Sunday, April 28, 2013

‘आंटी-बेटी-सहेली गणराज्य’ उर्फ़ दिल्ली मेट्रो का जनाना डब्बा

तारीख कुछ ठीक- ठीक याद नहींपर माहौल खूब याद है. रोज़ की तरह उस दिन भी मैं अपने नियत स्टेशन से नियत समय पर मेट्रो में चढ़ी. पर कुछ बदला- बदला लग रहा था. लड़के मुझे सीट ऑफर नहीं कर रहे थे (मैं इसकी उम्मीद भी नहीं करतीरोज़ की भागदौड़ में शिवलरसहो पाना न तो संभव है और न ही जरूरी.) कोई नाराज़ दिख रहा था तो कोई मूंछों- मूछों में मुस्कुरा  रहा था. सब थोड़े तने- तने बैठे थे. कुछ खुसुर- फुसुर भी कानों में पड़ रही थी.
अपना अलग कम्पार्टमेंट भी चाहिए और यहाँ भी सीट लेंगी.
गंतव्य तक पहुँचते- पहुँचते बात समझ आ गयी थी कि आज से गति की दिशा का पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित हो चुका है. बिना डिमांड के लेडीज़ कम्पार्टमेंट शुरू करने के लिए दिल्ली मेट्रो ने अपनी पीठ ठोंक ली थी.                      
अब तो इस पहले डिब्बे ने मेट्रो का समाज शास्त्र ही बदल दिया है. या यूँ कहिये कि हमें हमारे समाज का आइना दिखा दिया है. जगह- जगह ये तर्क सुनने को मिल जाता है- भई हम लोग नहीं जाते लेडीज़ मेंफिर ये लोग क्यूँ घुसी चली आती हैं हमारे जेंट्स कम्पार्टमेंट में?’ ये खीज सिर्फ मेट्रो की सीमित सीटों पर अधिकार जमाने की उठापटक नहीं है. अधिकतर जनता के मन में जनरल’ का मतलब जेंट्स’ और आम’ का मतलब आदमी’ ही है. उनकी ग़लती भी नहीं है. ये आम’ राय तो हमने बड़ी मेहनत से बनाई है. हिस्ट्री में सिर्फ हिज़- स्टोरी’ सुनाई हैमानव- निर्मित को मैन- मेड’ कहा है और कुर्सी सिर्फ चेयरमैन’ के लिए बनाई है.
लेकिन इन सब सिद्धांतवादी- आदर्शवादी बातों के बावजूद मेरी भी आदत बदल गयी है. अब तो  क़दम अपने- आप ही लेडीज़ कम्पार्टमेंट की तरफ़ बढ़ जाते हैं. जल्दी में कहीं और से चढ़ भी जाऊं तो भी मेट्रो के विशाल जन-समुद्र में तैरते- फ़िसलतेएक्सक्यूज- मी बोलते हुए लेडीज़ कम्पार्टमेंट तक पहुँच ही जाती हूँ. वहां पहुँच कर चैन की सांस लेती हूँ भले ही बैठने की जगह न मिले. जनरल कम्पार्टमेंट पर अपना हक़ ही न रह गया हो जैसे. ये सोच कर राहत मिलती है कि यहाँ तो अपना आंटी-बेटी-सहेली गणराज्य है जहाँ किसी भी पुरुष (वांछनीय/ अवांछनीय) को घुसना मना है. आ भी गए तो पेनाल्टी देनी पड़ेगी. वो सिर्फ बगल वाले कम्पार्टमेंट से ताक- झांक कर संतुष्ट हो सकते है. मैंने लड़कों को न कभी अपना दुश्मन न समझा है न समझूँगी. लेडीज़ कम्पार्टमेंट निर्धारित होने से पहले भी मेट्रो में ख़ुद को काफ़ी सुरक्षित महसूस करती थी. ऐसी कोई छेड़छाड़ की घटना भी मेरे साथ नहीं हुई. फिर ये लेडीज़ कम्पार्टमेंट का सुकून कैसा?
आम तौर पर ये बहस महिला सशक्तिकरण तक ही सीमित रह जाती है. अलग- थलग कम्पार्टमेंट दे देना महिलाओं के कमजोर होने की पुष्टि करता है या नहीं, फिलहाल इस बहस में नहीं पड़ना चाहती. इस मुद्दे का कहीं गहरा और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किये जाने की जरूरत है.
हम सबलड़के- लड़कियांसार्वजनिक स्थानों पर पर वैसा ही व्यवहार करते हैं जो समाज में हमारे जेंडर’ के अनुकूल माना जाता है. एक-दूसरे की उपस्थिति में लड़कियों की फेमिनिनिटी’ और लड़कों की मैस्कुलैनिटी’ अपने चरम पर होती है. ये ऑटोमैटिक है. मैं लड़कों के सामने सीटियाँ नहीं बजातीवो मेरे सामने गालियाँ नहीं देते. हम दोनों अपने-अपने नारीत्व और मर्दानगी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं. हमें अलग-थलग करके हमारे समलिंगियों के बीच रख दीजियेहम तुरंत सारी अदाकारी छोड़कर अपनी औकात पर वापस आ जाएंगे. हमें ऐसा ही सिखाया-पढ़ाया और प्रोग्राम किया जाता है.
ऐसे में हम दोनों के बीच उपलब्ध स्पेस का विभाजन एक ज़रूरत बन जाती है. पब्लिक स्पेस का ज्यादातर हिस्सा हमेशा से ही पुरुषों का रहा है. महिलाओं का इस स्पेस में दखल कछ क्षेत्र और समय तक ही सीमित है. आपको शराब और पान की दुकानों परढाबों पर लड़कियां कम दिखेंगींधुंधलके के बाद भी लड़कियों की संख्या कम होने लगती है. औरतें इस व्यवस्था के साथ मोल-तोल कर के रनिवास, जनानखाने आदि से लेकर लेडीज़-संगीत तक अपनी टेरिटरी’ निर्धारित करती आईं हैं. जहाँ पुरुष- प्रवेश वर्जित न सहीसीमित ज़रूर रहा है. मेट्रो सिटी में रहने वाली औरतों की परिस्थितियाँ अलग है. उन्हें अपनी पढ़ाई या नौकरी के लिए रोज़-ब-रोज़ एकाध घंटा सफ़र करना होता है. पब्लिक प्लेस पर व्यवहार और बॉडी- लैंग्वेज के अपने नियम-क़ानून हैं. अच्छी लड़की’ की तरह पेश आने के बंधन हैं जो मेट्रो के लेडीज़ कम्पार्टमेंट में नहीं हैं. ऐसी परिस्थिति में शहरी औरतों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अपना कोना मिल गया है. इसलिए यहाँ आकर हम चैन की सांस लेते हैं.  
अब सवाल ये है कि क्या ये अलगावलिंगभेद और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या का स्थाई हल बन सकता हैशायद नहीं. बल्कि ये लड़के-लड़कियों को एक दूसरे से अलग मानने की प्रवृत्ति को बढ़ाता ही है. ये हमारी उसी सोच का नतीजा है जो ये कहती है कि लड़की पब्लिक स्पेस में निकली तो छेड़ी ही जायेगी और लड़का लड़की को देखेगा तो छेड़ेगा ही. समाधान तो इस अलगाव के ठीक उलट है. लोगों को पब्लिक स्पेस में ज्यादा से ज्यादा लड़कियों की उपस्थिति का आदी बनाना होगा. जिससे कि ना ही लोग एक ख़ास समय और परिधि के बाहर किसी लड़की को देखकर उसके बारे में उलटी- सीधी धारणाएं ना बनाएं और ना ही ऐसी परिस्थिति में लड़कियां खुद को असुरक्षित महसूस करें.  
लेकिन ये हल निकालना दिल्ली मेट्रो की जिम्मेदारी नहीं है. समयस्थान और संसाधनों का लिंग आधारित विभाजन मेट्रो ने शुरू नहीं किया. ये तो हमारे समाज में हर जगह है इसलिए मेट्रो में भी घुस आया है. उन्हें तो सिर्फ एक शॉर्ट-टर्म रणनीति विकसित करनी थी, छेड़छाड़ की समस्याओं से निपटने कीजो उन्होंने कर दी. उम्मीद करती हूँ कि ये व्यवस्था शॉर्ट-टर्म ही होगी. जनरल में महिलाएं भी शामिल हैं और पब्लिक स्पेस में दिखने वाली लड़कियां पब्लिक सेक्चुअल प्रॉपर्टी नहीं हैंऐसी सोच तो हमें मेट्रो से बाहर के समाज में विकसित करनी है. जहाँ इस तरह के विभाजन के लिए कोई गार्ड या सीसीटीवी कैमरा मौजूद नहीं है. तब शायद ये गुलाबी रंग के लेडीज़ ओनली साइनबोर्ड्स इतिहास होंगे.
तब तक के लिए मैंने भी इस गणराज्य की नागरिकता ले ली है.

ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=70934:2014-06-14-06-30-42&catid=21:samaj

12 comments:

  1. बिल्कुल सही लाजवंती. आपके मन में नये तरह का नारीवाद पनप रहा है. जो न तो पुरुष के संरक्षण में पलनेवाला संरक्षणवादी नारीवाद है और न ही पुरुष की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ प्रतिक्रियावादी नारीवाद. आंतरिक मंथन जारी रहे, कौन जाने जगत का कुछ कल्याण हो जाए?

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    1. धन्यवाद संजय जी! ये कौन सा वाद है ये तो नहीं पता. लेकिन दो पंक्तियों में इतनी सटीक व्याख्या नहीं हो सकती थी इस लेख की. जारी रखने की पूरी कोशिश रहेगी.

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  2. पढ़ना शुरू किया तो लगा कि कहीं फिर से, अन्य स्त्री विषयक ब्लॉग के सदृश, घोर 'फेमिनिस्ट' विचारों को पढना न पढे । पर मैं भूल गयी थी की ऐसी विदूषी कुछ लिख रही हों तो स्त्री अतिवाद की समस्या हो ही नहीं सकती :) मैं तो नत-मस्तक हो गयी
    श्वेता !!!!

    अपने मत को ज़रा विस्तार से लिख रही हूँ । बोरीयत हो तो माफ़ करें :)

    ये अलगाव या भेद, समस्या को निष्कासित नहीं आच्छादित करते हैं । हम भूल जाते हैं कि छिछोरे लोग लेडीज़ कोच में प्रवेश नहीं पा सकते, पर स्त्री की अस्मिता में प्रवेश कर सकने का अधिकार वे अब भी समझते हैं । ज़रूरत उनकी इस अधिकार-परक सोच को बदलने की है ।

    फिर बात की जाए ऐसे नियमों को लाने की तो मेरे मतानुसार, हमें भेद भाव के लिए प्राधिकरण को नहीं जनता जनार्दन की मानसिकता को दोषी ठहराना चाहिए ।

    मेट्रो या अन्य प्राधिकरण द्वारा लाये गए ऐसे नियमों के विरोध में कुछ मॉस पूर्व एक 'फ़्लैश मॉब' का आयोजन किया गया था जिससे यह सन्देश पहुचने का प्रयास किया गया था कि महिलाओं के लिए कोच आरक्षण समाज में भेद उत्पन करेगा । मुझे भी बात तो सही लगी पर मेट्रो के विरुद्ध जाने की बात आज भी नहीं समझ पाई । कोई कदम न उठाया जाये, तो अधिकारी लापरवाह, यदि उठाया जाये तो ऐसे विरोध ! अच्छा लगा ये पढ़कर की आप ऐसे बेबुनियादी चिंतकों में से नहीं हैं।

    बिलकुल सही कहा आपने । मानसिकता का बदलाव ट्रेन की बोगी आरक्षित करके नहीं हो सकता । समाधान तो इसके बिलकुल विपरीत ही है - एक मिश्रित समाज में, जहां लिंग भेद एक दूरस्थ कल्पना या डिस्टेंट मेमोरी बने । पर हाँ, यदि मेट्रो या कोई भी अन्य प्राधिकरण ऐसा कोई कदम उठता है तो नागरिक होने के नाते हमें भी समझाना चाहिए की ये उनका कर्त्तव्य है । समाज हमारे ही बदलने से बदलेगा पर अधिकारियों को यदि कोई कदम उठाना है तो वह उसी 'अपरिवर्तित' दूषित समाज में, उसी दूषित समाज के अनुपात में उठाना होगा- छिछोरे यदि बाज़ नहीं आते तो उनके लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान अवश्य लाया जाए पर जब तक वह नहीं हो रहा कम से कम एक अस्थायी सुरक्षित स्थान हमें आने जाने का आराम तो दे ही रहा है न?
    पुन:, मैं स्पष्ट कर दूँ की मेरा मत ये बिलकुल भी नहीं है कि स्त्रियों की सुरक्षा उन्हें एक सीमा में बाँध कर आयेगी। बल्कि उन्हें तो समाज में पूर्ण स्वच्छन्द होना चाहिए । पर बात जब आधिकारिक नियमों की होती है तो हमें ये नहीं भूलना चाहिए की नियम और कानून समाज को परिवर्तित करने के साथ समाज को सुरक्षित करने का प्रयास भी करते हैं ।

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    1. धन्यवाद शगुन! लम्बे फीडबैक का मैं हमेशा स्वागत करती हूँ. आपने ठीक कहा, नारीवाद में अतिवाद एक समस्या बन गई है. और आजकल तो हर कोई खुद को नारीवादी कहलाने की होड़ में है. ये सोच विकसित करनी होगी कि नारी भी नागरिक है और ये बिना उन्हें विशेष दर्जा दिए भी संभव है.

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  3. sorry for commenting in English.....its(this post's) essence is something which should be understood by each feminist organisation.Sorry to say but they need it the most,in the name of reforms n revolution and action road map their attempts have only and only distanced women n men while the real need is to allow some common space to both so that each could understand other's mind and thoughts about each other(while d later may be influenced due to imbibed notions of masculinity n femininity),since i believe that men n women are companions to each other therefore i see these organisations in some bad light.
    Also shweta m glad to confirm that u r not among those who fight without a cause and reason,,,gud work n keep going!!

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    1. Thank you Nitish!Your comment and feedback means a lot to me. You are right, sexual segregation can never be the solution of any problem.

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  4. Filhal to itna hi kahunga...ki...Lajwanti ki tedhi lakiren to kafi sidhi jaa rahi hain. main dekh sakta hu ki jis zuban ki main baat kahi thi aapse, uspar aap amal me lane lagi...accha laga padhkar...asha karta hu ki aage bhi aise avasar milte rahenge...angrezi me post karne ke liye kshmaprathi...

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    1. धन्यवाद संतोष! आपकी सलाह सच में बड़े काम आई.

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  5. पहले तो आपके इस लेख के लिए बहुत बहुत बधाईयाँ देना चाहूँगा । वर्तमान समय में महिला शशक्तिकरण के नाम पर हम, हमारा समाज , हमारी व्यवस्था कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारियों से पीछे भाग रहें हैं । आज के समय में नारी और पुरुष का भेद और ज्यादा ही बढ़ गया है । किसी भी नारीवादी ने ये तो नहीं सोचा होगा कि महिला सुरक्षा के नाम पर आप बस उन्हें विशेष स्थान दे दीजिये लेकिन अज हम यही कर रहे हैं । समाज में जरुरत इस बात की है कि लड़के और लड़कियों के बीच कम्युनिकेशन ज्यादा से ज्यादा हो लेकिन इसका उल्टा ही हो रहा है । एक पुरुष पब्लिक प्लेस में गली दे सकता है लेकिन स्त्री को नहीं , अगर देती भी है तो कई नियम कानून लागुन हो जायेंगे । ऐसा भी हो सकता है की दोनों सामान्य बातचीत में अप्सब्द का इस्तेमाल कर सकें लेकिन कैसे करें हम तो एक दूसरे से लगातार दूर होते जा रहें हैं । अब तो हम हर जगह में लिंग भेद बढ़ातें जा रहें हैं । सोच को बदलना है तो दोनों को एक दुसरे से ज्यादा से ज्यादा संपर्क साधना होगा ना कि दूर होना ।

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  6. धन्यवाद शुभम!

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  7. I agree with the contents of this article...very well written. But still the questions remain unanswered that how to bring the fundamental changes in the thoughts or mind set of people.

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    1. Thanks Wageesh!
      I dont think it is possible to suggest a single point solution of a widespread problem like gender discrimination. My point here is, it's rather easy to give women their separate spaces but what's more difficult is to integrate them into public places as much as men. Ladies compartment can be a good strategy but it is not out ultimate goal. And it's not the responsibility of Delhi Metro to come up with solution. They have done their bit by giving us a separate ladies compartment.

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