Sunday, June 30, 2013

चम्पकवन, ट्रेन और बारामूडा ट्रायेंगल


उन दोनों को ट्रेन में खिड़की वाली सीट पर बैठना हमेशा से पसंद था. उल्टी दिशा में भागते खेत-पेड़ जब चलती रेलगाड़ी के पेट में समाते जाते तो तेज हवा में आँखे मिचमिचाते बाहर देखते लाजवंती और वीर किसी और ही दुनिया में चले जाते थे. बादलों में आकार बन जाते, आस-पास के लोग और आवाजें खो जातीं और वो छूने की दुनिया छोड़कर सोचने की दुनिया में चले जाते. हर दो स्टेशन के बीच फैले खेत-जंगल देखकर वो सारी कहानियाँ सजीव हो उठतीं जिनमें बच्चे अपनी नानी से मिलने जंगल पार करके जाते थे और भालू या शेर को चकमा देकर नानी के घर ठाठ से खीर खाते थे. चम्पकवन के राजा शेर सिंह ने इन्हीं जंगलों में अपना दरबार लगाया होगा. भालू का नाम भोला, बाघ का नाम बघीरा और हर गिलहरी चीकू होती होगी. खेत में पंछी भगाते किसानों को देखकर उन्हें रंज होता कि वो भी इनके जैसी ही झोपड़ियों में क्यों नहीं रहते. ज्य़ादा दिल दरिया हो रहा हो तो खिड़की के पास बैठने का समय आधा- आधा बाँटा भी जा सकता था.
लेकिन आज की ट्रेन का सफ़र कुछ अलग है. जिस शहर जाना है वो उनके सपनों के आकार का कटा-बुना है. वहां पैकेट वाला दूध हर गली- दूकान पर मिलता है और पॉपकॉर्न बहुत महँगा है. चलते वक्त किसी लाजवंती के घरवालों के कान में मंतर फूंक दिया था कि हॉस्टल का माहौल लड़कियों को बिगाड़ देता है, वहां हर तरह की लड़कियां हर तरह की बातें करतीं हैं. वीर के घर छोड़ते वक्त उसके घरवालों ने उसे तिलक किया, नज़र उतारी कि वो इंजीनियर बन के ही लौटे.
ट्रेन के बाथरूम अच्छे तो कभी भी नहीं लगते पर उस दिन और भी घिनौने लगे. उससे पहले उनकी ऊंचाई कम थी और वो हिलते बाथरूमों में सधे हाथों से जाने किन इरादों से लिखे वैसे वाले वाक्य नहीं पढ़ सकते थे. वैसे वाले वाक्य जो सबको पता है वहां लिखे मिलेंगे लेकिन जिसके बारे में कोई किसी को सावधान नहीं करता, जिसका दरियादिल पेंटर कभी अपने काम का क्रेडिट नहीं लेता, जो पढ़कर आप अपने कपड़े वापस चढ़ाते हैं, हाथ धोकर अपनी सीट पर वापस आकर सह-सीट-वासी से देश की गंभीर समस्याओं के बारे में बात चालू कर देते हैं. लेकिन अब वैसा वाला सचित्र वर्णन उनकी बढ़ती नज़र के दायरे में आने लग गया था. उस पर लिखा था- ‘देख क्या रही है, तू भी करवायेगी क्या?’ जो करवाना था उसका चित्र भी खुरच रखा था. ऐसा लगा कि ये उनकी ज़िन्दगी का सबसे बदसूरत और डरावना चित्र है. उस ट्रेन पे ऐसे चित्रों के रचयिता भी थे और उनके पहले परिचय को ऐसे चित्रों के सहारे छोड़ देने वाले भी. बुराइयों के साथ-साथ नैतिक शास्त्र की किताबों ने भी हम सबको घुस-घुस कर मारा है. स्त्री-पुरुष संबंधों का सौन्दर्यबोध ताउम्र गड़बड़ाया ही रहेगा अब.
ये ट्रेन कभी वापस नहीं लौटती थी. लाजवंती को सीधे उस हॉस्टल उतारा था जिसका नाम उसकी वार्डन के फ़ेवरेट टी वी सीरियल के नाम पर ‘अपराजिता’ था और वार्डन का नाम डॉ. (ब्रैकेट में मिसेज़) सुशीला शर्मा था. यहां की लड़कियां हर रात खाने के ‘वक्त कसौटी जिन्दगी की’ देखती थीं. प्रेरणा के साथ आंसू बहाती, अनुराग बासु से उसकी शादी करवाने के लिए मन्नतें मांगतीं थीं. वो कभी वो नहीं देखतीं थीं जो वीर के हॉस्टल के लड़के देखते थे क्योंकि वैसी फ़िल्में देखने वाली लड़की से वो लड़के कभी शादी नहीं करेंगे. और इन लड़कियों को उन लड़कों के सपने देखने थे, उनसे अपनी आंख का काँटा निकलवाना था और उन्हें ये बताना था कि कल के एपिसोड में जब उन्होंने प्रेरणा को अनुराग बासु के साथ बारिश में डांस करते देखा तो वो समझ गयीं कि वो अच्छी लड़की नहीं है. इन लड़कियों के कुर्तों में जेब नहीं हुआ करती थी और वो कोका-कोला हमेशा स्ट्रॉ से पीती थीं. ये लोग बस दो शेड गोरा करने वाली क्रीम लगा कर क्रिकेट-कमेंटेटर, सिंगर, एयर–होस्टेस कुछ भी बन सकतीं थीं.   
थोड़ा सहेलीपना जम जाने पर सारी लड़कियां रात के खाने के बाद जाली-ग्रिल लगी खिड़कियों से बाहर ताकते बतियाने लगीं थीं. ये वक्त बड़ा खलबली मचा देता था. पास के चराहे पर ट्रैफिक बढ़ जाता, अंडे वाले के स्टाल की बिक्री बढ़ जाती, गले में फटे बांस को पनाह देने वाले भी तानसेन हो जाते, सीटियाँ मारने के गुण की कीमत बढ़ जाती, किसी को अपनी आँख- गर्दन की तकलीफ़ याद नहीं रह जाती और लुंगी वाले अंकल की खुजली बेतहाशा बढ़ जाती थी. सामने के ब्वायज हॉस्टल से लेज़र टॉर्च की लाइटें लड़कियों पर इधर-उधर पड़ने लगतीं. उनमें से एक दबंग टाईप लड़की का दावा था कि अगर हम सड़क पर इनके सामने जाकर खड़े हो जाएँ तो ये लोग पहचान नहीं पायेंगे कि ये वही वाली है जिसे बालकनी में देखने के चक्कर में जनाब ने सर उचकाया था और अपना संतुलन खो बैठे थे. फिलहाल इस दावे को टेस्ट करने जितनी आज़ादी नहीं थी और गिरने वाले, लड़की की आउटलाइन देखकर ही एक्सीडेंट का ख़तरा मोल लेने को तैयार थे. रात की ड्यूटी वाला वाचमैन झपकी-रहित रात बिताने पर मजबूर था. ये वही रात थी जब वीर की झिझक खोली जा रही थी और उसे अजीब आकृतियों वाली लेज़र लाईट से सामने वाले हॉस्टल की लड़कियों पर निशाना साधने को कहा जा रहा था. उसके रूम- मेट ने कुछ ख़ास अंगों के ज्यादा प्वाइंट्स निर्धारित कर रखे थे.
वीर की ट्रेन ने उसे ‘दास- हॉस्टल’ ले जा पटका था. जिसका नाम उस हॉस्टल के फंडदाता के नाम पे रखा गया था. वो अपनी टीचरी के वेतन का एक रुपया रख के बाकी हॉस्टल बनवाने के लिए दान कर देते थे. ‘एक रुपया भी काहे लेता था बे?’... ये था वीर का रूम-मेट जो भदोही के पास के किसी गाँव का था और तीन साल से इंजीनियरिंग एंट्रेंस परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. गाँव में सब यही जानते थे कि वो इंजीनियरिंग पढ़ रहा है. ऐसी अफवाहों के सहारे दहेज की संभावना दूनी- चौगुनी करने की गणित तो उसके इंजीनयरिंग बेपढ़े घरवालों को भी आती थी. वीर को वार्डन के साथ आता देखकर उसने हाथ में ली हुई क़िताब झट से तकिये के नीचे छुपा दी थी. वार्डन ने उससे आके पूछा कि उसकी पढ़ाई कैसी चल रही है. उसने जवाब दिया कि वो इस साल पूरी जान लगा देगा और आई. आई. टी. निकाल कर ही रहेगा.
उस हॉस्टल में एक और संत थे जिनका दावा था कि वो लड़की का फिगर देखकर उसका चरित्र बता सकते थे और उनका अंदाजा सौ में से निन्यान्बे टाइम सही निकलता था. इन्हीं सबों के किसी पूर्वज ने ही बारामूडा ट्रायेंगल नाम दिया था गर्ल्स हॉस्टल को, कि जो एक बार उधर ताका वो फंसा तो बस फंसा. ये लड़के अपना बटुआ पैंट की पीछे वाली जेब में रखते, थे जिसे बिल देने के लिए निकालते वक्त आगे झुकना पड़ता था. ये लोग कभी- कभी वैसी वाली फ़िल्में छोड़कर टी. वी. भी देख लेते थे. एक गाने का वीडियो चल रहा है जिसमें लड़का अपनी छोटे कपड़ों वाली शहरी गर्लफ्रेंड को लेकर गाँव आया है जहाँ उसकी घरेलू मंगेतर उसका पहले से ही इंतज़ार कर रही है. दोनों में उस लड़के को पाने के लिए झगड़ा होता है और अंततः गाँव की सीधी- सादी लड़की जीत जाती है.
लाजवंती और वीर की मुलाक़ात अभी भी हो ही जाती है. लेकिन अब वो पहले की तरह एक दूसरे से ये नहीं पूछते कि शाम को खेलने आना है या नहीं. दोनों एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेते हैं पर ना तो लाजवंती वीर को बताती है कि सुबह पेपरवाला उसके बगल से कानों में क्या बोलता हुआ निकलता है और ना ही ये कि रात को वो लुंगी वाले अंकल जी उसके हॉस्टल की बालकनी के सामने कुछ करते नज़र आते हैं और बारामूडा ट्रायेंगल के पास होकर भी उनका निशाना कभी नहीं चूकता. वीर भी उसे ये नहीं बताता कि अपनी झिझक खोलने के लिए वो क्या-क्या देख पढ़ रहा है और सब लड़कों के साथ वो भी हँसता है जब उस लुंगी वाले के आते ही लड़कियां अन्दर भागने लगतीं हैं.
दोनों के बीच एक दीवार है जो प्यार की संभावनाओं, बड़े-बूढों की सीखों, अफ़वाहों- उठती भौहों- इशारों और मोहनीश बहल के फेमस वाले डायलॉग की बनी है. एक दीवार जो उम्रो-उम्र से इसी उम्र के आस-पास आ खड़ी होती है. एक दीवार जिस पर चढ़ कर उनकी पुरानी ‘बच्चे-दोस्त’ वाली दोस्ती झाँकने लगती है; जब मासी की सिंगापुर से भेजी टॉफियाँ उनका सबसे कीमती खज़ाना थी और नोंक बदलने वाली पेंसिल दुनिया का सबसे महान आविष्कार; और दोनों उदास हो जाते हैं.
फिलहाल ‘अपराजिता’ की वार्डन डॉ. (ब्रैकेट में मिसेज़) सुशीला शर्मा का सख्त आदेश है कि लड़कियों को बालकनी पे खड़े होना ही है तो वहाँ थोड़े- बहुत कपड़े डाल दें और बालकनी की लाईट हमेशा बंद रहनी चाहिए. नीचे एक नया ऑटो वाला ‘दिल तो पागल है’ के गानों की तर्ज पर सीटियाँ बजाये जा रहा है......

(इससे पहले- 
छठवीं क्लास के सेक्शन ए से लाजवंती और सेक्शन बी से वीर

Sunday, June 16, 2013

पुरुष होने के लिए.....


जेंडर स्टडीज़ की क्लास का पहला दिन था. जैसा कि होता आया है लड़के गिने- चुने ही थे. सबसे पूछा गया कि आपने ये कोर्स क्यों लिया? लड़कियां बढ़- चढ़ कर जवाब दे रही थीं. किसी की रूचि अकादमिक थी तो कोई अपनी व्यक्तिगत समस्याएं गिना रही था. लड़कों की बारी आई तो ज्यादातर का यही जवाब था- ‘मैं जानना चाहता हूँ कि हमारे देश में लड़कियों की स्थिति इतनी बुरी क्यूं है?’ ये भावना क़ाबिल-ए-तारीफ़ है लेकिन एक सवाल भी उठाती है- क्या जेंडर शब्द सिर्फ लड़कियों के लिए बना है? क्या लड़के कभी ये महसूस करते भी हैं कि जेंडर उनकी जिन्दगी के हर क्षेत्र में घुसपैठिया है? हर देश- राज्य, हर यूनिवर्सिटी में जेंडर से सम्बंधित विषयों में लड़कों की संख्या इनी- गिनी ही है. कुछ हद तक ये समझा जा सकता है कि अमेरिकी विश्विद्यालयों के अमेरिकन- अफ्रीकन अध्ययन विभागों में अश्वेत लोगों की संख्या ज्यादा क्यूँ है या फिर अपने देश में ज़ामिया यूनिवर्सिटी का जो नार्थ- ईस्ट रिसर्च सेंटर है जहां ज्यादातर प्रोफ़ेसर- शोधकर्ता देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों से ही क्यूं हैं. कभी-कभी किसी क्षेत्र, नस्ल या मुद्दे से आपकी क़रीबी आपकी अकादमिक रूचि भी बन जाती है. लेकिन जेंडर की घुसपैठ तो सिर्फ लड़कियों की जिन्दगी तक ही सीमित नहीं फिर जेंडर स्टडीज़ होम साइंस की तरह ही लड़कियों का विषय कैसे बन गया? क्या लैंगिक असमानता की वजह से लड़के कोई भेद- भाव महसूस करते हैं? लेकिन उससे भी पहले एक सवाल- क्या लैंगिक असमानता लड़कों पर भी कोई प्रभाव डालती है? 
हर उस औरत के लिए जो घर के काम- काज करने पर मजबूर है, एक आदमी है जिस पर घर भर के लिए कमाने और स्थाई नौकरी पाने का दबाव है. हर ‘अबला’ जो अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकती उसकी रक्षा के लिए एक लड़के को ‘मर्द’ बनना है. हमारी फ़िल्में, शेविंग क्रीम और चड्ढी- बनियान के ऐड सिर्फ लड़कियों की ख़ूबसूरती ही नहीं, मर्द की ‘मर्दानगी’ के भी मानक गढ़ते रहें हैं. हिरोइन किसी भी कोने-गढ़े में सौ- पचास गुंडों से घिर कर मदद के लिए पुकारे, हीरो को आना ही है और सारे गुंडों को अकेले हराना ही है. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में एक सीन है, गोलाबारी हो चुकी है और खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में एक मर्द कहता है- ‘लेडीज़ लोग अन्दर जाइए, चलिए.’ ये एक फ़िल्म की नहीं पूरे समाज की कहानी है. पुरुष को चाहे-अनचाहे माँ, बहनों का रक्षक, घर का शासक- अनुशासक बनना ही है. प्यार में पहल उन्हें ही करनी है. लड़की के हँसी- इशारों को समझने में देर नहीं करनी है. डेट पर गए तो लडकी के लिए दरवाज़ा खोलना है,  कुर्सी खींचनी है और बिल न देने का तो कोई सवाल ही नहीं है.  लिंगभेद से उपजे बंटवारे की सबसे ऊंची पायदानों पर ज्यादातर पुरुष हैं, लेकिन सबसे निचली पायदान पर भी वो ही हैं. डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक का नाम लेते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले पुरुष की छवि कौंधती है लेकिन चोर, लुटेरे और सटोरिये जैसे शब्द भी पुरुषों के लिए ही बने लगते हैं. हर कोई मर्द के बजाय महिलाओं पर ज्यादा जल्दी भरोसा कर लेता है और उनकी मदद के लिए झट से तैयार हो जाता है. सबसे ख़तरनाक कामों के लिए भी हम पुरुषों को ही आगे करते हैं. रात- बेरात बिजली के टूटे तारों की मरम्मत उन्हें ही करनी है, युद्ध पर भी उन्हें ही जाना है. आकड़ों की मानें तो ‘ऑन ड्यूटी डेथ’ में पुरुषों की संख्या महिलाओं से कहीं अधिक है. 
हरेक सभ्यता ने अपने विकास के दौरान स्त्री और पुरुष दोनों का इस्तेमाल किया है. अब सवाल ये है कि सिर्फ लड़कियां ही अपने जीवन में इस शोषण की मौजूदगी क्यूँ महसूस करतीं हैं, लड़कों को ये दबाव क्यों नहीं पता चलता? इसकी वजह ये है कि मर्दानगी से जुड़ी हर एक चीज़ का स्थान समाज में ‘नारीत्व’ से जुड़ी हर एक चीज़ से ऊंचा है. घर में ‘ब्रेडविनर’ का दर्जा ‘हाऊसवाइफ’ से अव्वल है. आक्रामक होना बहादुरी है और रोना कमज़ोरी है. युद्ध में खून बहाना बहादुरी है और मासिक चक्र में खून बहना अशुद्धी और कमज़ोरी की निशानी है. लड़की का कमाना, मर्दाने कपड़े पहनना और बाहर के काम करना बहादुरी है लेकिन लड़के के लिए लड़कियों वाले काम करना अपना मज़ाक बनवाना है. कभी सोच कर देखिये कि हिजड़े हमेशा औरतों जैसे ही कपड़े क्यूं पहनते हैं? दरअसल इस विभाजन में लड़का- लड़की विपरीत होकर एक दूसरे के आमने सामने नहीं ऊपर-नीचे का दर्जा पा चुके है. एक फेमिनिस्ट लेखक ने कहीं कहा था कि- ‘बेटी को तो कोई भी बेटे की तरह पाल सकता है लेकिन अपने बेटे को बेटी की तरह पालने के लिए हिम्मत चाहिए.’ मर्दानगी और इससे जुड़े गुण समाज के लिए मानक (स्टैण्डर्ड) हैं बाकी सब कमतर है. इसलिए बेटे को बेटी जैसा सम्वेदनशील नहीं बनाया जा सकता. हर क्षेत्र के प्रशंसित और सफल लोगों में, घर में ज्यादा खाना पाने वालों में, बहन के मुकाबले पढ़ाई के लिए ज्यादा बजट पाने वालों में, पुरुष जहाँ देखते हैं वहां वो ही वो हैं. इसलिए ये असमानता उन्हें नहीं कोंचती. ऐसा लगता है कि जेंडर ने पुरुषों का फ़ायदा ही फ़ायदा किया है और लिंगभेद मिट जाने पर उनका बड़ा नुकसान हो जाएगा. ये सच है कि रेप, दहेज और घरेलू हिंसा के मामलों की ज्यादातर (हमेशा नहीं) शिकार औरतें ही है. लेकिन कमाऊ पूत होने का दबाव भी ‘सीधी-सादी घरेलू लड़की’ की कसौटी जितना ही मुश्किल है. अब तक नारीवादी आन्दोलनों को ‘मर्दानगी’ के लिए ख़तरा ही समझा गया है. लेकिन लिंग-भेद हटाना सिर्फ लड़कियों के नहीं पूरे समाज के हित में है और इसके साथ पुरुषों को जोड़ने की ज़रूरत है. अगर ये सोच विकसित करने में सफल रहे तो लैंगिक समानता की राह कहीं ज्यादा आसान होगी. 


(ये लेख, जनसत्ता 19 जून 2013  के सम्पादकीय में प्रकाशित है.

लिंक- http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/47260-2013-06-19-04-42-55)

Saturday, June 1, 2013

छठवीं क्लास के सेक्शन ए से लाजवंती और सेक्शन बी से वीर


दोनों का मानना है कि उनकी मम्मियां पेड़ हैं. काहे कि स्कूल में पढ़ाया गया है कि हरे पेड़ अपना खाना खुद बनाते हैं और बाक़ी लोग उन्हीं से अपना खाना लेते हैं. रोटियाँ बेलते हुए मम्मी के हाथ की हरी- हरी नसें देख कर तो शक़ की कोई गुंजाइश ही नहीं रही. अपने- अपने पापाओं को दुनिया का सबसे लंबा इंसान मानने- मनवाने की रोज़ की हुज्ज़त, फिर सर- फुड़ौव्वल. दोनों पक्के वाले दोस्त हैं. एक दूसरे के शरीरों का भेद नहीं जानते. और वो जो पैरों के बीच कुछ है वो दोनों को एक दूसरे का उल्टा बनाता है इस बात से अभी अन्जान हैं. एक दिन समय के देवता इन दोनों को ये रहस्य समझा देंगे. लेकिन फ़िलहाल दोनों बच्चे हैं, बच्चे- दोस्त, दोस्त- बच्चे.
एक दूसरे के सारे रहस्यों, गुनाहों और मम्मी-पापा को धोखा देने के लिए बनाई रणनीतियों के भागीदार. नागराज और ध्रुव की कॉमिक्स कहाँ छुपाई है. ऊपर वाले घर के घंटी बजा कर कौन भागा. लूडो में बेईमानी कैसे की. अपने हिस्से से ज्यादा मिठाई कैसे चुरा के खानी है. पढ़ने की किताबों में सरिता- मनोरमा- कॉमिक्स कैसे छुपा के पढ़ी जाती है? झगड़ा होने पर ये सारी पोल- पट्टी खोल देने की धमकियां. फिर एक-एक घुम्मे-मुक्के और बाल नोंचय्या का हिसाब ले कर कट्टी-मिल्ली. कुछ भले काम भी किये हैं. एक दिन बिजली की तार से छूकर एक चिड़िया वीर के ऊपर आ गिरी. तब से चिड़ियों की जान बचाना शगल बन गया. गुल्लक में थोड़ी बचत भी कर ली है. उसकी खन-खन से सापेक्ष अमीरी-ग़रीबी का हिसाब लगाया जाता है. चलते कूलर के आगे अपनी रोबोट वाली आवाजें निकालना, किसी का घर बनाने के लिए गिराई बालू पर घर बनाना फिर इकठ्ठा की गयी सीपियों के लिए लड़ना. अगर ज़िंदगी सौ बरस की होती है तो दसवां हिस्सा इसी तरह जी लिया है. बच्चे- दोस्त, दोस्त- बच्चे बनके.


सब कुछ बढ़िया चल रहा था कि एक दिन स्कूल में खाने की छुट्टी में पूरी क्लास को रस्साकशी खेलने का भूत सवार हुआ. रस्सी के अभाव में दोनों टीमों के अगवा का हाथ ही खींचा-ताना जा रहा था. लड़के एक तरफ़, लड़कियां एक तरफ़ यही नियम है इस गेम का. ‘अपनी- अपनी टीमों में आ जाओ’ आवाज आई. दोनों सकपका गए, ये उनकी टीमें अलग कब से हो गयीं? उन्हें तो लड़कर भी एक दूसरे की तरफ़ से ही खेलने की आदत है. खैर, बेमन से खेला खेल ख़त्म हुआ पर कौन जीता कौन हारा दोनों को आज तक याद नहीं. फिर तो ये रोज़ का क़िस्सा हो गया. घर- बाहर, स्कूल, हर पीरियड में यही साज़िश. दोनों के बीच दशमलव की बिंदी आकर बैठ गई थी एक दायाँ था दूसरा बायाँ, टोटल वैल्यू कम कर दी खामखाँ. दोनों की दोस्ती गणित का एक समीकरण बन गई जिसमें अनजानी चीजों को ‘एक्स’ मान लिया जाता है. वैसे, बायोलॉजी के एक्स और वाई ने भी कम कहर नहीं ढाया. व्याकरण में अनुलोम- विलोम, स्त्रीलिंग- पुल्लिंग चल रहा है.. लड़का- लड़की, सुनार- सुनारिन, हलवाई- हलवाइन. स्त्री- पुरुष. ही-शी, ती है-ता है का बंटवारा. घर पे पहले बच्चे रोते थे अब लड़का- लड़की रोने लगे, लड़की थोड़ा ज्य़ादा. वीर को तो रोना ही मना हो गया.
धीरे- धीरे लाजवंती और वीर पर भी रंग चढ़ रहा है. आजकल खाने की छुट्टी में वीर ‘अपने जैसों’ के साथ गेंदतड़ी खेलता है और लाजवंती 'अपनी जैसियों’ के साथ साइड में बैठी मुंह पे हाथ धरे धीरे- धीरे ही- ही, खी- खी.
परीक्षा परिणामों के साथ लड्डू बंटे. छठवीं क्लास आ गयी. सेक्शन अलग हो गए लड़के ए में लड़कियां बी में. लड़कों को हाफ की जगह फुल पैंट पहननी है और लड़कियों को दो चोटी करके सफ़ेद रिबन बाँधना है. लाजवंती के बाल अभी छोटे हैं, वो पोनीटेल करके जा सकती है लेकिन होम साइंस पढ़ना जरूरी है.
“नील घोलने की विधि बताओ.”
होती होगी कुछ, लाजवंती की बला से, उसके घर में तो उजाला आता है. घुला-घुलाया, चार बूंदों वाला.
‘हाय राम मिस! इत्ता सरल सवाल?’ ये ज्योति केसरी पक्की चापलूस है मिस की. लाजवंती ने उसे मुंह चिढ़ा दिया. मिस ने उसे टेबल पे खड़े होने की सज़ा दी. 
“जानती हो गांधी जी ने कहा है कि स्त्रियों के लिए गृह- विज्ञान की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए. मेरी क्लास में तुम्हें मर्यादित व्यवहार करना होगा.” 
ये बाद की बात है कि लाजवंती को दिल्ली आकर पता चलेगा कि यहाँ लड़कियों को होम साइंस ज़रूरी नहीं है और वो इन सब मिसों, राष्ट्र्पिताओं और ज्योति केसरियों को एक साथ काल्पनिक अंगूठा दिखायेगी, ‘ले बच्चू!’ लेकिन क्लास में तो होम साइंस ने जान ले रक्खी है.
“घर को संभालने वाली को क्या कहते हैं?” मिस ने फिर कोंचा.
“जी हमारा घर तो लालमनी सम्भालती है, हमारी नौकरानी.”
पूरी क्लास को हंसने का दौरा पड़ गया. लाजवंती की सज़ा अपग्रेड हो गयी. उसे अब हाथ ऊपर कर के खड़े रहना होगा. घर जाकर लाजवंती का हाथ बहुत दुखा और मिस ने घर जाकर शांती धरावाहिक देखा. ज्योति केसरी ने घर जाकर सूजी का हलवा बनाया, बहुत बढ़िया!
सेक्शन बी में वीर की हालत भी बुरी थी. उसे लाजवंती के साथ बैठने की आदत थी. टेस्ट में लाजवंती तब तक पन्ना नहीं पलटती थी जब तक वीर पूरी नक़ल न कर ले. होंठ के किनारे से स्पेल्लिंग बताने की कला भी उसी को आती थी. वीर को तो बस ड्राइंग का शौक था. अपनी कॉपी में ज्यादा गुड/ फ़ेयर दिखा कर लाजवंती को टी ली ली ली. कला वाली मिस, जो अपनी लम्बी चोटी में कभी रबरबैंड नहीं लगाती थीं, उनका कहना था कि लड़कों की आर्ट ज्यादा अच्छी नहीं होती इसलिए उन्हें थोड़े प्रयास पे ही अधिक नंबर दे देने चाहियें, वीर तो एक अपवाद है. 
‘लड़की के साथ जो खेला करता था सारा दिन.’
तो लाजवंती लड़की थी?
वीर ने घर जाकर एक नए तरीके का साड़ी का किनारा बनाया. कला वाली मिस ने भी घर जाकर शांती धारावाहिक देखा और अपने बाल खोल कर सो गयीं. लाजवंती को लड़की कहने वाले लड़कों ने अपनी-अपनी पेड़-मम्मियों से लेकर खाना  खाया और कॉन्ट्रा या मारियो जैसा कुछ खेल कर सो गए.
बरसों बाद उस क़स्बे में प्रगति आयेगी और इंग्लिश ‘स्पोकना’ सिखाने वाले सेंटर खुलेंगे. को- एजुकेशन और लव-मैरिज डिबेट के फेवरेट टॉपिक्स होंगे. गर्मागर्म बहस चलेगी. हल क्या निकलेगा पता नहीं. लेकिन लाजवंती और वीर का तो बड़ा नुक़सान हो गया. अब से पूरी क्लास-सर-मिस को पता चल गया है कि लाजवंती ने अपनी कला की कॉपी में कनेर का फूल और तश्तरी में रखा आम कभी खुद नहीं बनाया था. और वीर को विज्ञान का ढेंगा भी नहीं आता था.

(कहानी आगे बढ़ती है- चम्पकवन, ट्रेन और बारामूडा ट्रायेंगल
http://shwetakhatri.blogspot.in/2013/06/comingofage.html)