Monday, October 14, 2013

क्यूंकि हमें स्त्रियों की ज्यादा चिंता है!



जनसत्ता में यह लेख
इमेज- जनसत्ता ई पेपर से साभार
पिछले दिनों जनसत्ता में वरिष्ठ लेखक-पत्रकार राजकिशोर जी का लेख प्रकाशित हुआ. लेख वैसे तो सोशल मीडिया के बारे में है जिस पर बहुत कुछ लिखने और समझने को है, पर ना जाने कैसे ये सिर्फ स्त्रियों पर केन्द्रित होकर रह गया.  इसमें उन्होंने ‘कर सकते हैं’ में ‘कर सकती हैं’ को शामिल बताया है और ‘स्त्री’ में ‘स्त्रीवादियों’ को. और पूरा लेख इसी अतार्किक अवधारणा का प्रतिबिम्ब है. इस लेख से मुझे कुछ सैद्धांतिक असहमतियां हैं और कुछ सवाल भी, जिन्हें यहाँ लिख रहीं हूँ-
पहला सवाल तो ये कि अगर समाज में ही ‘फेस’ को ‘बुक’ से ज्यादा महत्त्व मिलता है तो ‘फेसबुक’ उसे उलट कैसे देगा, जैसा कि राजकिशोर जी कि उम्मीद है? और दूसरा यह कि, तकनीक का सदुपयोग करने और अपनी बौद्धिकता साबित करने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों पर ही क्यूँ हो?
तकनीक हो या तंबाकू, मोबाइल फ़ोन हो या फेसबुक. इनके उपयोग- दुरुपयोग की चिंता अगर हमें है तो लड़कियों के लिए ये चिंता हमारी दुगुनी हो जाती है. कोई भी नयी वस्तु या परम्परा समाज में स्त्रियों के लिए देर से ही स्वीकृत होती है. हमारे छोटे शहरों में शायद ही लड़के अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में भारतीय वेशभूषा में दिखें लेकिन लड़की का जींस पहन लेना उसे ‘बुरी’ लड़कियों की श्रेणी में शामिल करने के लिए काफी है. नयी बातों, विचारों और तकनीक के प्रति हमारी पहली  स्वाभाविक प्रतिक्रया अक्सर शंका और प्रतिरोध की ही होती है. लेकिन लड़कियों का जीवन और शरीर हमारे रीति-रिवाजों के रक्षण-संरक्षण का सबसे उपयुक्त स्थल है. इसलिए किसी भी बदलाव का उन तक पहुँचने का रास्ता ज्यादा दुर्गम है. यही बात नयी तकनीकों पर भी लागू होती है.
पहले तो हम ये समझते हैं कि किसी तकनीक को इस्तेमाल करने की लियाक़त औरतों में है ही नहीं. औरतों को बुरा ड्राइवर और खराब टेक्नीशियन बताने वाले चुटकुलों की हमारे पास भरमार है. अगर कभी ये मशीनें उनके हाथ लग भी गयीं तो उनकी हर हरकत को सूक्ष्मदर्शी से देखा जाएगा. किसी आदमी के द्वारा कार दुर्घटना हो जाने पर आप ये नहीं कहेंगे कि आदमी बुरे ड्राइवर होते हैं. लेकिन कोई कार चलाती महिला अगर गलत दिशा में मोड़ ले तो हम सब यही कहेंगे कि ‘औरतें ऐसे ही चलातीं हैं.” खाप पंचायत आये दिन लड़कियों के मोबाइल रखने पर प्रतिबन्ध लगाने जैसे ऊट-पटांग फरमान जारी करती रहती है. सवाल ये है कि अगर लडकियां और लड़के एक दूसरे से बात करके मोबाइल का दुरुपयोग कर रहें हैं तो प्रतिबन्ध एकतरफा क्यूँ हो?
भारत के आम लोगों की जिन्दगी में सोशल मीडिया की दस्तक ज्यादा पुरानी नहीं है. इसकी उपादेयता और नुकसान के बहुत से आयामों पर बहस होनी अभी बाकी है. औरतों की श्रृंगारप्रियता और फेसबुक पर इसके दिखावे को लेकर राजकिशोर जी ने सवाल तो उठा दिया पर उसे सामाजिक सन्दर्भ में देखने की कोशिश नहीं की. हम सब को समाज से लिखी- लिखाई पटकथा मिलती है. उनसे अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रशंसा मिलती है और वैसा न किया तो सज़ा भी. लड़कियां लड़कों के मुक़ाबले आसानी से रो देती हैं क्यूंकि उनका ऐसा करना सामान्य माना जाएगा जबकि लड़के ऐसा नहीं कर सकते क्यूंकि उन्हें पता है कि इससे उनका मजाक बनेगा. यही बात फेसबुक पर अपनी अलग-अलग पोज़ में फ़ोटो डालने पर भी लागू होती है. सोशल मीडिया में हर व्यक्ति अपनी सामाजिक समझ और ट्रेनिंग के साथ आता है. जो जैसा समाज में है कमोबेश वैसा ही अपने फेसबुक या ट्विटर खातों पर भी व्यवहार करेगा. पहले जो लोग आपको भगवान को न मानने पर पाप लगने से डराते थे वो ही अब फेसबुक पर भगवान की फोटो साझा या लाइक न करने पर कुछ बुरा होने की वर्चुअल धमकियां देते दिख जाते हैं. ऐसे में लड़के और लड़कियों के व्यवहार में भी विभिन्नता दिखे तो हैरानी की बात नहीं है. दोनों का समाजीकरण और ट्रेनिंग समाज में अलग तरह से होती है. लेकिन एक को दूसरे से बेहतर क्यूं माना जाय? लड़कियों पर ये साबित करने का अतिरिक्त भार क्यूँ हो कि वो तकनीक का सदुपयोग ही करेंगी? जितनी विभिन्नता लड़के और लड़कियों में है, उससे कहीं ज्यादा अंतर लड़की-लड़कियों और लड़कों-लड़कों में आपस में है. न हर, लड़की हर घंटे अपनी फोटो बदलने में मशगूल है और न ही हर लड़का बौद्धिक बहस करके सोशल मीडिया के ज़रिये देश का उत्थान कर रहा है. दरअसल, कोई भी व्यक्ति हर वक्त तार्किक नहीं होता. वैसे भी फ़ोटो बदलने की दर का किसी के बुद्धिमान या बुद्धिहीन होने से क्या लेना-देना है? समाज पूरी तरह से नहीं बदला है इसलिए सारी स्त्रियाँ भी नहीं बदलीं है. ज्यादा नहीं तो रविवार को अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन पलट डालिए, कितने लोग अपने पुत्र के लिए बौद्धिक कन्या की मांग करते हैं? लड़कियों की ख़ूबसूरती को हमेशा से समाज में उनके अन्य गुणों से ज्यादा महत्त्व दिया जाता रहा है, सोशल मीडिया उसका एक प्रतिबिम्ब मात्र है. दरअसल राजकिशोर जी ने स्त्री और स्त्रीवादी को एक ही शब्द मान लिया है और इसी वजह से ऐसी अतार्किक बात लिखी है. न हर एक स्त्री, स्त्रीवादी है और न ही स्त्रीवाद की समर्थक सिर्फ स्त्रियाँ हैं.
देश के अधिकाँश हिस्सों में सोशल मीडिया का पहुँचना अभी बाकी है. लेकिन कम से कम जिन लोगों तक इसकी पहुँच है, अभिव्यक्ति के माध्यमों में शायद सोशल मीडिया ही एक ऐसा है जहाँ अपनी बात कहने-लिखने के लिए आपको किसी का मुंह नहीं ताकना है. प्रकाशित या लोकप्रिय होने की चिंता नहीं करनी है. ऐसे में इसे बस एक माध्यम ही रहने दिया जाय तो अच्छा है. क्योंकि बौद्धिक होने या दिखने की अनिवार्यता के साथ ही उसमें एलीटिस्ट (उच्चवर्गवादी) हो जाने का ख़तरा है. और साथ ही एक सवाल भी कि, बौद्धिक होने की कसौटी क्या है और इसे निर्धारित कौन करेगा?

वैसे भी, अगर हम शुरू से ही लड़कियों को हर लिहाज से कमतर समझते आये हैं तो एक भी ऐसा उदाहरण हमारी विचारधारा की पुष्टि करने के लिए काफ़ी है और उसके विरोध में उपस्थित सैकड़ों प्रमाण भी हमारे लिए अदृश्य ही रहेंगे. अपनी फ़ोटो बदलते रहने वाली लड़कियां तो दिखेंगी लेकिन हनी सिंह के वीडियो और बेकार के चुटकुलों को शेयर करने वाले लड़के नहीं दिखेंगे. क्यूंकि अंततः हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं!

यह लेख जनसत्ता के सम्पादकीय में प्रकाशित है- 
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/53607-2013-10-28-04-14-19)