Thursday, August 15, 2013

निक़ाबी निन्जा और बुर्के की बहस


आपकी आधुनिकता का परिचय आपके ख़यालात देते हैं या कपड़े? जिस तालिबान को अमेरिकी सेना से डर नहीं लगता वो पंद्रह-एक साल की उस लड़की से क्यूँ घबराता है जिसके हाथों में किताब है? हमें देसी कपड़ों में सजे-धजे लोग पिछड़े क्यूँ नज़र आते हैं? औरतों पर कुछ ख़ास ड्रेस-कोड थोपना बुरा है लेकिन क्या जबरदस्ती उघड़वा देना इसका हल है?
और बुर्के की तो बात ही न कीजिये. हर कोई मुस्लिम औरतों को आधुनिकता की रोशनी दिखाना चाहता है. फ़्रांस की सरकार हो या पश्चिमी साम्राज्यवाद, नारीवादी हों या सेक्युलरिस्ट, सबको बुर्काधारिणियों पर तरस आता है. ऐसे में पाकिस्तान में बनी एक कार्टून फिल्म और वीडियो गेम बुर्का अवेंजर ने आधुनिकता बनाम बुर्के पर बहस छेड़ दी है. इसकी हिरोइन एक स्कूल टीचर 'जिया' है जो दिन में लड़कियों को पढ़ाती है और रात में बुर्के में अपनी पहचान छुपा कर कठमुल्लों से लड़ती है जो लड़कियों के स्कूल बंद कराने पर आमादा हैं. उसकी कलम सचमुच तलवार से भी ज्यादा ताकतवर है, कराटे-कला और किताबें उसका हथियार हैं. अपने लहराते बुर्के की मदद से पेड़ों-छतों पे छलांग लगाती है. उसकी तुलना मलाला से हो रही है जिन्होंने अपनी क़िताब और कलम के बल पर रूढ़िवादियों को कुछ ऐसे ही छकाया था. लोग हैरान भी हैं कि दमन का प्रतीक बुर्का किसी आधुनिक सुपर हिरोइन पर कैसे जंच सकता है?  
दरअसल, आधुनिकता की बात हम ऐसे करते हैं मानो वो कोई इकहरा चोला हो, कुछ ख़ास तरह की चाल- ढाल और कपड़े-व्यवहार अपना लिए और बस मॉडर्नहो गए. बात महज ऊपरी रंगत से कहीं गहरी है. मैं बुर्के की हिमायती नहीं हूँ. स्वेच्छा (?) से बुर्का अपनाने वाली कई महिलाओं का कहना है बुरका उन्हें सुरक्षा और आत्मविश्वास देता है. अपनी सुरक्षा के लिए महिलाओं को अपनी पहचान छुपाने के लिए मजबूर करने वाला समाज निश्चय ही आधुनिक नहीं है. आधुनिकीकरण, सशक्तीकरण, महिला स्वतन्त्रता, इन सबकी परत-दर-परतें हैं. सामाजिक मानदंडों को धता-बता कर अपनी मर्जी के कपड़े- व्यवहार- आदतें अपनाने वाली लड़कियां तो मॉडर्न हैं हीं, लेकिन सर ढककर लड़कियों की शिक्षा की हिमायत करने वाली मलाला उन बिकनीधारिणियों से कहीं ज्यादा आज़ादख़याल है जो दुनिया की नज़र में सुन्दर बने रहने के लिए बिना खाए अधमरी हो रहीं हैं. अगर किसी लड़की को बिना कठमुल्लों का शिकार बने शरीर दिखाने का अधिकार है तो उसे फैशन और आधुनिकता के मानदंडों की परवाह किये बिना अपना शरीर ढकने का भी उतना ही अधिकार होना चाहिए. इस बात का ध्यान रखना होगा कि आधुनिकता के नाम पे हम कहीं किसी ख़ास तरह की संस्कृति और वेश-भूषा को तो बढ़ावा नहीं दे रहे? परदे की जगह सेक्चुअल ओब्जेक्टीफिकेशनको बैठा कर हम कुछ नहीं पायेंगे. आधुनिकता का मतलब ऐसा समाज बनाने से है जहां औरतें अपनी मर्ज़ी से पढ़ और पहन सकें. 
मध्य-पूर्वी और इस्लामी देशों की औरतों की चिंता में दुबले होते हुए हम ये भूल जाते हैं कि असल विद्रोह उनके अन्दर से ही पैदा हो रहा है. दमित ही दमनकारियों के खिलाफ़ उठ खड़े होते हैं. मलाला वहीं पैदा होती है जहां उसे गोली मारने वाले हैं. अमेरिका इन देशों में जितनी भी दखलंदाज़ी करे, खुद फूटी क्रांती ही कोई स्थाई परिवर्तन ला पाती है. इसलिए इन औरतों को आधुनिकता की अपनी परिभाषा और मानक खुद गढ़ने दीजिये. अपने बुर्के-बंधन काटकर कर ख़ुद निकलने दीजिये.
इस कार्टून फिल्म को, बुर्के को युवतियों के बीच कूलका दर्जा दिलाने की साजिश बताने वाले ये भूल जाते हैं कि 'बुरका अवेंजर' उर्फ़ स्कूल टीचर जियाअपनी रोज़मर्रा की जिन्दगी में बुर्का नहीं पहनती. ऐसा वो सिर्फ गुंडों से लड़ते वक्त अपनी पहचान छुपाने के लिए करती है. काल्पनिक सुपरहीरो हमेशा से अपनी पहचान छुपाते रहे हैं. अपने देशकाल और सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तानी सुपरहिरोइन ने मास्क की जगह बुर्का इस्तेमाल कर लिया तो इसमें बुरा क्या है?
बरसों से डिज्नी लड़कियों को परियों और नाजुक राजकुमारियों की कहानी सुना रहा है, उन्हें सिंड्रेला और मरियल बार्बी जैसे फिगर पाने के सपने दिखा रहा है और दुनिया को बचाने की ज़िम्मेदारी बैटमैनऔर सुपरमैनने ले रखी है. ऐसे में उन्हें अगर किताब-क़लम के बल पर बाबा बन्दूकसे लोहा लेने वाली सुपरहिरोइन मिल गयी है तो अच्छा ही है ना? इंग्लिश वीडियो गेम्स में औरतें कटे- कुतरे कपड़ों में सिर्फ गेम का ग्लैमर बढाती हैं. जब पश्चिमी 'कैटवुमन' या 'वंडरवुमन' परदे पे आती भी हैं तो कटे-फटे और तंग रेक्सीन सूटों में जो उन्हें ताकतवर से ज्यादा उत्तेजक दिखाते हैं. ऐसे में अपनी निक़ाबी निन्जा को देखना अच्छा लगता है, बिना ये जाने की उसकी कमर कितनी पतली है और फिगर कितना संतुलित है!  

ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित  है- http://epaper.jansatta.com/151320/Jansatta.com/24-August-2013#page/6/1