चित्र भी खुरच रखा था. ऐसा लगा कि ये
उनकी ज़िन्दगी का सबसे बदसूरत और डरावना चित्र है. उस ट्रेन पे ऐसे चित्रों के
रचयिता भी थे और उनके पहले परिचय को ऐसे चित्रों के सहारे छोड़ देने वाले भी.
बुराइयों के साथ-साथ नैतिक शास्त्र की किताबों ने भी हम सबको घुस-घुस कर मारा है. स्त्री-पुरुष
संबंधों का सौन्दर्यबोध ताउम्र गड़बड़ाया ही रहेगा अब. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">ये ट्रेन कभी वापस नहीं लौटती थी. लाजवंती
को सीधे उस हॉस्टल उतारा था जिसका नाम उसकी वार्डन के फ़ेवरेट टी वी सीरियल के नाम
पर ‘अपराजिता’ था और वार्डन का नाम डॉ. (ब्रैकेट में मिसेज़) सुशीला शर्मा था. यहां
की लड़कियां हर रात खाने के ‘वक्त कसौटी जिन्दगी की’ देखती थीं. प्रेरणा के साथ
आंसू बहाती, अनुराग बासु से उसकी शादी करवाने के लिए मन्नतें मांगतीं थीं. वो कभी
वो नहीं देखतीं थीं जो वीर के हॉस्टल के लड़के देखते थे क्योंकि वैसी फ़िल्में देखने
वाली लड़की से वो लड़के कभी शादी नहीं करेंगे. और इन लड़कियों को उन लड़कों के सपने
देखने थे, उनसे अपनी आंख का काँटा निकलवाना था और उन्हें ये बताना था कि कल के
एपिसोड में जब उन्होंने प्रेरणा को अनुराग बासु के साथ बारिश में डांस करते देखा
तो वो समझ गयीं कि वो अच्छी लड़की नहीं है. इन लड़कियों के कुर्तों में जेब नहीं हुआ
करती थी और वो कोका-कोला हमेशा स्ट्रॉ से पीती थीं. ये लोग बस दो शेड गोरा करने
वाली क्रीम लगा कर क्रिकेट-कमेंटेटर, सिंगर, एयर–होस्टेस कुछ भी बन सकतीं
थीं. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">थोड़ा सहेलीपना जम जाने पर सारी
लड़कियां रात के खाने के बाद जाली-ग्रिल लगी खिड़कियों से बाहर ताकते बतियाने लगीं
थीं. ये वक्त बड़ा खलबली मचा देता था. पास के चराहे पर ट्रैफिक बढ़ जाता, अंडे वाले
के स्टाल की बिक्री बढ़ जाती, गले में फटे बांस को पनाह देने वाले भी तानसेन हो
जाते, सीटियाँ मारने के गुण की कीमत बढ़ जाती, किसी को अपनी आँख- गर्दन की तकलीफ़
याद नहीं रह जाती और लुंगी वाले अंकल की खुजली बेतहाशा बढ़ जाती थी. सामने के
ब्वायज हॉस्टल से लेज़र टॉर्च की लाइटें लड़कियों पर इधर-उधर पड़ने लगतीं. उनमें से
एक दबंग टाईप लड़की का दावा था कि अगर हम सड़क पर इनके सामने जाकर खड़े हो जाएँ तो ये
लोग पहचान नहीं पायेंगे कि ये वही वाली है जिसे बालकनी में देखने के चक्कर में जनाब
ने सर उचकाया था और अपना संतुलन खो बैठे थे. फिलहाल इस दावे को टेस्ट करने जितनी
आज़ादी नहीं थी और गिरने वाले, लड़की की आउटलाइन देखकर ही एक्सीडेंट का ख़तरा मोल
लेने को तैयार थे. रात की ड्यूटी वाला वाचमैन झपकी-रहित रात बिताने पर मजबूर था. ये
वही रात थी जब वीर की झिझक खोली जा रही थी और उसे अजीब आकृतियों वाली लेज़र लाईट से
सामने वाले हॉस्टल की लड़कियों पर निशाना साधने को कहा जा रहा था. उसके रूम- मेट ने
कुछ ख़ास अंगों के ज्यादा प्वाइंट्स निर्धारित कर रखे थे. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">वीर की ट्रेन ने उसे ‘दास- हॉस्टल’
ले जा पटका था. जिसका नाम उस हॉस्टल के फंडदाता के नाम पे रखा गया था. वो अपनी
टीचरी के वेतन का एक रुपया रख के बाकी हॉस्टल बनवाने के लिए दान कर देते थे. ‘एक
रुपया भी काहे लेता था बे?’... ये था वीर का रूम-मेट जो भदोही के पास के किसी गाँव
का था और तीन साल से इंजीनियरिंग एंट्रेंस परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. गाँव
में सब यही जानते थे कि वो इंजीनियरिंग पढ़ रहा है. ऐसी अफवाहों के सहारे दहेज की
संभावना दूनी- चौगुनी करने की गणित तो उसके इंजीनयरिंग बेपढ़े घरवालों को भी आती
थी. वीर को वार्डन के साथ आता देखकर उसने हाथ में ली हुई क़िताब झट से तकिये के
नीचे छुपा दी थी. वार्डन ने उससे आके पूछा कि उसकी पढ़ाई कैसी चल रही है. उसने जवाब
दिया कि वो इस साल पूरी जान लगा देगा और आई. आई. टी. निकाल कर ही रहेगा. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">उस हॉस्टल में एक और संत थे जिनका
दावा था कि वो लड़की का फिगर देखकर उसका चरित्र बता सकते थे और उनका अंदाजा सौ में
से निन्यान्बे टाइम सही निकलता था. इन्हीं सबों के किसी पूर्वज ने ही बारामूडा
ट्रायेंगल नाम दिया था गर्ल्स हॉस्टल को, कि जो एक बार उधर ताका वो फंसा तो बस
फंसा. ये लड़के अपना बटुआ पैंट की पीछे वाली जेब में रखते, थे जिसे बिल देने के लिए
निकालते वक्त आगे झुकना पड़ता था. ये लोग कभी- कभी वैसी वाली फ़िल्में छोड़कर टी. वी.
भी देख लेते थे. एक गाने का वीडियो चल रहा है जिसमें लड़का अपनी छोटे कपड़ों वाली
शहरी गर्लफ्रेंड को लेकर गाँव आया है जहाँ उसकी घरेलू मंगेतर उसका पहले से ही
इंतज़ार कर रही है. दोनों में उस लड़के को पाने के लिए झगड़ा होता है और अंततः गाँव
की सीधी- सादी लड़की जीत जाती है. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">लाजवंती और वीर की मुलाक़ात अभी भी हो
ही जाती है. लेकिन अब वो पहले की तरह एक दूसरे से ये नहीं पूछते कि शाम को खेलने आना
है या नहीं. दोनों एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेते हैं पर ना तो लाजवंती वीर को
बताती है कि सुबह पेपरवाला उसके बगल से कानों में क्या बोलता हुआ निकलता है और ना
ही ये कि रात को वो लुंगी वाले अंकल जी उसके हॉस्टल की बालकनी के सामने कुछ करते
नज़र आते हैं और बारामूडा ट्रायेंगल के पास होकर भी उनका निशाना कभी नहीं चूकता. वीर
भी उसे ये नहीं बताता कि अपनी झिझक खोलने के लिए वो क्या-क्या देख पढ़ रहा है और सब
लड़कों के साथ वो भी हँसता है जब उस लुंगी वाले के आते ही लड़कियां अन्दर भागने
लगतीं हैं.</span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">दोनों के बीच एक दीवार है जो प्यार
की संभावनाओं, बड़े-बूढों की सीखों, अफ़वाहों- उठती भौहों- इशारों और मोहनीश बहल के
फेमस वाले डायलॉग की बनी है. एक दीवार जो उम्रो-उम्र से इसी उम्र के आस-पास आ खड़ी
होती है. एक दीवार जिस पर चढ़ कर उनकी पुरानी ‘बच्चे-दोस्त’ वाली दोस्ती झाँकने लगती
है; जब मासी की सिंगापुर से भेजी टॉफियाँ उनका सबसे कीमती खज़ाना थी और नोंक बदलने
वाली पेंसिल दुनिया का सबसे महान आविष्कार; और दोनों उदास हो जाते हैं. </span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">फिलहाल ‘अपराजिता’ की वार्डन डॉ.
(ब्रैकेट में मिसेज़) सुशीला शर्मा का सख्त आदेश है कि लड़कियों को बालकनी पे खड़े
होना ही है तो वहाँ थोड़े- बहुत कपड़े डाल दें और बालकनी की लाईट हमेशा बंद रहनी
चाहिए. नीचे एक नया ऑटो वाला ‘दिल तो पागल है’ के गानों की तर्ज पर सीटियाँ बजाये
जा रहा है......</span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<br />
<div style="text-align: left;">
(इससे पहले- </div>
<div style="text-align: left;">
छठवीं क्लास के सेक्शन ए से लाजवंती और सेक्शन बी से वीर</div>
<div style="text-align: left;">
<a href="http://shwetakhatri.blogspot.in/2013/06/blog-post.html" style="background-color: transparent;">http://shwetakhatri.blogspot.in/2013/06/blog-post.html</a>)</div>
</div>
<div style="text-align: left;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<br /></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-8315359115033180622013-06-16T16:20:00.001+05:302015-01-04T11:17:55.687+05:30पुरुष होने के लिए.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जेंडर स्टडीज़ की
क्लास का पहला दिन था. जैसा कि होता आया है लड़के गिने- चुने ही थे. सबसे पूछा गया
कि आपने ये कोर्स क्यों लिया? लड़कियां बढ़- चढ़ कर जवाब दे रही थीं.</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">किसी की रूचि
अकादमिक थी तो कोई अपनी व्यक्तिगत समस्याएं गिना रही था. लड़कों की बारी आई तो ज्यादातर
का यही जवाब था- ‘मैं जानना चाहता हूँ कि हमारे देश में लड़कियों की स्थिति इतनी
बुरी क्यूं है?’ ये भावना क़ाबिल-ए-तारीफ़ है लेकिन एक सवाल भी उठाती है- क्या जेंडर
शब्द सिर्फ लड़कियों के लिए बना है? क्या लड़के कभी ये महसूस करते भी हैं कि जेंडर
उनकी जिन्दगी के हर क्षेत्र में घुसपैठिया है? हर देश- राज्य, हर यूनिवर्सिटी में
जेंडर से सम्बंधित विषयों में लड़कों की संख्या इनी- गिनी ही है. कुछ हद तक ये समझा
जा सकता है कि अमेरिकी विश्विद्यालयों के अमेरिकन- अफ्रीकन अध्ययन विभागों में
अश्वेत लोगों की संख्या ज्यादा क्यूँ है या फिर अपने देश में ज़ामिया यूनिवर्सिटी का
जो नार्थ- ईस्ट रिसर्च सेंटर है जहां ज्यादातर प्रोफ़ेसर- शोधकर्ता देश के उत्तर-पूर्वी
राज्यों से ही क्यूं हैं. कभी-कभी किसी क्षेत्र, नस्ल या मुद्दे से आपकी क़रीबी
आपकी अकादमिक रूचि भी बन जाती है. लेकिन जेंडर की घुसपैठ तो सिर्फ लड़कियों की
जिन्दगी तक ही सीमित नहीं फिर जेंडर स्टडीज़ होम साइंस की तरह ही लड़कियों का विषय
कैसे बन गया? क्या लैंगिक असमानता की वजह से लड़के कोई भेद- भाव महसूस करते हैं?
लेकिन उससे भी पहले एक सवाल- क्या लैंगिक असमानता लड़कों पर भी कोई प्रभाव डालती
है? </span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<o:p></o:p><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हर उस औरत के लिए जो
घर के काम- काज करने पर मजबूर है, एक आदमी है जिस पर घर भर के लिए कमाने और स्थाई
नौकरी पाने का दबाव है. हर ‘अबला’ जो अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकती उसकी रक्षा के
लिए एक लड़के को ‘मर्द’ बनना है. हमारी फ़िल्में, शेविंग क्रीम और चड्ढी- बनियान के
ऐड सिर्फ लड़कियों की ख़ूबसूरती ही नहीं, मर्द की ‘मर्दानगी’ के भी मानक गढ़ते रहें
हैं. हिरोइन किसी भी कोने-गढ़े में सौ- पचास गुंडों से घिर कर मदद के लिए पुकारे,
हीरो को आना ही है और सारे गुंडों को अकेले हराना ही है. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में
एक सीन है, गोलाबारी हो चुकी है और खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में एक मर्द कहता है- ‘लेडीज़
लोग अन्दर जाइए, चलिए.’ ये एक फ़िल्म की नहीं पूरे समाज की कहानी है. पुरुष को
चाहे-अनचाहे माँ, बहनों का रक्षक, घर का शासक- अनुशासक बनना ही है. प्यार में पहल उन्हें ही करनी है. लड़की के हँसी- इशारों को समझने में देर नहीं करनी है. डेट पर गए तो लडकी के लिए दरवाज़ा खोलना है, कुर्सी खींचनी है और बिल न देने का तो कोई सवाल ही नहीं है. लिंगभेद से उपजे बंटवारे की सबसे ऊंची पायदानों पर
ज्यादातर पुरुष हैं, लेकिन सबसे निचली पायदान पर भी वो ही हैं. डॉक्टर, इंजीनियर,
वैज्ञानिक का नाम लेते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले पुरुष की छवि कौंधती है लेकिन
चोर, लुटेरे और सटोरिये जैसे शब्द भी पुरुषों के लिए ही बने लगते हैं. हर कोई मर्द
के बजाय महिलाओं पर ज्यादा जल्दी भरोसा कर लेता है और उनकी मदद के लिए झट से तैयार
हो जाता है. सबसे ख़तरनाक कामों के लिए भी हम पुरुषों को ही आगे करते हैं. रात-
बेरात बिजली के टूटे तारों की मरम्मत उन्हें ही करनी है, युद्ध पर भी उन्हें ही
जाना है. आकड़ों की मानें तो ‘ऑन ड्यूटी डेथ’ में पुरुषों की संख्या महिलाओं से
कहीं अधिक है. </span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हरेक सभ्यता ने अपने विकास के दौरान स्त्री और पुरुष दोनों का
इस्तेमाल किया है. अब सवाल ये है कि सिर्फ लड़कियां ही अपने जीवन में इस शोषण की मौजूदगी
क्यूँ महसूस करतीं हैं, लड़कों को ये दबाव क्यों नहीं पता चलता? इसकी वजह ये है कि
मर्दानगी से जुड़ी हर एक चीज़ का स्थान समाज में ‘नारीत्व’ से जुड़ी हर एक चीज़ से
ऊंचा है. घर में ‘ब्रेडविनर’ का दर्जा ‘हाऊसवाइफ’ से अव्वल है. आक्रामक होना
बहादुरी है और रोना कमज़ोरी है. युद्ध में खून बहाना बहादुरी है और मासिक चक्र में
खून बहना अशुद्धी और कमज़ोरी की निशानी है. लड़की का कमाना, मर्दाने कपड़े पहनना और
बाहर के काम करना बहादुरी है लेकिन लड़के के लिए लड़कियों वाले काम करना अपना मज़ाक
बनवाना है. कभी सोच कर देखिये कि हिजड़े हमेशा औरतों जैसे ही कपड़े क्यूं पहनते हैं?
दरअसल इस विभाजन में लड़का- लड़की विपरीत होकर एक दूसरे के आमने सामने नहीं ऊपर-नीचे
का दर्जा पा चुके है. एक फेमिनिस्ट लेखक ने कहीं कहा था कि- ‘बेटी को तो कोई भी बेटे
की तरह पाल सकता है लेकिन अपने बेटे को बेटी की तरह पालने के लिए हिम्मत चाहिए.’ मर्दानगी
और इससे जुड़े गुण समाज के लिए मानक (स्टैण्डर्ड) हैं बाकी सब कमतर है. इसलिए बेटे को बेटी जैसा सम्वेदनशील नहीं बनाया जा सकता. हर क्षेत्र
के प्रशंसित और सफल लोगों में, घर में ज्यादा खाना पाने वालों में, बहन के मुकाबले
पढ़ाई के लिए ज्यादा बजट पाने वालों में, पुरुष जहाँ देखते हैं वहां वो ही वो हैं.
इसलिए ये असमानता उन्हें नहीं कोंचती. ऐसा लगता है कि जेंडर ने पुरुषों का फ़ायदा ही फ़ायदा
किया है और लिंगभेद मिट जाने पर उनका बड़ा नुकसान हो जाएगा. ये सच है कि रेप, दहेज
और घरेलू हिंसा के मामलों की ज्यादातर (हमेशा नहीं) शिकार औरतें ही है. लेकिन कमाऊ
पूत होने का दबाव भी ‘सीधी-सादी घरेलू लड़की’ की कसौटी जितना ही मुश्किल है. अब तक
नारीवादी आन्दोलनों को ‘मर्दानगी’ के लिए ख़तरा ही समझा गया है. लेकिन लिंग-भेद हटाना
सिर्फ लड़कियों के नहीं पूरे समाज के हित में है और इसके साथ पुरुषों को जोड़ने की
ज़रूरत है. अगर ये सोच विकसित करने में सफल रहे तो लैंगिक समानता की राह कहीं
ज्यादा आसान होगी. <o:p></o:p></span><br />
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span>
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">(ये लेख, जनसत्ता 19 जून 2013 के सम्पादकीय में प्रकाशित है.</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";"></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";">लिंक- </span><a href="http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/47260-2013-06-19-04-42-55">http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/47260-2013-06-19-04-42-55</a>)</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-34751783096785927412013-06-01T16:41:00.000+05:302014-07-16T16:55:19.059+05:30छठवीं क्लास के सेक्शन ए से लाजवंती और सेक्शन बी से वीर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दोनों का मानना है
कि उनकी मम्मियां पेड़ हैं. काहे कि स्कूल में पढ़ाया गया है कि हरे पेड़ अपना खाना
खुद बनाते हैं और बाक़ी लोग उन्हीं से अपना खाना लेते हैं. रोटियाँ बेलते हुए
मम्मी के हाथ की हरी- हरी नसें देख कर तो शक़ की कोई गुंजाइश ही नहीं रही. अपने-
अपने पापाओं को दुनिया का सबसे लंबा इंसान मानने- मनवाने की रोज़ की हुज्ज़त, फिर सर-
फुड़ौव्वल. दोनों पक्के वाले दोस्त हैं</span>.
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक दूसरे के शरीरों का भेद नहीं जानते. और वो जो
पैरों के बीच कुछ है वो दोनों को एक दूसरे का उल्टा बनाता है इस बात से अभी अन्जान
हैं. एक दिन समय के देवता इन दोनों को ये रहस्य समझा देंगे. लेकिन फ़िलहाल दोनों बच्चे
हैं, बच्चे- दोस्त, दोस्त- बच्चे. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक दूसरे के सारे
रहस्यों, गुनाहों और मम्मी-पापा को धोखा देने के लिए बनाई रणनीतियों के भागीदार. नागराज
और ध्रुव की कॉमिक्स कहाँ छुपाई है. ऊपर वाले घर के घंटी बजा कर कौन भागा. लूडो
में बेईमानी कैसे की. अपने हिस्से से ज्यादा मिठाई कैसे चुरा के खानी है. पढ़ने की
किताबों में सरिता- मनोरमा- कॉमिक्स कैसे छुपा के पढ़ी जाती है? झगड़ा होने पर ये
सारी पोल- पट्टी खोल देने की धमकियां. फिर एक-एक घुम्मे-मुक्के और बाल नोंचय्या का
हिसाब ले कर कट्टी-मिल्ली. कुछ भले काम भी किये हैं. एक दिन बिजली की तार से छूकर
एक चिड़िया वीर के ऊपर आ गिरी. तब से चिड़ियों की जान बचाना शगल बन गया. गुल्लक में
थोड़ी बचत भी कर ली है. उसकी खन-खन से सापेक्ष अमीरी-ग़रीबी का हिसाब लगाया जाता है.
चलते कूलर के आगे अपनी रोबोट वाली आवाजें निकालना, किसी का घर बनाने के लिए गिराई
बालू पर घर बनाना फिर इकठ्ठा की गयी सीपियों के लिए लड़ना. अगर ज़िंदगी सौ बरस की
होती है तो दसवां हिस्सा इसी तरह जी लिया है. बच्चे- दोस्त, दोस्त- बच्चे बनके.</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सब कुछ बढ़िया चल रहा
था</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">कि एक दिन स्कूल में खाने की छुट्टी में पूरी क्लास को रस्साकशी खेलने का भूत
सवार हुआ. रस्सी के अभाव में दोनों टीमों के अगवा का हाथ ही खींचा-ताना जा रहा था.
लड़के एक तरफ़, लड़कियां एक तरफ़ यही नियम है इस गेम का. ‘अपनी- अपनी टीमों में आ जाओ’
आवाज आई. दोनों सकपका गए, ये उनकी टीमें अलग कब से हो गयीं? उन्हें तो लड़कर भी एक
दूसरे की तरफ़ से ही खेलने की आदत है. खैर, बेमन से खेला खेल ख़त्म हुआ पर कौन जीता
कौन हारा दोनों को आज तक याद नहीं. फिर तो ये रोज़ का क़िस्सा हो गया. घर- बाहर,
स्कूल, हर पीरियड में यही साज़िश. दोनों के बीच दशमलव की बिंदी आकर बैठ गई थी एक
दायाँ था दूसरा बायाँ, टोटल वैल्यू कम कर दी खामखाँ. दोनों की दोस्ती गणित का एक
समीकरण बन गई जिसमें अनजानी चीजों को ‘एक्स’ मान लिया जाता है. वैसे, बायोलॉजी के
एक्स और वाई ने भी कम कहर नहीं ढाया. व्याकरण में अनुलोम- विलोम,
स्त्रीलिंग- पुल्लिंग चल रहा है.. लड़का- लड़की, सुनार- सुनारिन, हलवाई- हलवाइन.
स्त्री- पुरुष. ही-शी, ती है-ता है का बंटवारा. घर पे पहले बच्चे रोते थे अब लड़का-
लड़की रोने लगे, लड़की थोड़ा ज्य़ादा. वीर को तो रोना ही मना हो गया.</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">धीरे- धीरे लाजवंती
और वीर पर भी रंग चढ़ रहा है. आजकल खाने की छुट्टी में वीर ‘अपने जैसों’ के साथ
गेंदतड़ी खेलता है और लाजवंती 'अपनी जैसियों’ के साथ साइड में बैठी मुंह पे हाथ धरे</span> धीरे- धीरे ही- ही, खी- खी.<br />
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">परीक्षा परिणामों के
साथ लड्डू बंटे. छठवीं क्लास आ गयी. सेक्शन अलग हो गए लड़के ए में लड़कियां बी में. लड़कों
को हाफ की जगह फुल पैंट पहननी है और लड़कियों को दो चोटी करके सफ़ेद रिबन बाँधना है.
लाजवंती के बाल अभी छोटे हैं, वो पोनीटेल करके जा सकती है लेकिन होम साइंस पढ़ना
जरूरी है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">“नील घोलने की विधि
बताओ.”</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">होती होगी कुछ, लाजवंती
की बला से, उसके घर में तो उजाला आता है. घुला-घुलाया, चार बूंदों वाला.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘हाय राम मिस! इत्ता
सरल सवाल?’ ये ज्योति केसरी पक्की चापलूस है मिस की. लाजवंती ने उसे मुंह चिढ़ा
दिया. मिस ने उसे टेबल पे खड़े होने की सज़ा दी. </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">“जानती हो गांधी जी ने कहा है कि
स्त्रियों के लिए गृह- विज्ञान की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए. मेरी क्लास में
तुम्हें मर्यादित व्यवहार करना होगा.” </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये बाद की बात है कि लाजवंती को दिल्ली आकर
पता चलेगा कि यहाँ लड़कियों को होम साइंस ज़रूरी नहीं है और वो इन सब मिसों, राष्ट्र्पिताओं
और ज्योति केसरियों को एक साथ काल्पनिक अंगूठा दिखायेगी, ‘ले बच्चू!’ लेकिन क्लास
में तो होम साइंस ने जान ले रक्खी है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">“घर को संभालने वाली
को क्या कहते हैं?” मिस ने फिर कोंचा. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">“जी हमारा घर तो लालमनी
सम्भालती है, हमारी नौकरानी.”</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पूरी क्लास को हंसने
का दौरा पड़ गया. लाजवंती की सज़ा अपग्रेड हो गयी. उसे अब हाथ ऊपर कर के खड़े रहना
होगा. घर जाकर लाजवंती का हाथ बहुत दुखा और मिस ने घर जाकर शांती धरावाहिक देखा.
ज्योति केसरी ने घर जाकर सूजी का हलवा बनाया, </span>बहुत बढ़िया!<br />
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">सेक्शन बी में वीर
की हालत भी बुरी थी. उसे लाजवंती के साथ बैठने की आदत थी. टेस्ट में लाजवंती तब तक
पन्ना नहीं पलटती थी जब तक वीर पूरी नक़ल न कर ले. होंठ के किनारे से स्पेल्लिंग
बताने की कला भी उसी को आती थी. वीर को तो बस ड्राइंग का शौक था. अपनी कॉपी में
ज्यादा गुड/ फ़ेयर दिखा कर लाजवंती को टी ली ली ली. कला वाली मिस, जो अपनी लम्बी
चोटी में कभी रबरबैंड नहीं लगाती थीं, उनका कहना था कि लड़कों की आर्ट ज्यादा अच्छी
नहीं होती इसलिए उन्हें थोड़े प्रयास पे ही अधिक नंबर दे देने चाहियें, वीर तो एक
अपवाद है. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">‘लड़की के साथ जो
खेला करता था सारा दिन.’ </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">तो लाजवंती लड़की थी?
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">वीर ने घर जाकर एक
नए तरीके का साड़ी का किनारा बनाया. कला वाली मिस ने भी घर जाकर शांती धारावाहिक
देखा और अपने बाल खोल कर सो गयीं. लाजवंती को लड़की कहने वाले लड़कों ने अपनी-अपनी
पेड़-मम्मियों से </span>लेकर खाना खाया और कॉन्ट्रा या मारियो जैसा कुछ खेल कर सो गए. <br />
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">बरसों बाद उस क़स्बे
में प्रगति आयेगी और इंग्लिश ‘स्पोकना’ सिखाने वाले सेंटर खुलेंगे. को- एजुकेशन और
लव-मैरिज डिबेट के फेवरेट टॉपिक्स होंगे. गर्मागर्म बहस चलेगी. हल क्या निकलेगा पता नहीं. लेकिन लाजवंती
और वीर का तो बड़ा नुक़सान हो गया. अब से पूरी क्लास-सर-मिस को पता चल गया है कि
लाजवंती ने अपनी कला की कॉपी में कनेर का फूल और तश्तरी में रखा आम कभी खुद नहीं
बनाया था. और वीर को विज्ञान का ढेंगा भी नहीं आता था. <o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
(कहानी आगे बढ़ती है- <span style="background-color: white; color: #666666; font-family: 'Trebuchet MS', Trebuchet, sans-serif; text-align: start;">चम्पकवन, ट्रेन और बारामूडा ट्रायेंगल</span><br />
<a href="http://shwetakhatri.blogspot.in/2013/06/comingofage.html">http://shwetakhatri.blogspot.in/2013/06/comingofage.html</a>)</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-18274122535072978952013-05-22T10:57:00.000+05:302014-07-16T17:20:10.425+05:30ब्रेस्ट कैंसर के खतरे, पेटेंट के झगड़े, एंजलीना जॅाली और हम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हाल ही में हॉलीवुड सुपरस्टार एंजलीना जॅाली के एक इक़रारनामे ने हलचल मचा दी.
इसमें इन्होंने कैंसर के खतरे से बचने के लिए डबल मैसटैक्टमी (सर्जरी द्वारा दोनों
स्तन निकलवा दिया जाना) करवाना स्वीकार किया. लेकिन उसके तुरंत बाद ही उनके मिरियड
जेनेटिक्स नामक फार्मा कंपनी से गठजोड़ की बात सामने आई और असल मुद्दा रफा- दफा हो
गया. कोई उन्हें शूरवीर तो कोई मेडिकल कार्पोरेट जगत का मोहरा बताने के चक्कर में है. ये
कंपनी कैंसर की कारक ब्रैक१ और ब्रैक२ जीनों को पेटेंट कराने की कोशिश में है ऐसा
होते ही इस टेस्ट की कीमत सौ गुना तक बढ़ सकती है. कई जगह ये तर्क भी पढ़ने को मिले
कि ऐसी चिकित्सा भारतीय महिलाएं अफ़ोर्ड कर ही नहीं सकती. </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अगर ये प्रचार का हथकंडा है तो भी हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि मिरियड कंपनी
को एंजलीना की ईमेज की ज्य़ादा ज़रूरत है न कि एंजलीना को उनके पैसों की या फिर खुद
को फ़रिश्ता साबित करने की. वो पहले ही विश्व की सफलतम, मशहूर और धनी महिलाओं में
से एक है. भारतीय महिलाओं का कैंसर के इलाज का खर्च उठा सकें ये सुनिश्चित करना
एंजलीना जॅाली की नहीं हमारे नीति नियंताओं की जिम्मेदारी है. अगर किसी के भी पास
भरपूर संसाधन और पैसे हों तो वो बिना खर्च की परवाह किये अपनी सेहत के लिए उपाय-
इलाज करेगा ही.</span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लेकिन जो बात सबसे गौरतलब है वो ये कि ये सर्जरी बीमारी के बाद नहीं पहले की गयी
है ताकि कैंसर हो ही न सके. ये एक आसान फैसला नहीं है. स्तन कैंसर कई सामाजिक और
भावनात्मक कारणों से बाकी किसी भी कैंसर से अलग है. स्तन मुक्ति का निर्णय भी सांप काटे का
जहर रोकने के लिए उंगली पर नश्तर चलवा देने से कहीं ज्य़ादा पेचीदा है. इसकी वजह
ब्रेस्ट का महिलाओं के बाकी अंगों से थोड़ा अलग और थोड़ा अधिक महत्त्वपूर्ण होना है.
इस थोड़ा अलग और थोड़ा अधिक को हम कई उदाहरणों से समझ सकते हैं- मॉडलों के लिये तय
सौन्दर्य मानकों को देख लीजिये, बाज़ार में पैडेड ब्रा और सिलिकॉन ट्रांसप्लांट की
उपलब्धि और लोकप्रियता पर नज़र डालिए या फिर किसी भी लड़की से उसके साथ हुई छेड़छाड़
के अनुभव पूछ डालिए. खुले आम स्तन- प्रदर्शन और इसकी बीमारी तक के बारे में बात
करना अपराध तो नहीं लेकिन अश्लील हर समाज में माना जाता है. अगर याद हो तो कुछ समय
पहले विवादित खिलाड़ी पिंकी प्रमाणिक, जिनका जेंडर संदेह के घेरे में था, की कुछ
तस्वीरें मीडिया में आई थीं. इसमें एक पुलिस वाले ने उन्हें सीने के पास से अभद्र
तरीके से पकड़ रखा था. कुछ तो अलग है इस अंग में!</span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इस थोड़े अलग और थोड़े अधिक महत्त्व की वजह से ये अंग लड़कियों की सेक्चुअलिटी,
आकर्षण और धीरे- धीरे उनके आत्मविश्वास का भी अहम् हिस्सा बन जाता है. बीमारी को
रोकने के लिए हम सब टीके- दवाएं आम तौर पर इस्तेमाल करते हैं. लेकिन कैंसर पैदा
करने वाले जीन पाए जाने पर स्तनों से ही छुटकारा पा लेना आमतौर पर देखने में नहीं
आता. हमारे समाज में लड़कियों की सबसे बड़ी उपयोगिता उनका बच्चे पैदा करने और पालने
की क्षमता को ही समझा जाता है. बचपन से ही उनकी ये ट्रेनिंग शुरू हो जाती है. समय
पे शादी करने, सिगरेट न पीने से लेकर तमाम मशविरे दिए जाते हैं ताकि उनके माँ बनने
में दिक्कत ना आये. ऐसे में स्तन- मुक्ति सिर्फ एक निजी फैसला नहीं रह जाता. </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इस ख़बर से किसी को हिम्मत मिली हो या न मिली हो, एंजलीना की स्वीकारोक्ती ने
इस प्रतिबंधित विषय को मीडिया के जरिये हर घर के ड्राइंग रूम तक तो पहुंचा ही दिया
है. हालांकि समाज के सौन्दर्य मानकों को वो भी धता- बता नहीं सकीं और ब्रेस्ट
ट्रांसप्लांट करवा ही लिया. इसका एक कारण ये भी है कि जिस प्रोफेशन में वो हैं,
उसमें रहकर सौन्दर्य मानकों की अनदेखी कर पाना मुमकिन नहीं है. कोशिश ये करनी होगी
ये तमाम बहस कुछ ठोस बदलाव ला सके. औरतें फार्मा कंपनी के फैलाये आतंक के जाल में
ना आये और ना ही सामाजिक दबाव में आकर अपने स्वास्थ्य की अनदेखी करें. साथ ही उनके पास
इतनी जानकारी और संसाधन हों कि वो सोच समझ कर स्तनों को रखने या न रखने का फैसला
ले सकें. इस खबर ने कम से कम शुरूआती माहौल तो तैयार कर दिया है.</span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-50591829803497605562013-05-12T14:38:00.000+05:302017-01-12T12:47:29.296+05:30हमारी निकम्मी मम्मियां <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: mangal, serif;">उन्हें सारी चीज़ों के भाव
रटे होंगे. वो दूधवाले के नागों का, कामवाली की छुट्टियों का, किराने की दूकान के
उधारों का मुंहज़बानी हिसाब रखेंगी. फल- सब्ज़ी वालों से मोल- तोल करके सबसे सस्ता
सौदा खरीद कर लायेंगी. पर बजट की घोषणा होगी तो आप अखबार झपट लेंगे- ‘ये पॉलिटिक्स
है मम्मी, आप नहीं समझेंगी.’</span><br />
<div class="MsoNormal">
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये दिन भर मिक्सी, कुकर,
चूल्हे से जूझेंगी. वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव और फ्रिज के अति कॉम्प्लिकेटेड बटनों
के साथ माथापच्ची करेंगीं. लेकिन कम्प्यूटर और कार की सीटों पर आप कुंडली मारकर
बैठ जायेंगे- ‘ये नयी टेक्नॉलोजी है मम्मी, आप नहीं समझेंगी.’</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये सुबह आपको जगाएँगी. आपके
इस्तेमाल की सब चीजें तैयार रखेंगी. घर से निकलने से पहले मोबाइल, पर्स, पैसे रख
लेने की याद दिलाएंगी. आपके वापस आने से पहले आपका अस्त- व्यस्त किया कमरा कोरा-
चिट्टा कर देंगी. बाहर आप माँ- बाप का प्रोफेशन पूछे जाने पर आप धीमे सुर में बोलेंगे-
‘मेरी मम्मी <b>कुछ नहीं</b> करतीं, वो हॉउसवाइफ हैं.’ </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">आप के इस मनोवैज्ञानिक रोग
की छूत धीरे- धीरे इन्हें भी लग गयी है. ये ना अपना मनपसंद खाना बनाएंगी, ना अपने
कपड़े- लत्तों का ध्यान रखेंगी. आपके सर दर्द भर से इनके माथे पर शिकन आ जाएगी
लेकिन अपनी बीमारियों को कोई बड़ी बात नहीं समझेंगी. कुछ पूछने पर कहेंगी- ‘अरे
मेरा क्या है मैं कौन सी कामकाजी हूँ, दिन भर घर पर ही तो रहती हूँ.’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अगर आपकी मम्मियां भी ये
सारे लक्षण दिखाती हैं- अपनी मर्जी का खाती- पहनती नहीं, दिन भर तेल- हल्दी से सने
कपड़े लादे रहतीं हैं, अपने ऊपर पैसे खर्च करने से कतराती हैं, उनका फेवरेट कुछ भी
नहीं है, सबकी पसंद को ही अपनी पसंद बताती हैं, कभी साथ बैठ कर खाना नहीं खाती,
बाद में सबका बचा- खुचा बटोरती हैं. तो समझ जाइए कि आप बहुत बीमार हैं (आपकी मम्मी
नहीं). आप ‘माय मदर डज़ नॉट वर्क सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दरअसल कुछ काम करने का
हमारा सीधा मतलब कुछ पैसे कमाने से है. जो कमाता नहीं, वो कुछ नहीं करता. इसी तरह जिस
काम के लिए हमें ठोस मुद्रा के रूप में कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती उसकी हमें कोई
क़द्र नहीं होती. हमारी मम्मियों का काम भी इसी श्रेणी में आता है. घर- बच्चे संभालने को किसी भी समाज में कोई बड़ा या बौद्धिक
काम नहीं समझा जाता.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लड़कियों को जबरन घरेलू
कामों की शिक्षा देना और उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें गृहकार्य और मातृत्व की तरफ़
धकेले जाना बुरा है. लड़कियां प्राकृतिक रूप से इन कामों में दक्ष होती हैं, ये हमारा
भ्रम है. अगर ऐसा होता तो फाइव स्टार होटलों के शेफ से लेकर चाट का ठेला लगाने
वाले तक, पड़ोस के दर्जी से लेकर फैशन डिज़ाइनर और नामी पेंटर- डांसरों तक सब के सब ज्य़ादातर
पुरुष नहीं होते. लड़कियों को अपना करियर छोड़ कर घर पर ध्यान लगाने के शिक्षा देते
रहना बुरा ज़रूर है लेकिन इसका हल घरेलू औरतों की अवमानना नहीं है. इसका हल उनके
काम की क़द्र किया जाना है. अगर हम लड़कियों के डॉक्टर, इंजीनियर बनने की सराहना
करते हैं तो उनके गृहणी बन जाने को उनकी शिक्षा का बेकार जाना क्यों समझ लेते हैं?
अगर महिला अपनी मर्जी से घर- बच्चे संभालने का निर्णय लेती है तो इसमें कोई बुराई
नहीं. बुराई है पहले तो उनको ऐसा करने पर मजबूर किये जाने में और फिर उनको घर में दोयम दर्जा देने में और ये समझने में कि जिस औरत ने
सिर्फ बच्चे पैदा किये और घर संभाला उसने कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किया. सबसे
भयंकर बात ये है कि खुद गृहणियों ने भी इन सारे पूर्वाग्रहों को सही मान लिया है.
वो खुद भी अपने शारीरिक- मानसिक सेहतमंदी को प्राथमिकता नहीं देती. हमें खुद को और उनको भी ऐसी सोच से बचाना होगा. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मेरी नजर में एक आदर्श समाज
वो होगा जहाँ स्त्री- पुरुष में से कोई भी अपनी- अपनी क्षमता और रूचि के हिसाब से
अपना काम चुन सकेंगे और अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को साझा कर सकेंगे. इसके लिए
उन्हें किसी की आलोचना का डर नहीं होगा. ना तो लडकियों के करियर चुनने पर कोई
बंदिश होगी और न ही हॉउसवाइफ होने को पिछड़ेपन की निशानी समझा जाएगा. ऐसे समाज को
बनाने के लिए सबसे पहले घर के कामों को और इन्हें करने वालों को उचित महत्त्व दिया जाना
ज़रूरी है. </span><o:p></o:p></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दो विशेष बातें- </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpFirst" style="mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -18.0pt;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Mangal; mso-fareast-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">१.<span style="font-family: "times new roman"; font-size: 7pt;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये (उपदेश) लड़के और लड़कियों
दोनों के लिए है. अपनी मम्मियों को निकम्मा मानने में हममें से कोई भी कम नहीं है!
</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpLast" style="mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -18.0pt;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Mangal; mso-fareast-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">२.<span style="font-family: "times new roman"; font-size: 7pt;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये कोई मदर्स डे विशेषांक
नहीं है. कुछ बीमारियाँ हमारी सोच और समाज को लगातार त्रस्त करती आ रहीं हैं. इनसे
लड़ने की कोशिश भी उतनी ही व्यापक और निरंतर होनी चाहिए. ये डे- फे तो सिर्फ आर्चीज़-
हॉलमार्क का भला करने के लिए बने हैं. </span><o:p></o:p></div>
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<br /></div>
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</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com10Southern Asia18.646245142670608 79.8046875-10.177822357329394 38.4960935 47.470312642670606 121.1132815tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-47670268811454396792013-05-05T17:48:00.000+05:302017-01-12T12:48:53.160+05:30खेल खेल में........<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">खेल खेल में क्या से क्या
हो जाता है... लड़के नेशनल यूनिफॉर्म में मैदान में उतरते हैं और लड़कियां हाथ में
झालरें लेकर आधे- अधूरे कपड़ों में चीयरगर्ल्स बनती हैं. वो देश का गौरव बढ़ाते हैं
ये ग्लैमर बढ़ाती हैं. क्रिकेट की खबरों से पटे पड़े अखबारों से महिला क्रिकेट की
खबरें नदारद हो जाती हैं. सानिया मिर्ज़ा की उपलब्धियां भले ही बिसर जाएँ पर उनकी
नथ ज़रूर याद रह जाती है. जेंडर हमारे जीवन
में जाने- अनजाने किस हद तक घुस आता है ये जानने के लिए ज्यादा पोथियाँ पढ़ने की
जरूरत नहीं बस स्पोर्ट्स की खबरें देख- पढ़ डालिए. </span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: Times, Times New Roman, serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">विदेशों में महिला
खिलाड़ियों की न्यूड तस्वीरें पत्रिकाओं के कवर पृष्ठ की शोभा बढ़ातीं हैं. सफल
महिला एथलेटिक को बिना जाने- पूछे समलैंगिक मान लिया जाना भी आम है. हमारे यहाँ
सामाजिक बंधन इतना ग़ज़ब तो नहीं होने देते. लेकिन यहाँ भी महिला और पुरुष खिलाड़ी
मीडिया में अलग- अलग तरह से प्रोजेक्ट किये जाते हैं. पुरुष खिलाड़ियों के साहस,
जुझारुपन और कड़े ट्रेनिंग प्रोग्राम</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पर फ़ोकस किया जाता है. महिला खिलाड़ी या तो
लोकप्रिय मीडिया से नदारद रहतीं हैं या फिर उनके प्रदर्शन से ज्यादा उनके पति-
बच्चे, नथ- बिंदिया और फैशन सुर्ख़ियां बनाते हैं. हाल ही में ओलम्पिक मेडल जीतने
वाली एम. सी. मैरी कॉम तमाम ख़बरों में ‘दो बच्चों की माँ’ कहकर संबोधित की गयीं.
उनकी शादी, प्रेमकहानी, पति और जुड़वां बच्चों पर स्पेशल फीचर निकाले गए. एक
प्रतिष्ठित मैगज़ीन ने उन्हें अपने कवर पेज पर जगह तो दी पर वो भी एक वीमेन स्पेशल
अंक था जिसमें वो मय मुकुट- मेकअप- गुलाबी ईवनिंग गाउन, विराजमान थीं. मानों अभी-
अभी कोई ब्यूटी पेजेंट जीता हो या बॉक्सर होने की माफ़ी मांग रहीं हों. पहली नजर
में शायद आपको इसमें कोई बुराई न लगे. यहाँ सवाल अच्छे- बुरे का नहीं बराबरी का
है. अगर खेलों में लिंगभेद न होता तो मैरी कॉम सिर्फ महिलाओं की नहीं, हम सब की आदर्श
कहलातीं. या फिर स्पोर्ट्स पेज की सुर्खियाँ कुछ यूँ होतीं-</span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">“दो बच्चों के पिता सचिन ने
आज अपना सौवां शतक लगाया.”</span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: Times, Times New Roman, serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">“हाल ही में शादीशुदा धोनी
की कप्तानी में भारत ने विश्वकप जीता.”</span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मैं मीडिया क्रिटिक नहीं
हूँ. न ही इस लिंगभेद के लिए अकेले पत्रकारों को दोषी संमझती हूँ. वो हमारे बीच से
ही आते हैं. जो हमारी सोच वही उनकी सोच है. हमारी डिमांड की दिशा में ही उनकी
लेखनी गतिशील होती है. स्पोर्ट्स हमारी नज़र में एक मर्दानी एक्टिविटी है. लड़कियों
की नज़ाकत और लड़कों की आक्रामकता हमारी नजर में उनका प्राकृतिक या बायलौजिकल गुण
है. पुष्ट मांसपेशियों वाली सफल महिला खिलाड़ी हमारी इस अवधारणा को कड़ी चुनौती देती
हैं. जहाँ पुरुष एथलीटों को हीरो मानने में हमें कोई परेशानी नहीं होती वहीँ
महिलाओं को मज़बूत और जुझारू खिलाड़ी के रूप में पचा पाना हमारे लिए बड़ा मुश्किल
होता है. वो हमारे ‘नॉर्मल’ औरत के खांचे में फिट नहीं बैठतीं. इस कारण हमें वो
खेल के मैदान के बजाय विज्ञापनों में तेल, चावल, शैम्पू बेचते या घरेलू बातें
करतीं ज्यादा सुहातीं हैं. उन्हें किसी की पत्नी, माँ या फिर चीयरगर्ल की भूमिका
में देखकर हमें तसल्ली हो जाती है कि चलो एथलीट सही, पर ये हैं तो औरतें ही. हम
महिला खिलाड़ियों के लिए धन के कमी का रोना रोते वक्त भूल जाते हैं कि इसके लिए
मीडिया या पुरुष खिलाड़ी ज़िम्मेदार नहीं है </span>इस असमानता में हम सबकी भागीदारी है. वीमेन स्पोर्ट्स को मिलने वाला कम
कवरेज, उनके लिए धन और प्रायोजकों की कमी हमारी इस मानसिकता का परिणाम है.</span></div>
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अमरीकी स्कूलों में हाल ही
में किये गए एक शोध के दौरान सामने आया कि बहुत सी लड़कियां खेल-कूद में जान- बूझ
कर ख़राब परफॉर्म करती हैं ताकि उन्हें ‘मर्दानी’ औरत ना समझ लिया जाए. स्कूल-
कॉलेज तो बहुत दूर की बात है. लड़कों को मर्द और लड़कियों को नारी बनाने की प्रक्रिया
तो बचपन से ही शुरू हो जाती है जब हम लड़कों को खेलने के लिए कार- बंदूकें और
लड़कियों को गुड़िया और किचेन सेट देते हैं. </span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो धारा
के विपरीत बहने की हिम्मत कर रहे हैं. तमाम विषमताओं के बावजूद, हमारे देश में हर
तरह के खेलों में हिस्सा लेने वाली महिलाओं की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है. हमारी
महिला क्रिकेट टीम पर धन और विज्ञापनों की बरसात नहीं होती, पर इसके बावजूद उनकी
आई. सी. सी. रैंकिंग प्रथम है. </span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उम्मीद है कि हम सब जल्द ही
उन्हें वो जगह और सम्मान देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो पायेंगें जिसकी वो
हकदार हैं. ये भी ध्यान रखना होगा कि इस मामले में हम पश्चिमी मीडिया की अंधाधुंध
नक़ल न करें जो महिला खिलाड़ियों को कवरेज तो ज्यादा देते हैं पर सही वजहों से नहीं.</span><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Times, Times New Roman, serif;"><br /></span></div>
</div>
<div class="MsoNormal">
<div dir="rtl" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/02398390104292028289noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-799979876028960103.post-91505106706040633102013-04-28T14:57:00.000+05:302017-01-12T12:49:51.077+05:30‘आंटी-बेटी-सहेली गणराज्य’ उर्फ़ दिल्ली मेट्रो का जनाना डब्बा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;">तारीख कुछ ठीक- ठीक याद नहीं</span><span style="text-align: left;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;">पर माहौल खूब याद है. रोज़ की तरह
उस दिन भी मैं अपने नियत स्टेशन से नियत समय पर मेट्रो में चढ़ी. पर कुछ बदला-
बदला लग रहा था. लड़के मुझे सीट ऑफर नहीं कर रहे थे (मैं इसकी उम्मीद भी नहीं करती</span><span style="text-align: left;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;">रोज़ की भागदौड़ में</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;"> </span><span style="text-align: left;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;">शिवलरस</span><span style="text-align: left;">' </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;">हो पाना न तो संभव है और न ही जरूरी.) कोई
नाराज़ दिख रहा था</span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; text-align: left;"> <span lang="HI">तो</span> <span lang="HI">कोई मूंछों- मूछों में मुस्कुरा रहा
था. सब थोड़े तने- तने बैठे थे. कुछ खुसुर- फुसुर भी कानों में पड़ रही थी.</span></span></div>
<div class="separator" style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm;">
<o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<u1:p></u1:p>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">अपना अलग कम्पार्टमेंट भी चाहिए और यहाँ भी सीट लेंगी.</span>’<o:p></o:p><u1:p></u1:p><u2:p></u2:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">गंतव्य तक पहुँचते- पहुँचते बात
समझ आ गयी थी कि आज से गति की दिशा का पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित हो चुका
है. बिना डिमांड के लेडीज़ कम्पार्टमेंट शुरू करने के लिए दिल्ली मेट्रो ने अपनी
पीठ ठोंक ली थी.</span><span style="font-family: mangal, serif;"> </span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">अब तो इस पहले डिब्बे ने मेट्रो
का समाज शास्त्र ही बदल दिया है. या यूँ कहिये कि हमें हमारे समाज का आइना दिखा
दिया है. जगह- जगह ये तर्क सुनने को मिल जाता है-</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">भई हम लोग नहीं जाते
लेडीज़ में</span><span style="text-align: justify;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">फिर ये लोग क्यूँ घुसी चली आती
हैं हमारे जेंट्स कम्पार्टमेंट में</span><span style="text-align: justify;">?’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">ये खीज सिर्फ मेट्रो की
सीमित सीटों पर अधिकार जमाने की उठापटक नहीं है. अधिकतर जनता के मन में</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">जनरल</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">का मतलब</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">जेंट्स</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">और</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">आम</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">का मतलब</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">आदमी</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">ही है. उनकी ग़लती भी नहीं है.
ये</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">आम</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">राय तो हमने बड़ी मेहनत से बनाई
है. हिस्ट्री में सिर्फ</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">हिज़- स्टोरी</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">सुनाई है</span><span style="text-align: justify;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">मानव- निर्मित को</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">मैन- मेड</span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">कहा है और कुर्सी सिर्फ</span><span style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;"> </span><span style="text-align: justify;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">चेयर<b>मैन</b></span><span style="text-align: justify;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; text-align: justify;">के लिए बनाई है.</span><br />
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लेकिन इन सब सिद्धांतवादी-
आदर्शवादी बातों के बावजूद मेरी भी आदत बदल गयी है. अब तो क़दम अपने- आप ही
लेडीज़ कम्पार्टमेंट की तरफ़ बढ़ जाते हैं. जल्दी में कहीं और से चढ़ भी जाऊं तो
भी मेट्रो के विशाल जन-समुद्र में तैरते- फ़िसलते</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">एक्सक्यूज- मी बोलते
हुए लेडीज़ कम्पार्टमेंट तक पहुँच ही जाती हूँ. वहां पहुँच कर चैन की सांस लेती
हूँ भले ही बैठने की जगह न मिले. जनरल कम्पार्टमेंट पर अपना हक़ ही न रह गया हो
जैसे. ये सोच कर राहत मिलती है कि यहाँ तो अपना</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">आंटी-बेटी-सहेली
गणराज्य</span><span lang="EN-US">’</span> <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">है जहाँ किसी भी पुरुष (वांछनीय/ अवांछनीय) को घुसना मना है. आ भी गए
तो पेनाल्टी देनी पड़ेगी. वो सिर्फ बगल वाले कम्पार्टमेंट से ताक- झांक कर संतुष्ट
हो सकते है. मैंने लड़कों को न कभी अपना दुश्मन न समझा है न समझूँगी. लेडीज़
कम्पार्टमेंट निर्धारित होने से पहले भी मेट्रो में ख़ुद को काफ़ी सुरक्षित महसूस
करती थी. ऐसी कोई छेड़छाड़ की घटना भी मेरे साथ नहीं हुई. फिर ये लेडीज़
कम्पार्टमेंट का सुकून कैसा</span>?<o:p></o:p><u1:p></u1:p><u2:p></u2:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">आम तौर पर ये बहस महिला
सशक्तिकरण तक ही सीमित रह जाती है. अलग- थलग कम्पार्टमेंट दे देना महिलाओं के
कमजोर होने की पुष्टि करता है या नहीं</span>,<span style="font-family: "mangal" , serif;"> <span lang="HI">फिलहाल इस
बहस में नहीं पड़ना चाहती. इस मुद्दे का कहीं गहरा और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किये
जाने की जरूरत है.</span></span><u2:p></u2:p><u1:p></u1:p><o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">हम सब</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लड़के- लड़कियां</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">सार्वजनिक स्थानों पर
पर वैसा ही व्यवहार करते हैं जो समाज में हमारे</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">जेंडर</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">के अनुकूल माना जाता है. एक-दूसरे की उपस्थिति में लड़कियों की</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">फेमिनिनिटी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">और लड़कों की</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">मैस्कुलैनिटी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">अपने चरम पर होती है.
ये ऑटोमैटिक है. मैं लड़कों के सामने सीटियाँ नहीं बजाती</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">वो मेरे सामने गालियाँ नहीं देते. हम दोनों अपने-अपने नारीत्व और
मर्दानगी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं. हमें अलग-थलग करके हमारे समलिंगियों
के बीच रख दीजिये</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">हम तुरंत सारी अदाकारी छोड़कर
अपनी औकात पर वापस आ जाएंगे. हमें ऐसा ही सिखाया-पढ़ाया और प्रोग्राम किया जाता है.</span><u2:p></u2:p><u1:p></u1:p><o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">ऐसे में हम दोनों के बीच उपलब्ध
स्पेस का विभाजन एक ज़रूरत बन जाती है. पब्लिक स्पेस का ज्यादातर हिस्सा हमेशा से
ही पुरुषों का रहा है. महिलाओं का इस स्पेस में दखल कछ क्षेत्र और समय तक ही सीमित
है. आपको शराब और पान की दुकानों पर</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">ढाबों पर लड़कियां कम
दिखेंगीं</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">धुंधलके के बाद भी लड़कियों की
संख्या कम होने लगती है. औरतें इस व्यवस्था के साथ मोल-तोल कर के रनिवास</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">,<span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI">जनानखाने आदि से लेकर</span><span class="apple-converted-space"> </span>‘<span lang="HI">लेडीज़-संगीत</span>’<span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI">तक अपनी</span> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">टेरिटरी</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">निर्धारित करती आईं
हैं. जहाँ पुरुष- प्रवेश वर्जित न सही</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">सीमित ज़रूर रहा है.
मेट्रो सिटी में रहने वाली औरतों की परिस्थितियाँ अलग है. उन्हें अपनी पढ़ाई या
नौकरी के लिए रोज़-ब-रोज़ एकाध घंटा सफ़र करना होता है. पब्लिक प्लेस पर व्यवहार
और बॉडी- लैंग्वेज के अपने नियम-क़ानून हैं.</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">अच्छी लड़की</span>’ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">की तरह पेश आने के बंधन हैं जो मेट्रो के लेडीज़ कम्पार्टमेंट में
नहीं हैं. ऐसी परिस्थिति में शहरी औरतों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अपना कोना मिल
गया है. इसलिए यहाँ आकर हम चैन की सांस लेते हैं. </span><u2:p></u2:p><u1:p></u1:p><o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">अब सवाल ये है कि क्या ये अलगाव</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लिंगभेद और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या का स्थाई हल बन सकता
है</span>? <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">शायद नहीं. बल्कि ये
लड़के-लड़कियों को एक दूसरे से अलग मानने की प्रवृत्ति को बढ़ाता ही है. ये हमारी
उसी सोच का नतीजा है जो ये कहती है कि लड़की पब्लिक स्पेस में निकली तो छेड़ी ही
जायेगी और लड़का लड़की को देखेगा तो छेड़ेगा ही. समाधान तो इस अलगाव के ठीक उलट
है. लोगों को पब्लिक स्पेस में ज्यादा से ज्यादा लड़कियों की उपस्थिति का आदी
बनाना होगा. जिससे कि ना ही लोग एक ख़ास समय और परिधि के बाहर किसी लड़की को देखकर
उसके बारे में उलटी- सीधी धारणाएं ना बनाएं और ना ही ऐसी परिस्थिति में लड़कियां
खुद को असुरक्षित महसूस करें.</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span><u2:p></u2:p><u1:p></u1:p><o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लेकिन ये हल निकालना दिल्ली
मेट्रो की जिम्मेदारी नहीं है. समय</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">स्थान और संसाधनों का
लिंग आधारित विभाजन मेट्रो ने शुरू नहीं किया. ये तो हमारे समाज में हर जगह है
इसलिए मेट्रो में भी घुस आया है. उन्हें तो सिर्फ एक शॉर्ट-टर्म रणनीति विकसित
करनी थी</span>,<span style="font-family: "mangal" , serif;"> <span lang="HI">छेड़छाड़ की समस्याओं से निपटने की</span></span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">जो उन्होंने कर दी. उम्मीद करती हूँ कि ये व्यवस्था</span> <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">शॉर्ट-टर्म ही होगी.</span><span class="apple-converted-space"><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span></span><span style="font-family: "mangal" , serif;">‘<span lang="HI">जनरल</span>’<span class="apple-converted-space"> </span><span lang="HI">में महिलाएं भी शामिल हैं
और पब्लिक स्पेस में दिखने वाली लड़कियां पब्लिक सेक्चुअल प्रॉपर्टी नहीं हैं</span></span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">ऐसी सोच तो हमें मेट्रो से बाहर के समाज में विकसित करनी है. जहाँ इस
तरह के विभाजन के लिए कोई गार्ड या सीसीटीवी कैमरा मौजूद नहीं है. तब शायद ये
गुलाबी रंग के</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लेडीज़ ओनली</span>’<span style="font-family: "mangal" , serif;"> <span lang="HI">साइनबोर्ड्स
इतिहास होंगे.</span></span><u2:p></u2:p><u1:p></u1:p><o:p></o:p></div>
<div style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">तब तक के लिए मैंने भी इस
गणराज्य की नागरिकता ले ली है.</span><u2:p></u2:p><u1:p></u1:p><o:p></o:p><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="separator" style="margin-bottom: .0001pt; margin: 0cm;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=70934:2014-06-14-06-30-42&catid=21:samaj</div>
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