Monday, December 29, 2014

लोकप्रिय सिनेमा की अपनी शर्तें हैं



ये महज़ इत्तेफ़ाक ही था कि पी.के. देखने से एक दिन पहले दैनिक भास्कर की वेब साईट पर ‘ऑस्ट्रेलियन दुल्हन लाया बिहार का बेटा’ जैसे किसी शीर्षक पर नज़र पड़ गयी. रिपोर्टिंग के अंदाज़ से यूं लगा कि बिहार ने कोई मेडल जीता है. फिर एक सवाल कौंधा कि अगर बिहार की बेटी ने ऑस्ट्रेलियन दूल्हा ढूंढ लिया होता तो खबर कैसी होती? ये खबर होती भी या नहीं? क्या वजह है कि लव जिहाद की तमाम लफ्फाजियों के बीच हिन्दू नायिका के मुसलमान नायक से ब्याह के उदाहरण हमारे हिन्दी सिनेमा में विरले हैं, इसका उलटा भले ही मिल जाय. पी.के. से पहले ‘टोटल सियापा’ में ही शायद ये घटना हुई है.
इस प्रगतिशीलता के बावजूद अनुष्का के उभरे होंठ खटकते हैं. वो जब नई- नई आयीं थीं तो उन्हें आदित्य चोपड़ा ने कहा था कि ‘तुम बहुत खूबसूरत नहीं हो, इसलिए कम से कम एक्टिंग तो अच्छी करना.’ सौन्दर्य में एकरसता को बढ़ावा देने में आलोचना जनित हीन भावना और कॉस्मेटिक सर्जरी का याराना है. विविधताओं को सेलिब्रेट करने की बात हमारे सौन्दर्य मानकों पर लागू नहीं होती. एक और इत्तेफाक़ के तहत मेरी बुक शेल्फ़ में अगले साल आ रहे अमान्डा फ़िलिपाकी के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘द अनफार्चुनेट इम्पोर्टेंस औफ़ ब्यूटी’ का इंतज़ार हो रहा है जो सौन्दर्य मानकों के बारे में हमारी जड़ता पर सवाल उठाता है. हमारी हीरोइनों की लिप/नोज़ सर्जरी (जिसकी खबर का हमेशा खंडन ही होगा) इस सवाल पर सवाल है.
पी.के. फ़िल्म की शुरुआत में ही हीरो-हिरोइन बच्चन की कविता सुनने की तिकड़म भिड़ाने लगते हैं और आप ये सोचने पर मजबूर होते हैं कि इसकी वजह सचमुच हरिवंशराय जी कि कवितायेँ हैं या फिर उनका ‘बच्चन’ होना? वैसे भी मुख्यधारा में लोकप्रियता हमेशा सरलीकरण की शर्त पर ही मिलती है. हिन्दी कवि को सिनेमा में पहचान अमिताभ बच्चन पैदा करने की शर्त पर मिलती है, मैरी कौम को प्रतिनिधित्व प्रियंका चोपड़ा दिखने की शर्त पर मिलता है और भोजपुरी को जगह बड़े सितारों द्वारा एप्रोप्रिएशन की शर्त पर मिलती है. पी.के. की भोजपुरी उतनी ही कच्ची है जितनी कि उसमें शामिल प्रेम कहानी, आमिर का लहजा वैसा ही सतही है जैसे आर्चीज़ से खरीद कर मनाई क्रिसमस की खुशियाँ.
फ़िल्म पर विवाद इसके पोस्टर की रिलीज़ से ही शुरू हो चुका था. नग्नता का उपयोग कला या फिर धर्म में नया नहीं है. आमिर के चरित्र की नग्नता उसकी शुद्धता और इस दुनिया के चाल चलन से अछूते होने का प्रतीक है जो कि फ़िल्म देखने पर ही समझ आ सकता है. पर हमारे पास इतना धैर्य कहाँ था? हमने पोस्टर का कनेक्शन कामोत्तेजना और अश्लीलता से ही जोड़ा जो कि हमारे दिमाग में नग्नता के साथ जोड़ी बनाकर जम चुका है. इस तरह से पी.के. के नंगे एलियन ने हमारे समाजीकरण की प्रक्रिया और जमी-जमाई मान्यताओं पर प्रहार अपने पोस्टर रिलीज़ के समय से ही करने शुरू कर दिए थे.
पर पोस्टर में दिखी संभावनाओं के बावजूद ये एक बेहद साधारण फ़िल्म है. आडम्बर और धर्म के धंधे के ख़िलाफ़ दिए गए तर्क न ही नए हैं और न ही बहुत गहराई तक जाते हैं. हम इन्हें इससे बेहतर और पैने रूप में ‘ओह माई गॉड’ में देख चुके हैं. इस तरह से ये फ़िल्म ओह माई गॉड की अगली कड़ी होने के बजाय उसके बराबर या पीछे ही खड़ी दिखती है. एलियन का कांसेप्ट ज़रूर अनोखा है. हम अपने सामाजीकरण में इतने धंस चुके हैं कि एक उदासीन साक्षी भाव से अपने समाज को देखने के लिए शायद हमें एलियन जितना ही दूरस्थ होना ज़रूरी है. आडम्बर की आलोचना शायद उसकी उत्पत्ति जितनी ही पुरानी है लेकिन फिर भी धर्म का धंधा बदस्तूर जारी है. इसके कारणों की तह तक जाने की कोशिश ‘ओह माई गॉड’ के बाद पी.के. ने भी नहीं की. इंसान के दुखों को धर्म की उत्पत्ति और आडम्बरों को मनोवैज्ञानिक इलाज बताने की ज़रा सी कोशिश फ़िल्म करती है लेकिन ‘तपस्वी जी’ के ज़रिये जो कि फ़िल्म का खलनायक है. दरअसल धर्म के अस्तित्व की पोषक ही जीवन की अनिश्चितताएं हैं जिनका जवाब अक्सर विज्ञान के पास भी नहीं होता. धर्म दुःख मिटा नहीं सकता पर उन्हें भगवान की देन बताकर पीड़ा कुछ कम कर देता है. इसलिए बरकरार है और शायद इसीलिये ये फ़िल्में भी भगवान के अस्तित्व पर सीधे वार करने से बचती हैं.
फ़िल्म पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप उतना ही बचकाना है जितनी आमिर के चरित्र की हरकतें. ये सही है की फ़िल्म में सभी अच्छे- बुरे पात्र ज़्यादातर हिन्दू हैं. लेकिन ये तो लोकप्रियतावादी सिनेमा का कड़वा सच है. हिन्दी फिल्मों के पात्र डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ भी हों साथ में बड़ी सहजता से ऊंची जाति के हिन्दू पुरुष ही रहें हैं. दूसरा कोई भी धर्म फ़िल्म को सेक्युलर दिखाने के वास्ते दाल में नमक जितना ही आता है. फिर पी. के. में ऐसा होना हमें असहज क्यूं कर रहा है?
सिर्फ़ आडम्बर विरोधी होने के लिए फ़िल्म की तारीफ़ करनी हो तो अलग बात है, वरना फ़िल्म सफ़ेद रंग पहने विधवा का उदास दिखने जैसे स्टीरियोटाइप से लेकर तुरंत ही सफ़ेद कपड़ों में सजी ईसाई दुल्हन का पी.के. के सामने आने जैसे फ़िल्मी संयोगों से भरी पड़ी है. हालांकि इस अति सरलीकरण का एक सकारात्मक पहलू ये भी है कि फ़िल्म उसी वर्ग से संवाद स्थापित करने में सक्षम है जो बाबाओं के चमत्कार पर निछावर होता है और ‘हैप्पी न्यू इयर’ को करोड़ों की कमाई करवाता है. बाकी धर्म और हिन्दी सिनेमा में ज़्यादा फर्क नहीं है. दोनों में तर्क का इस्तेमाल बिज़नेस के लिए हानिकारक है!

(पी. के. पोस्टर विवाद पर लिखा गया लेख- 'नग्नता की शुद्धता और शौक वैल्यू' http://shwetakhatri.blogspot.in/2014/08/blog-post.html)


Thursday, November 27, 2014

ए.एम्.यू. लाईब्रेरी: जेंडर और स्पेस के कुछ सवाल






निर्भया काण्ड के बाद से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक सकारात्मक बदलाव तो ज़रूर आया है. लिंगभेद लगभग जातिभेद और नस्लभेद के समानांतर राजनैतिक मुद्दा बन गया है. आजकल किसी सार्वजनिक हस्ती का जेंडर सेंसिटिव होना या कम से कम नज़र आना अनिवार्य है. पर इस बदलाव की बयार का सबसे बड़ा ख़तरा अपना फ़ोकस खो देने का है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वी.सी. पर एक बयान के बाद हुए शाब्दिक हमले ऐसे ही दिग्भ्रमित आक्रोश का एक उदाहरण है.

वी.सी. के मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में लड़कियों को आने देने की मनाही के आधे-अधूरे बयान को सुनकर उन पर लिंगभेदी होने का आरोप लगा जो कि आजकल एक संगीन लांछन है. जबकि ये पॉलिसी विश्विद्यालय में काफ़ी समय से है, साथ ही स्नातक तक की छात्राओं के लिए अलग बैठने- पढ़ने की व्यवस्था है. वी.सी. न ही लड़कियों के मामले में गैर- संवेदनशील हैं न ही ये नीति अपने-आप में लिंगभेदी है, कम से कम सक्रिय तौर पर तो नहीं. लेकिन एक बड़ा सवाल जेंडर और स्पेस का है जिसकी जड़ें लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय परिसर से बाहर के समाज में हैं.

समय का चक्र और स्पेस का फैलाव दोनों अपने-अपने तरीके से लिंगभेदी हैं. शाम को धुंधलके के बाद और बस स्टॉप या बैंक जैसी सार्वजनिक जगहों पर लड़कियां कम ही दिखाई देतीं हैं. चंद महानगरों को छोड़ दें तो कालचक्र और स्पेस के इस लिंग आधारित विभाजन का शायद ही कोई अपवाद है. अपनी खुद की कस्बाई परवरिश के अनुभवों से कहूं तो पब्लिक स्पेस लड़कियों के लिए नहीं हैं. यहाँ होने का मकसद उन्हें साफ़-साफ़ जताना होता है कभी अपनी स्कूल यूनिफार्म तो कभी किसी पुरुष के साथ के ज़रिये. ऐसे में लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना आसान बात है बजाय उन्हें पब्लिक स्पेस में पुरुषों जितना ही सहज कर पाना. ये एक अजीब विरोधाभास है- लड़कियां सार्वजानिक जगहों पर जितनी ज्यादा दिखेंगी, उनकी उपस्थिति उतनी ही आम बात होगी. फ़िलहाल उनकी नगण्य उपस्थिति ही इक्का- दुक्का लड़कियों की उपस्थिति को और भी विशिष्ट बना देती है. ये बात उन लड़कियों को चर्चा का केंद्र बनाकर असहज करने के लिए काफ़ी है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि वी.सी. के लड़कियों के माता-पिता से चिट्ठी लिखकर पूछने पर कि ‘क्या वो अपनी बेटी को मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में जाने देना चाहते हैं’, सिर्फ़ एक जोड़ा माँ- बाप ने सकारात्मक जवाब दिया.

ऐसे मामलों में नीति निर्धारकों को एक समझौता करना पड़ता है- या तो यथा स्थिति रहने दें या फिर लड़कियों को उनकी अलग जगह देकर कम से कम उन्हें बाहर लाने की एक पहल करें. ज़ाहिर है कि दूसरा रास्ता ही ज्यादा तर्कसंगत है. अलग लाइब्रेरी, मेट्रो में पहला कोच, लेडीज़ बस, महिला पुलिस चौकी और अब आगामी महिला बैंक सब इसी समझौते के अलग- अलग रूप हैं. ये लिंगभेद नहीं बल्कि उसे ख़त्म करने की एक रणनीति भर है. पर दुर्भाग्य से ये नीतियाँ ऐसी दर्दनिवारक दवा बन गयी हैं जिसे खा कर हम अपनी असली बीमारी भूले बैठे हैं. हमारा अंतिम लक्ष्य तो पब्लिक स्पेस में लड़कियों को पूरी तरह समाहित करना ही होना चाहिए था. लेकिन स्पेस विभाजन की नीतियाँ अपनी लोकप्रियता के चलते एक तरह का सुविधाजनक नारीवाद बन गयी हैं. जिन्हें लागू करके कोई भी जेंडर सेंसिटिव नज़र आ सकता है और वाहवाही बटोर सकता है.

उसी तरह से जहां प्राथमिकता ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को उच्च शिक्षण संस्थानों में लाने की हो, जहां माता- पिता भी अलग पुस्तकालय की व्यवस्था से ज्यादा सहज महसूस करते हों. वहां विश्वविद्यालय के ऐसा करने पर हाय-तौबा क्यूँ? वी. सी. वही कर रहें हैं जो उनके पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित है. मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी पब्लिक स्पेस का ही एक टुकड़ा है, एक संसाधन है जिसका आवंटन वो सामाजिक सन्दर्भों से कटकर नहीं कर सकते. अगर खेल के नियम ही गड़बड़ हों तो उस खिलाड़ी जो क्यों दोष दें जो नियमानुसार खेल रहा है?

एक संसाधन के रूप में समय-स्थान को देखना साथ ही जेंडर के साथ इनका समीकरण समझना दरअसल कभी ज़रूरी नहीं समझा गया. इस समस्या की भी पेचीदगी वही है. स्पेस और समय दोनों ही एक तरह से बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हैं. इनका फ़ायदा वही उठा सकता है जिसको इनका बेरोक-टोक इस्तेमाल करने की आज़ादी है. जिन पर बंदिशें हैं वो नुकसान में हैं. फ़र्ज़ कीजिये किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कोई हाई प्रोफ़ाइल नौकरी है जिसके लिए सुदूर इलाकों में रात- बेरात सफ़र करने की ज़रुरत है. ऐसी नौकरी के लिए समान क्वालिफिकेशन होने पर भी लड़कों को वरीयता दी जायेगी क्यूंकि सामाजिक परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं. समय और स्थान रूपी संसाधनों में असीमित पैठ पुरुष का प्रिविलेज है ऐसे में उन्हें उस पद  विशेष के लिए पुरुष ही ज्यादा उपयुक्त लगेगा. अब उस नौकरी देने वाली कंपनी को लिंगभेदी कहा जाय या समाज को?
अब सवाल यही है कि यथास्थिति को बदलने की पहल कौन करे? ये जोखिम कौन उठाए? इस लाइब्रेरी में लड़कियों की मनाही सीमित जगह की समस्या हल करने का तरीका है लड़कियों के लिए अलग लाइब्रेरी भी सामाजिक परिवेश देखते हुए वाजिब व्यवस्था लगती है. न माता- पिता ऐसी पहल कभी करेंगे और विश्विद्यालय के पास तो लड़कियों की सुरक्षा का एक सर्वव्यापी और सर्वमान्य बहाना है ही. किसी भी सन्दर्भ में लड़के- लड़कियों का मुक्त रूप से मिल पाना हमारे समाज के लिए गाहे- बगाहे चिंता का विषय बन ही जाता है. लेकिन सवाल माता- पिता की अनुमति से परे छात्राओं की स्वतंत्र निर्णय क्षमता का भी है. संसाधनों की कमी और अभिभावकों की अनिच्छा को कब तक उन्हें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी से वंचित रखने का बहाना बनाया जा सकता है? गौरतलब है कि लाइब्रेरी में प्रवेश की मांग छात्राओं की तरफ़ से ही आयी थी. उसके बाद वी.सी. साहब ने मानव संसाधन मंत्रालय से लाइब्रेरी का स्पेस बढ़ाने के लिए अनुदान माँगा है जिससे ज्यादा छात्राओं को भी सेन्ट्रल लाइब्रेरी में जगह दी जा सके. वी.सी. पर ज़्यादा से ज़्यादा यथास्थिति बने रहने देने का इल्ज़ाम लगाया जा सकता है इसे पैदा उन्होंने नहीं किया. ये ज़रूर है की महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग जो शायद बदलाव की पहल करने का माद्दा रखते हैं उनका आत्मसंतोष अक्सर प्रगति में बाधक होता है. और जेंडर के आधार पर समानता फ़िलहाल प्रगति और मानवाधिकार विकास का पर्याय बन चुकी है. 
खबर आ रही है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में वी.सी. के ख़िलाफ़  दाखिल एक जनहित याचिका के जवाब में कोर्ट ने लड़कियों को सेन्ट्रल लाइब्रेरी की सदस्यता दिए जाने के आदेश दिए दे हैं. वी.सी. साहब का बयान उसके सन्दर्भ के साथ देखा जाय तो नारी विरोधी नहीं था लेकिन सेंट्रल लाइब्रेरी के दरवाज़े लड़कियों के लिए खुलना निश्चय ही लैंगिक समानता की दिशा में अगला कदम है. 

हमें बीमारी का कोई लक्षण दीखते ही जड़ तक जाने के बजाय लक्षण पर वार करने की आदत बन गयी है, किसी सर्वव्यापी समस्या का दोष मढने के लिए बलि का बकरा तलाशने की प्रवित्ति है ताकि अपनी ग्लानि और ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जा सके. कम से कम भारत में ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में देर रात रिसर्च लैब में बैठने से लेकर हॉस्टल से देर रात गए बाहर रहने के मामले में लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग नियम हैं. ये सब अलग पुस्तकालय की तरह ही समय और स्पेस के संसाधन पर पुरुष के विशेषाधिकार को सुदृढ़ करते हैं. इस मामले में बहस तो हर विश्वविद्यालय के पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा होनी चाहिए. 
पर फ़िलहाल बलि का बकरा ए.एम्.यू. के वी.सी. ही बने!


Sunday, August 10, 2014

नग्नता की शुद्धता और शॉक वैल्यू




हम अजीब विरोधाभासी दुनिया में रहते हैं. फ़िल्म पी.के. के पोस्टर आते ही एक लहर आमिर खान को न्यूड पोज़ देने की बहादुरी की प्रशंसा की चली तो वहीं दूसरी लहर इस बहाने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के दोगलेपन औए लिंगभेद पर हमले की. जो बॉलीवुड (मय दर्शक) आमिर खान के पोस्टर के लिए नग्न होने को उनका कला के प्रति डेडिकेशन बता रहा है, वही वर्ग शर्लिन चोपड़ा और पूनम पांडे के ऐसा करने को पब्लिसिटी स्टंट कहकर फ़तवे जारी करता रहता है. लेकिन विरोध के लिए विरोध करने वाले किसी को भी निराश नहीं करते. इस जमात ने आमिर पर भी ऑब्सिनिटी ऐक्ट के तहत मुक़दमा ठोंक दिया. अब सबके सुर बदल गए हैं. लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा सनी लियोन ने किया होता तो यही जमात आँखें सेंक रही होती.
इन सब विवादों से इतना तो खुल कर सामने आया है कि नग्न देह भी इस क़दर जेंडर्ड है कि हम पुरुष की देह में बहादुरी और स्त्री की देह में कामुकता ढूंढ ही लेते हैं. पी.के. का पोस्टर मात्र पब्लिसिटी स्टंट है या फिर सचमुच उस फ़िल्म की कहानी की कुंजी, इसका फ़ैसला तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद ही हो सकेगा लेकिन ये पोस्टर सामान्य न्यूड से थोड़ा अलग है. 

इसमें आपकी नज़र सीधे आमिर की नज़र से मिलती है, चेहरे के भाव से स्पष्ट है कि वो कुछ बतलाना चाहता है. इसके समानांतर ‘फ़ीमेल न्यूड’ फ़िल्म या पोर्न में तो क्या, कला के इतिहास में भी ढूँढ पाना मुश्किल है. इनमें चित्रित औरतें ज़्यादातर खोई हुई सी कहीं और देख रहीं होतीं है. आपकी नज़र उनकी नज़र पर नहीं बल्कि सीधे उनके शरीर पर पड़ती है जो कि निरीक्षण के लिए हाज़िर है. कभी अगर नज़र सामने होगी भी तो भाव हमेशा स्त्रियोचित कोमलता या कामुक आमंत्रण के होंगे. आप उन्हें देखे और वो पलटकर आपको, फ़ीमेल न्यूड में ऐसे असहज व्युत्क्रम का सामना नहीं करना पड़ता. नारीवादी चाहे नारी देह की स्वतन्त्रता की जितनी सिफ़ारिश करें लेकिन ज़्यादातर फ़ीमेल न्यूड पुरुष की दृष्टि के लिए बने हैं और वो स्त्री के अपने भावों के बजाय उन्हें देखने वाले की कामेच्छा का प्रतिबिम्ब होते हैं.

लेकिन इन सबसे इतर एक मुद्दा सिर्फ़ नग्नता और उसके विभिन्न निहितार्थों का भी है. मानव के जातिवृत्त और जीवनवृत्त दोनों ही में देखना, सुनने और बोलने से पहले विकसित होने वाली इन्द्रिय है. हम जितना कुछ देख पाते हैं क्या उतना ही और उसे वैसा का वैसा ही कह पाते हैं? दृश्य और भाष्य के बीच का यह फ़र्क ही नग्नता और अश्लीलता के बीच का फ़र्क है. एक बार पढ़ना-बोलना सीख जाने के बाद हम बालसुलभ भोलेपन से दुनिया को नहीं देख सकते. अब हमारे और हमारी आस-पास की दुनिया के बीच हमारे ज्ञान और अनुभवों का पर्दा है. चूंकि बात फ़िल्म के पोस्टर से शुरू हुई है इसलिए एक फ़िल्म का उदाहरण भी यहाँ मौजूं होगा. हाल ही में आयी फ़िल्म ‘आँखों देखी’ के बाऊजी जब से सिर्फ़ अपनी आँखों देखी पर यकीन करने की ठान लेते हैं तब से उन्हें वो चायवाला भी खूबसूरत नज़र आने लगता है जिसे उन्होंने पहले कभी ध्यान से देखा भी नहीं था. हम असलियत नहीं बल्कि असलियत की सांस्कृतिक हस्तक्षेप से बनी छवि देखते हैं. इसलिए नग्नता हमारे लिए सिर्फ़ निर्वस्त्र होने से ज़्यादा कुछ हो जाती है. इसी वजह से तथाकथित सभ्य समाज में इसकी एक शॉक वैल्यू है जिसका उपयोग अलग-अलग तरीके से होता रहा है.


उदाहरण के तौर पर भारतीय सशक्त सेना बलों के द्वारा एफ्स्पा की आड़ में किये जाने वाले बलात्कारों के विरुद्ध मणिपुर मदर्स के न्यूड प्रोटेस्ट या फिर इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए ग्रामीण महिलाओं का नग्न होकर हल चलाना ले सकते हैं. रूटीन से अलग होने ने ही नग्नता को उसकी शॉक वैल्यू दी है जो हमें कभी कचोटती है तो कभी वीभत्स रस से भर देती है लेकिन हमारा ध्यान खींचने में हमेशा ही सफ़ल रहती है. जहां 'न्यूड बीच' का चलन है या फिर जिन जनजातियों में कपड़े पहनने या वक्ष ढंकने की बाध्यता नहीं है, वहां नग्नता पूरी तरह से डीसेक्चुअलाइज्ड है और किसी को चौंकाती भी नहीं है.


न्यूडिटी का एक बहुत महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक अर्थ शुद्धता और प्रकृति से निकटता का भी है. ये संयोंग नहीं है कि ‘पेटा’ (people for ethical treatment of animals) ने शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए लोकप्रिय शख्सियतों के न्यूड या फिर उनकी सिर्फ़ पौधे-पत्तों में लिपटी छवियों का बारहा इस्तेमाल किया है. इसके अलावा, कोई विरला ही धर्म होगा जिसके किसी भी पवित्र स्थल पर नग्न मूर्तियाँ या छवियाँ न मिलें. दिगंबर जैन, नागा साधू इत्यादि की परम्परा विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में नग्नता को शुद्धता का पर्याय माने जाने को रेखांकित करते हैं. जहां नग्न होना निराभरण और छलरहित होने का पर्याय हैं.

ऐसे में नग्नता को इतनी सहजता से सेक्स और अश्लीलता से जोड़ लेना हमारी मानसिकता की दो परतों को उघाड़कर सामने लाता है. पहला कि नग्नता हमेशा सेक्स का पर्याय है और दूसरा- हमारे लिए सेक्स से जुड़ी चीज़ें हमेशा अश्लील और गंदी ही होंगीं. ये दोनों ही बातें हमारी साइकोलॉजी में घर कर चुकीं हैं. सेक्स एजुकेशन के विरोध के पीछे भी कमोबेश यही मानसिकता है.

दरअसल बाज़ार और उपभोक्तावाद की संस्कृति के लिए नग्नता का कामुकता से जुड़ा अर्थ ही सबसे अनुकूल है. शायद हमारी ही दमित कुंठाओं ने बाज़ार को संकेत दिया होगा जिससे कि नग्नता फ़िल्म या कोई भी उत्पाद बेचने का सबसे सरल साधन बन गयी. शुरुआत जहां से भी हुई हो, फ़िलहाल ये कुचक्र हमारे ऊपर इतना हावी हो चुका है कि हम न्यूडिटी में शुद्धता या फिर कलात्मकता देखने की क्षमता खो बैठे हैं. वो चाहे किसी भी रूप में किसी भी उद्देश्य से हमारे सामने आये, हमें हमेशा कामोत्तेजक ही लगती हैं. ऐसे में पी.के. का पोस्टर चाहे कुछ भी इंगित कर रहा हो हमें तो वो अश्लील लगना ही था. एक बार भाषा से बनी कृत्रिम दुनिया का हिस्सा बन जाने के बाद सिर्फ़ दृष्टि बोध की शुद्ध दुनिया में लौटना असंभव है.



Monday, July 14, 2014

फ़ीफ़ा का तमाशा और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल

जून के महीने में अगर आपने रेड एफ़.एम. सुना हो तो गानों के बीच विज्ञापनों के पारंपरिक व्यवधानों के अलावा फ़ीफ़ा विश्व कप की अपडेट और कपिल शर्मा के लाइव कंसर्ट की सूचना मिलती रही होगी. गूगल ने फ़ीफ़ा वर्ड कप के पहले से लेकर आखिरी दिन तक के लिए अलग-अलग ‘गूगल-डूडल’ मुक़र्रर कर रखे थे. इसी गूगल सर्च पर कपिल टाईप करते ही आने वाले सुझावों में कपिल ‘शर्मा’, ‘देव’ और ‘सिब्बल’ को पीछे छोड़ चुका है. फ़ीफ़ा वर्ड कप और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल अपनी- अपनी दुनिया में मनोरंजन के सिरमौर बन चुके हैं. इनके  सर्वव्यापीपन से अनजान होना आपके ‘बोरिंग’ होने या फिर आपके पिछड़ेपन(?) का सबूत माना जा सकता है. कपिल शर्मा इस महीने की पांच तारीख को अपने कंसर्ट में करोड़ों बटोर चुके है, आगे शायद फ़िल्मों में काम करेंगे. आज बीसवें विश्व कप का विजेता भी जर्मनी घोषित हो गया है. खेलों को, ब्राज़ील को, हास्य को और हमें क्या मिला? ये सवाल रह जाएगा.



ब्राज़ील में बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है. दरअसल, मनोरंजन अब वक्त काटने का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा अफ़ीम बन गया है जिसकी खुराक लेकर हम सच्चाई से पलायन कर जाना चाहते है. जिसके नशे में हम लिंगभेद, नस्लभेद, भ्रष्टाचार को भुलाए रखना चाहते हैं. ऐसे में ब्राज़ील का अपनी ही ज़मीन पर हारना शायद इस तंद्रा को तोड़े.

प्रसिद्ध दार्शनिक वोल्टेयर का कहना था कि ‘अगर ये जानना हो कि आपके ऊपर राज कौन करता है, ये जानने की कोशिश करो कि आप किसकी आलोचना नहीं कर सकते.’ इसी तर्ज़ पर क्या ये माना जा सकता है कि हम जिसकी आलोचना बिना किसी बात के कर सकते हैं, जिस पर बात-बेबात हंस सकते हैं, वो समाज का सबसे शोषित वर्ग है? व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर मनोरंजन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है और इसे हम किस हद तक मनोरंजन के नाम पर अनदेखा कर सकते हैं? भव्यता का अश्लील प्रदर्शन और गले फाड़ कर हंसना ही मनोरंजन का पर्याय कब से बन गया? इन सब सवालों के सही-सही जवाब मिलना शायद संभव न हो पर इनकी पड़ताल करना किसी समाज की नब्ज़ टटोलने जैसा है.

कॉमेडी नाइट्स विद कपिल के हास्य, या कहें परिहास का केंद्र सारे महिला पात्र हैं. उसकी पत्नी जब-तब अपनी औसत शक्ल सूरत और कम दहेज लाने के लिए अपमानित होती रहती है. कपिल अर्थात बिट्टू शर्मा की एक ढलती उम्र की बुआ है जिसका कुंवारा रह जाना उसकी सबसे बड़ी व्यथा है और उसकी पुरुष-पिपासा हमारे हास्य का स्रोत. थोड़ी आज़ादी है तो दादी के चरित्र के लिए जो दारू पी कर झूम सकती है और शो में आये पुरुषों को ‘शगुन की पप्पी’ चस्पा कर सकती है. उम्रदराज़ औरतों पर हमारे समाज में बंधन नियंत्रण की ज़रुरत वैसे भी नहीं समझी जाती. एक वजह यह भी है कि दादी का चरित्र एक पुरुष अदाकार निभा रहा है. पुरुषों का स्त्रियों जैसी वेशभूषा पहनना और उनके जैसी हरकतें करना हमारे लिये इतना हास्यास्पद है कि इसके अलावा हमें हंसाने के लिए उसे ज़्यादा मेहनत की भी ज़रुरत नहीं पड़ती.

फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुमान के मुताबिक़ २०१४ के विश्व कप पर लगभग 14 अरब डॉलर का खर्च आया है. ब्राज़ील के आर्थिक हालातों को मद्देनज़र रखते हुए विश्वकप का आयोजन पहले ही देश पर वैसे भी एक भार था. विश्व के अब तक के सबसे महंगी स्पर्धा की तैयारी के लिए ब्राजील सरकार को पब्लिक परिवहन का किराया बढ़ाना पड़ा साथ ही बहुत सी ज़रूरी सार्वजनिक परियोजनाओं को भी रोकना पड़ा. विश्व कप के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए किये गए चाक-चौबंद सुरक्षा इंतज़ामात में हुआ खर्च एक अतिरिक्त भार था. फ़ीफ़ा प्रमुख ‘सेप ब्लैटर’ पर जब-तब भ्रष्टाचार की आरोप लगते रहें है. ब्रिटेन के सन्डे टाइम्स के एक खुलासे के अनुसार २०२२ में फ़ीफ़ा के आयोजन का अधिकार ‘क़तर’ को मिलना एक अंदरूनी फिक्सिंग थी. न सिर्फ़ इस अरबी देश की गर्म जलवायु इस खेल के आयोजन के प्रतिकूल है बल्कि वहां खेलों की तैयारी के लिए भारतीय और नेपाली प्रवासी मजदूरों से अमानवीय तरीके से काम लिया जा रहा है. मजदूरों की लगातार होती मौत और उनके मानवाधिकारों का हनन, क़तर के चुनाव को निष्पक्ष बताने वालों के गले की हड्डी बनती जा रही है.
हिन्दी में हास्य को एक अलहदा विधा का रूप देने वाले हरिशंकर परसाई का तीखा व्यंग्य सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार होता था. स्टैंड अप कॉमेडी में भी फूहड़पन शुरुआत से रहा हो ऐसा नहीं है. सुरेन्द्र शर्मा के हास्य में भी ‘घरवाली’ आती है लेकिन सिर्फ़ नीचा दिखाई जाने के लिए नहीं. शैल चतुर्वेदी और अशोक चक्रधर का व्यंग्य ज़्यादातर या तो ट्रेजेडी से उपजता है या फिर ख़ुद की कमियों पर ही हँसते हुए उत्तम हास्य की कसौटी पर खरा उतरता रहा है. ये धारा अब टी.वी. के कॉमेडी शोज़ में तिरोहित हो चुकी है. इसी तरह फ़ुटबॉल का उद्भव ‘हार्पेस्तान’ नाम के एक प्राचीन यूनानी खेल से हुआ माना जाता है. ये एक बर्बर,  आक्रामक और ग्रामीण खेल था जिसके कोई ख़ास नियम नहीं थे. सालों के मानकीकरण और वैश्वीकरण ने फ़ुटबॉल को उसका आधुनिक रूप बख्शा है. इस विषय में ऑस्कर वाइल्ड का प्रसिद्ध कथन है, ‘फ़ुटबॉल बर्बर लोगों के लिए बना वह खेल है जिसे सभ्य लोग खेलते हैं.’ व्यवसायीकरण और मुनाफ़े की मंशा में गुड़ में मक्खी की तरह आ जुटे प्रायोजकों ने कॉमेडी और फ़ुटबॉल दोनों ही को उसका मौजूदा विकृत रूप दिया है. ज़ाहिर है, तत्सम जब तद्भव बनता है तो अपनी बर्बरता तो बचा ले जाता है लेकिन अपनी सादगी नहीं.

कपिल शर्मा के शो पर कई बार महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने पर केस दर्ज करने की कोशिश हुई. लेकिन उसे एक अतिवादी प्रतिक्रया कह कर पल्ला झाड़ लिया गया. ब्राज़ील विश्व कप पर हुए अनाप-शनाप खर्च को वहन करना भी सालों तक बढ़े हुए टैक्स के रूप में वहां के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से ही आयेगा और सारा मुनाफ़ा फ़ीफ़ा का होगा. लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी इस अन्याय का विरोध करने के लिए अपनी ही सरकार का दमन झेल रहें है. जो सबसे ज़्यादा प्रभावित है उसे ही मनोरंजन के नाम पर सबकुछ बर्दाश्त करने को कहना हमारी प्रवित्ति है और ये किसी टी.वी. कलाकार या खेल संस्था से ज़्यादा हमारी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.
ये एक अजीब संयोग है लेकिन भ्रष्टाचार का गढ़ होने के साथ- साथ ऐसे खेल आयोजन  प्रतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का भी एक ज़रिया बन सकते हैं. ब्राज़ील के नागरिकों का विश्व कप की पूर्व संध्या पर किया गया अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन इस मामले में हमारी प्रेरणा बनने लायक है जिसमें फ़ीफ़ा और जागरूक नागरिक, अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में एक दूसरे के आमने- सामने थे. ऐसे में नागरिकों का इनकी दी अफ़ीम चाटकर अशक्त नींद में सो जाना एक पाले की सबसे बड़ी उम्मीद है दूसरे पाले की सबसे बड़ी हार. क्यूंकि टी.वी. के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है और फ़ीफ़ा जैसी संस्थाएं किसी भी सरकार के लिए उत्तरदायी नहीं है.

महिलाएं, बच्चे, मजदूर और आर्थिक रूप से अल्पविकसित तबका इस चमकती तस्वीर का वो निगेटिव है जिसकी ज़रुरत सिर्फ़ भव्य आयोजनों और भड़कीले कॉमेडी शोज़ की रंगीन तस्वीर रचने के लिए पड़ती है. कुछ विरले लोग इस तस्वीर और निगेटिव के बीच की खाई लांघ भी सके हैं. ख़ुद साधारण पृष्ठभूमि से आये ख़ुद कपिल शर्मा की सफ़लता इसका प्रमाण है. या फिर सोमालिया जैसे पिछड़े देश से आये रैपर ‘के नान’ की कहानी जिसका गाना २०१० के फ़ीफ़ा विश्व कप का आधिकारिक चिन्ह और अफ्रीकी देशों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरा था. पर इन गिने चुने उदाहरणों के अलावा ज़्यादातर किस्से निराशाजनक ही हैं. आज, १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार ‘डाऊज़ केमिकल’ लन्दन के ओलम्पिक का प्रायोजक हो सकता है, आई.पी.एल. की टी.आर.पी. मैच फिक्सिंग की खबरों के बाद और भी बढ़ सकती है, महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाले ‘मिस इंडिया’ के निर्णायक हनी सिंह हो सकते हैं. हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि ये बातें अब हमें परेशान भी नहीं करतीं. हालिया विश्व कप के लिए गाया गया ‘पिटबुल’ का गाना ‘वी आर द वन’ हमारी इस स्थिति के लिए सबसे सटीक रूपक है. इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी सह लेने के मामले में क्या भारत, क्या ब्राज़ील हम सब एक ही हैं!

'पत्रकार प्राक्सिस' पर यह लेख.


Wednesday, July 9, 2014

बिलकीस बानो अक्का 'बॉबी जासूस'

‘बॉबी जासूस’ से पहले शायद ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ ही ऐसा कर पायी है. जिसमें मुख्य किरदारों के नाम ‘शर्मा’, ‘मेहता’ या ‘सिंह’ नहीं थे. ऐसा होने के बाद भी वो एक मुख्यधारा की फिल्म थी. उस फ़िल्म के तमाम मुख्य किरदार ‘खान’ थे लेकिन उसकी बार-बार उद्घोषणा की ज़रुरत नहीं थी. अब तक ये विशेषाधिकार हमारी फिल्मों में सिर्फ़ हिन्दू नायकों के लिए सुरक्षित है.  हमारी फ़िल्म के सारे नायक ऊंची जाति के पुरुष ही क्यूं होंगे ये सवाल हमने अपने फिल्मकारों से कभी पूछा ही नहीं. शायद हमारे दिमाग में भी नहीं आया. क्यूँ मुस्लिम युवक या तो आतंकवादी होंगे, या फिर हीरो की रोमांस में मदद करने वाले शायर या फिर शान्ति के मसीहा जैसे कुछ, जिससे बाकियों के पाप धुल जाएँ? कुल मिलाकर उनका मुस्लिम होना ही उनकी पहचान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहेगा. बाक़ी बातें गौण होंगी. वो ‘फ़ना’ का नायक हो सकता है, ‘दबंग’ या ‘हौलिडे’ का कतई नहीं. हिन्दू नायक कभी डॉक्टर होगा, कभी सैनिक, कभी इंजीनियर, साथ में उसका हिन्दू होना जैसे उसके खाने-पीने, सांस लेने जितना ही स्वाभाविक है.

ऐसे में मुस्लिम औरत एक ऐसा क्रॉस सेक्शन है जिसका हमारी फ़िल्म में नायक बनकर आना एक घटना है. ‘बॉबी जासूस’ की खूबसूरती ये नहीं है कि उसकी नायिका एक मुस्लिम औरत है. बल्कि एक फ़िल्म के रूप में अपनी तमाम खामियों के बावजूद उसकी सफ़लता ये है कि फ़िल्म देखते हुए हम ये बात बिलकुल भूल जाते हैं. ‘बिलकीस बानो’ को फ़िल्म का नायक (जब तक फ़िल्म को अपने कन्धों पर उठाने वाले के लिए कोई ‘जेंडर न्यूट्रल’ विशेषण न हो) बनने के लिए न दंगा पीड़ित होने की ज़रुरत हुई, न ही औरतों के ऊपर हुए अत्याचारों का बदला लेने की. हैदराबादी लहजे में बोलने वालों को जोकर दिखाने की भी ज़रुरत नहीं है. कैरियर के चुनाव को लेकर तनाव और संवादहीनता की स्थिति पिता और ‘बेटी’ में भी हो सकती है. बिलकीस अपने जैसी रहते हुए भी सिर्फ़ ‘समानांतर सिनेमा’ नहीं बल्कि मुख्यधारा सिनेमा का मुख्य किरदार हो सकती है जहां उसे ‘मर्दानी’ बनने की ज़रुरत नहीं. ‘वुमन’ और ‘माइनौरिटी’ के ख़ास दर्जे और मुद्दों के बिना भी एक पूरी फ़िल्म उस पर केन्द्रित रह सकती है. बराबरी शायद ऐसी ही दिखती है! 

Friday, June 27, 2014

कंडोम बनाम कल्चर


 हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन, एड्स से लड़ने के लिए कंडोम के बजाय भारतीय संस्कृति को प्राथमिकता देने की कह कर सोशल मीडिया के निर्दय चुटकुलों के ताज़े- ताज़े शिकार बन गए हैं. हालांकि उन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज के ज़रिये सफ़ाई देने की कोशिश की है कि उनके बयान को तोड़ा- मरोड़ा गया है. वो कंडोम के विरोधी नहीं लेकिन सेक्स संबंधों में ईमानदारी के पक्षधर हैं. पर तब तक सोशल मीडिया पर कल्चर ही कंडोम है’, ‘अपना कल्चर पाहन कर चलोजैसे जुमले उछाले जा चुके थे. उनके इस बयान के बहाने ही सही दो मुद्दों महत्वपूर्ण पर प्रायः प्रतिबंधित मुद्दों पर चर्चा की जानी चाहिए- पहली स्वास्थ्य नीतियों में नैतिकता के दखल और दूसरा विज्ञापनों में  कंडोम का चित्रण.फ़िलहाल अगर स्वास्थ्य मंत्री के बयान के सन्दर्भ को परे रख कर बात करें तो संस्कृति के ज़रिये समस्या का समाधान निकालना कोई हास्यास्पद बात नहीं है. कोई भी संस्कृति अपने मूल में अपनी जन्मदाता सभ्यता के लोगों की ज़रूरतों का जवाब भर ही है. जब तक तकनीक किसी समस्या का तोड़ न ढूंढ ले, संस्कृति ही समाधान है. लेकिन तकनीक का विकास होते ही संस्कृति का पलक झपकते ही बदल जाना संभव नहीं है. इसके जीवाश्म आधुनिकता के साथ हमेशा ही लिपटे रहते है. गर्भनिरोधकों के आविष्कार-प्रसार से पहले के समय में, ‘संयमकी संस्कृति निश्चय ही अनचाहे गर्भ, संक्रमण से बचाव और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए वरदान रही होगी. ये किसी ख़ास धर्म या संस्कृति की विशिष्टता हो ऐसा भी नहीं है. ईसाई धर्म का भी ब्रह्मचर्य और एब्स्टिनेंसपर कमोबेश उतना ही ज़ोर रहा है. लगभग सभी पोप गर्भनिरोध, कंडोम और गर्भपात को लेकर अपने अनुदार विचारों से विश्व को चौंकाते रहें है.
इस तरह की नैतिकता का पाठ पढ़ाना धर्मगुरु होने की पात्रता तो हो सकती है लेकिन स्वास्थ्य नीतियों के साथ इसका घाल-मेल बहुत घातक है. नीति नियंताओं और शिक्षकों ने जब भी जागरूकता पैदा करने की ज़िम्मेदारी नैतिक शिक्षा के सहारी छोड़ी है, तब-तब मुंह की खाई है. नब्बे के दशक में अमेरिका में किशोर लड़कियों में बढ़ती गर्भाधान की दर से निपटने के लिए किये गए उपाय इसका उदाहरण है. कुछ कैथोलिक स्कूलों ने यौन-शिक्षाके बजाय एब्स्टिनेंस ओनलीकार्यक्रमों का सहारा लेना ज़्यादा पसंद किया. २०१० के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मिसीसिपी जैसे राज्यों में जहां यौन शिक्षा नहीं दी गयी वहां किशोरियों में अनचाहे गर्भ की दर न्यू हैम्पशायर जैसे उदार राज्यों से अधिक है जहां के स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाती है. जागरूकता विहीन युवा और किशोरों के पास ग़ैरइरादतन गर्भ और एड्स से बचने की कोई तैयारी नहीं होती. क़ानून या उपदेश के बूते हम किसी के लिए यौन गतिविधि की उम्र नहीं तय कर सकते. कम से कम नीति नियंताओं को इस मुगालते में नहीं आना चाहिए. हां, सही जानकारी और कंडोम के प्रचार-प्रसार के ज़रिये उन्हें एड्स जैसी तमाम संक्रामक बीमारियों के खतरे से ज़रूर बचाया जा सकता है. अब बात कंडोम के विज्ञापनों की आती है. डॉक्टर हर्षवर्धन की शिकायत कंडोम के विज्ञापनों के ज़रिये हर तरह के संबंधों को जायज़ दिखाने की है. गौरतलब है कि हाल ही में अभिनेता रणवीर सिंह ने ड्यूरेक्स कंडोम का ऐड किया जिसमें वो हर बार अलग लड़की के साथ नज़र आते हैं. ये एक अजीब संयोग है लेकिन फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी दिखने वाली इन दोनों घटनाओं में एक जैसा ही सन्देश निहित है. डॉ. हर्षवर्धन अगर मोनोगैमी को कंडोम का विकल्प मानते हैं तो क्या वो इस बात की अनदेखी नहीं कर रहे कि बेहद इमानदार संबंधों में भी अनचाहे गर्भ और एस.टी.डी. का ख़तरा होता है. इसी तरह डू द रेक्सका विज्ञापन पुरुषों की बिन लगाम के घोड़ेवाली छवि को भुना रहा है. दोनों ही अपने- अपने तरीके से वैवाहिक संबंधों के भीतर कंडोम की ज़रुरत को कम करके आंक रहें है. ये ठीक है कि  नैतिकता किसी भी विज्ञापन को कटघरे में खड़ा करने का बहाना नहीं बन सकता लेकिन जो उत्पाद किसी सामाजिक सारोकार से जुड़ा हो मीडिया में उसके चित्रण की पड़ताल ज़रूरी है. अस्सी-नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले निरोध के विज्ञापनों में पुरुष कभी कैसीनोवानहीं होते थे. वो ज़्यादातर हमारे आस-पास का शादीशुदा आदमी थे. क्या मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग तक जागरूकता पहुंचाने के लिए ये आम आदमीवाली छवि ज़्यादा सहायक नहीं है?
एक और रोचक पहलू महिलाओं का ऐसे विज्ञापनों से नदारद रहना भी है. क्या इसे हमारे समाज में शारीरिक संबंधों के मामले में औरतों के पास निर्णय लेने का ज़्यादा अधिकार न होने का प्रतिबिम्ब माना जायएक पूजा बेदी के कामसूत्रविज्ञापनों को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो आज भी किसी मुख्यधारा की अभिनेत्री का कंडोम के ऐड में दिखाई देना उसके कैरियर के लिए घातक होगा. औरतें दिखीं हैं तो माला डीके ऐड में, वो भी हमेशा शादीशुदा जिनके लिए गर्भनिरोधक गोलियां बच्चों में अंतर रखने का एक तरीका है निडर प्रणय संबंधों का साधन नहीं. डू द रेक्समें लड़कियां तो हैं लेकिन वो निर्णयकर्ता नहीं निष्क्रिय सजावटें हैं जो सिर्फ़ विज्ञापन को ज़्यादा उत्तेजक बनाने के लिये है. लेकिन स्थापित मानकों का इस्तेमाल शायद ऐसे विज्ञापन निर्माताओं की मजबूरी है कभी व्यावसायिक लाभ के लिए तो कभी ज़्यादा से ज़्यादा जनता को बिना प्रतिरोध के जागरूक करने के लिए.

लेकिन स्वास्थ्य मंत्री और डॉक्टर होने के नाते क्या हर्षवर्धन जी की क्या ये ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इस बहस को नैतिकता के बजाय यथार्थ के प्रिज़्म से देखने और दिखाने की कोशिश करें. आज इंटरनेट और टी.वी. की व्यापक पहुँच हर तरह के अधकचरा ज्ञान को घर- घर पहुंचा रही है. आप न यौन जिज्ञासा को रोक सकते हैं और न ही आपसी सहमति से बने किसी भी तरह के विवाह-पूर्व, विवाहेतर या वैवाहिक संबंधों को. लेकिन उन्हें सुरक्षित ज़रूर बना सकते है. एड्स की बढ़ती दरों के बीच कंडोम सबसे प्रक्टिकल उपाय है. वैसे भी ये एक बचकानी अवधारणा है कि लोग हर तरह के यौन सम्बन्ध सिर्फ़ इसलिए बनाने लगेंगे क्यूंकि कंडोम आसानी से उपलब्ध है! स्वास्थ्य विभाग अगर अपना नैतिक-अनैतिक थोपे तो असफ़ल होगा क्यूंकि सबके लिए एक ही रेडीमेड नैतिकता काम नहीं करती. वहीं अगर वो नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष रहकर जागरूकता अभियान में अपनी ताकत झोंके तो ज़रूर सफ़लता मिलेगी क्यूंकि जागरूकता की कमी ही उनकी चिंता का विषय हो सकता है. नैतिकता की कमी की भरपाई करना किसी भी मंत्री या सरकारी मंत्रालय के अधिकारक्षेत्र के बाहर है.


 डॉक्टर हर्षवर्धन का साक्षात्कार 
विस्फोट.कॉम पर यह लेख

Monday, June 9, 2014

जातिवाद और दलित महिलाओं का संघर्ष


बात राजस्थान के भटेरी गाँव की है. गाँव के गूर्जर समुदाय के कुछ युवकों ने एक दलित औरत को ‘सबक सिखाने’ की ठान ली. वो औरत सरकारी संस्थाओं की ‘साथिन’ बनकर गाँव में बाल विवाह रुकवाने की कोशिश कर रही थी. और तो और, उसने नौ साल की बच्ची का विवाह रुकवाने के लिए एक सवर्ण परिवार के ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने का दुस्साहस भी दिखाया था. इस समुदाय के पांच युवकों ने 22 सितम्बर 1992 की शाम ‘साथिन’ भंवरी देवी का बलात्कार किया. भंवरी देवी, मेडिकल जांच,  पुलिस और गाँव-समाज की प्रताड़ना से लेकर हर कदम पर मुसीबतों से जूझने के बावजूद न्याय पाने में असफ़ल रहीं. 1995 में सेशन कोर्ट ने पाँचों अभियुक्तों को बाइज्ज़त बरी कर दिया. उस निर्णय में बाक़ायदा लिखित है कि, ‘ये अविश्वसनीय है कि कोई ‘ऊंची’ जाति का पुरुष किसी दलित स्त्री का बलात्कार करेगा.’
इसी वर्ष २३ मार्च को हरियाणा के भगाणा गाँव में बाल्मीकि समुदाय की चार लड़कियों का गाँव के जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया. न्याय पाने के लिए उनका संघर्ष देश की राजधानी में धरने के रूप में अभी तक जारी है. हाल ही में उत्तर प्रदेश के बंदायूं जिले के कटरा गाँव में, चौदह व पंद्रह साल की दो नाबालिग चचेरी बहनों के साथ, गाँव के ही कुछ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर दी. हत्या के बाद बलात्कारियों ने उन लड़कियों का शव को बड़ी बेरहमी से पेड़ पर लटका दिया। इस भयानक सीनाजोरी से अपराधियों के बिल्कुल निरापद होने का अनुमान लगाया जा सकता है. आरोपी युवक यादव जाति से सम्बंधित थे जो कि उस गाँव में एक प्रभावी जाति है. पुलिस ने न सिर्फ़ एफ़. आई. आर. दर्ज करने में आनाकानी की बल्कि लड़कियों के परिवार वालों पर भी रिपोर्ट वापस लेने का दबाव डालती रही. अब मध्य प्रदेश से भी मिलती-जुलती खबरें आ रहीं है. बदायूं की घटना के बाद अखिलेश यादव की संवेदना शून्य प्रतिक्रया से ज़ाहिर है कि भंवरी देवी काण्ड के बाईस वर्ष बाद भी इस तरह के मामलों में पुलिस, प्रशासन और समाज, तीनों ही अपेक्षाकृत कम संवेदनशील है.
‘निर्भया काण्ड’ के बाद आई बहुचर्चित और प्रायः प्रशंसित वर्मा कमेटी रिपोर्ट में जातिवाद उत्प्रेरित बलात्कार का बारंबार उल्लेख था. इसी घटना के बाद दिए गए एक बयान में आर. एस. एस. प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि ‘भारत’ में बलात्कार नहीं होते. ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त दलित महिलाओं पर होने वाली हिंसा शायद उनके लिए बलात्कार की श्रेणी में ही नहीं आते और ऐसी मान्यता रखने वाले वो अकेले नहीं हैं. ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन से पहले गाँव में आने वाली किसी दलित की नवविवाहिता पर गाँव के ज़मींदार का अधिकार स्वाभाविक माना जाता था.
यहाँ उद्देश्य न तो किसी देश-धर्म, संस्कृति या जाति व्यवस्था को घेरने का है और न ही किसी ख़ास जाति के सभी पुरुषों को अमानवीय ठहराने का है. इस तरह की प्रतिक्रियाएं सिर्फ़ प्रतिरोध और आक्रोश को दिग्भ्रमित करती हैं. लेकिन ये शोचनीय है कि भंवरी देवी का संघर्ष आखिर अंतहीन क्यूँ बन गया या भगाणा की बलात्कार उत्तरजीविताओं का संघर्ष वैसा ही क्यूँ बनता जा रहा है? क्यूं बदायूं की घटना के विरोध में हर शहर के हर गली-चौक में ‘१६ दिसंबर’ के उत्तरार्द्ध जैसी उग्र भीड़ इकट्ठा नहीं हो सकी? इन सबका जवाब पाने के लिए विभिन्न जातियों के अंतर्संबंध के इतिहास और समाजशास्त्र की गहराई में जाने की ज़रुरत है.

जाति व्यवस्था, सामाजिक वर्गीकरण की सबसे पुरानी व्यवस्थाओं में से एक है जिसमें हर एक वर्ग का एक नियत स्थान है. शुद्ध-अशुद्ध और स्वीकार्य-निषिद्ध के नियमों ने इन वर्गों को पारस्परिक निर्भरता के बावजूद एक दूसरे से नितांत अलग अस्तित्व बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जाति व्यवस्था और लिंगभेद की गड्डमगड्ड ने भारतीय समाज की जो परिपाटी तैयार की है उसमें सवर्ण पुरुष सबसे पहली और दलित महिलाएं सबसे निचली पायदान पर आते हैं. इस जटिल व्यवस्था में, विवाह संबंधों में स्वीकार्य संबंधों के बजाय निषिद्ध सम्बन्ध अधिक स्पष्टता से परिभाषित हैं. ख़ास तौर पर, लड़कियों के मामले में हिन्दू समाज में लड़की का सम्बन्ध अपने बराबर या फिर अपने से ऊंची कुल-जाति में करने की परम्परा है. ऐसे में ऊंची जाति की महिला और नीची जाति के पुरुष का सम्बन्ध सर्वथा अनुचित और अवांछनीय है. जो स्त्री जितनी ही ऊंची जाति से सम्बन्ध रखती हो उसकी लैंगिक स्वतंत्रता पर उतनी ही बंदिशें होंगी. दलित वर्ग में अपनी स्त्रियों पर ऐसा नियंत्रण लगाने की प्रथा या आवश्यकता कभी नहीं रही. ऊंची जाति के पुरुष के लिए दलित स्त्रियाँ हमेशा से ज्यादा प्राप्य हैं जबकि इसका उलटा वर्जित है. ऐसे में सवर्ण स्त्री और दलित पुरुष के स्वेच्छा से बने संबंधों तक को रूढ़िवादी समाज का बहुत आक्रामक प्रतिरोध झेलना पड़ता है, जबकि दलित स्त्री पर सवर्ण पुरुषों द्वारा किये गए बलात्कार की भी ‘शॉक वैल्यू’ बेहद कम है. जो दलित धर्मान्तरित हो गए हैं उनकी भी सामाजिक स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं है. भारतीय उपनिवेश में, जाति व्यवस्था उन धर्मों में भी परासरित होती गयी है जिनमें इसका नामो-निशान भी नहीं था. ज़्यादातर समाजशास्त्रियों का मानना है कि बलात्कार का उत्प्रेरण, काम-वासना के बजाय ‘पावर’ से जुड़ा हुआ है. अगर पितृसत्ता ने पुरुषों को ये ताकत दी है तो भारत में जाति व्यवस्था ने वही ताकत ऊंची जाति के पुरुषों के हाथों में संकेंद्रित कर दी है. ये ताकत शारीरिक नहीं, सामाजिक है. किसी ऊंची जाति के पुरुष को अपने समाज की स्त्री की ‘रक्षा’ न कर पाने के लिए जितना शर्मिन्दा किया जाएगा, अपने से नीची जाति की स्त्री का उत्पीड़न करने के लिए उतना नहीं. समाज और न्याय प्रणाली में समुचित और सुनिश्चित दंड और शर्मिन्दगी का न होना ही ऐसे अपराधियों की ताकत है.
आम तौर पर इस घटना के विरोध में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रहीं हैं उनमें या तो मीडिया के पूर्वाग्रह की चर्चा है, या देश और संस्कृति को शर्मिंदा करने की कोशिश, या फिर इन घटनाओं को ‘बलात्कार’ की स्थूल श्रेणी में डाल देने की कवायद, जो कि जातिवाद के सूक्ष्म सन्दर्भों की अनदेखी करती है. आलोचना ये है कि इन घटनाओं को आगामी चुनावों के मद्देनज़र ज़्यादा तूल दिया जा रहा है. ऐसा संभव है कि इन घटनाओं को मिलने वाला मीडिया कवरेज मौसमी हो या उस क्षेत्र की राजनैतिक परिस्थितियों और किसी राजनैतिक दल विशेष के प्रति दुराग्रह से प्रेरित हो. लेकिन मीडिया की एकतरफ़ा रिपोर्टिंग इन अपराधों का गुरुत्व कम नहीं कर सकती. अपराध फिर भी अपराध है और उतना ही निंदनीय! इसी तरह देश और संस्कृति पर आक्रमण, भावावेश में की गयी अभिव्यक्ति हो सकती है लेकिन समस्या का समाधान नहीं. ऐसी प्रतिक्रियाएं उल्टा, सम्बंधित वर्ग और समाज में, बदलाव के प्रति और प्रतिरोध ही पैदा करती हैं. जाति आधारित भेदभाव मिटाने के तरीकों के बारे में तमाम महान सुधारकों में भी मतभेद रहा है. जहां बाबा साहब आंबेडकर जाति व्यवस्था के ही समूल नाश की बात करते थे वहीं महात्मा गांधी सिर्फ़ छुआ-छूत जैसी कुरीतियों का ही बहिष्कार करने के पक्ष में थे. तरीका चाहे जो भी अपनाया गया हो दलित महिलाओं की स्थिति में सुधार की गति, नौ दिन चले अढ़ाई कोस की कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आ रही है.  
कोई आश्चर्य नहीं कि विपक्षी दलों के नेता भी ऐसे अवसरों को भुनाने का प्रयास करते दिख रहें है. मगर आंकड़ों की माने तो दलित उत्थान के नाम पर वोट लेने वालों के शासन में भी दलित औरतों की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं है. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि दलित महिलाओं को अपने आप में कभी एक वर्ग या ‘वोट-बैंक’ के रूप में नहीं देखा गया. महिलाओं या फिर दलितों के उत्थान की योजनाओं में ही उनका भला समझ कर हर एक सरकार ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. ऐसा अनुमान था कि दलितों और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए किये गए प्रयासों का फल अंततः दलित महिलाओं तक भी पहुँच ही जाएगा. लेकिन अब तक ये एक मिथ्या अवधारणा ही साबित हुई है.
तमाम उदाहरणों से ज़ाहिर है कि जातिगत बलात्कार का प्रतिफल चाहे अन्य यौन हिंसाओं जैसा ही दिखे, मगर इसके पीछे का उद्देश्य, इरादा और उत्प्रेरण बहुत अलग है इसलिए इन पर अलग से चर्चा किये जाने की ज़रुरत है. ऐसी घटनाओं को धड़ल्ले से अंजाम दिया गया, क्यूंकि ऐसा आसानी से किया जा सकता था और करके आसानी से बचा भी जा सकता था. इसलिए बलात्कार, अपराधियों के लिए दलित महिलाओं को उनकी हद याद दिलाने का सबसे सुगम रास्ता बन गया. ऐसी स्थिति में दलित लड़कियों के साथ हुई इन घटनाओं के लिए क्या कुछ विशेष प्रावधान होना चाहिए? इसमें एक कानूनी पेचीदगी यह है कि, कानून कभी भी उद्देश्य या अपराध के पीछे इरादों के आधार पर सज़ा नहीं दे सकता. लेकिन अगर दो अलग-अलग बीमारियों के लक्षण सामान भी हों तो दोनों के इलाज के लिए एक ही दवा काम नहीं कर सकती. इससे पहले भी दलित उत्पीड़न रोकने के लिए भारत सरकार ने 1989 में ‘शेड्यूल कास्ट एंड ट्राइब एक्ट’ पास किया था. जिसके तहत आरोपी को बिना वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकता था साथ ही जातिवादी हिंसा को गैर ज़मानती अपराध बना दिया गया था. हालांकि जातिवाद की गहरी जड़ों के कारण ऐसे कानूनों का क्रियान्वयन अपने आप में एक समस्या है जिसके चलते ऐसे कानून अक्सर दंतहीन साबित होते हैं. लेकिन समाज विशेष की संरचना के हिसाब से यदि न्याय व्यवस्था पक्षपातपूर्ण हो जाय तो उसे तटस्थ बनाने को कोई न कोई तरीका निकालना तो आवश्यक हो जाता है.

ये एक दुखद सत्य है कि किसी भी समाज में किसी व्यक्ति के न्याय पाने की संभावना उसकी सामाजिक स्थिति के समानुपाती होती है. जिनका सामाजिक ओहदा- धर्म, जाति, संख्या, आर्थिक या लैंगिक किसी भी आधार पर कमतर है उनको न्याय मिल पाने की संभावना बहुत क्षीण होती है. ऐसी स्थिति में दलित स्त्रियाँ अपनी जाति और लिंग के आधार पर दोहरा दमन झेलती हैं. दलित महिलाओं के बलात्कार पर प्रशासन, कानून और मीडिया, तीनों ही की चुप्पी का बहुत लंबा इतिहास रहा है. क़ानून व्यवस्था में कोई परिवर्तन हो न हो, कम से कम बड़े पैमाने पर विमर्श और प्रतिरोध के ज़रिये नागरिकों और न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों को ऐसे मुद्दों पर संवेदनशील बनाने की पहल तो होनी ही चाहिए. कुल मिलाकर दलित महिलाओं के संघर्ष को एक ऐसा अंधा कुआँ बनने से बचाना होगा जिसमें न तो रोशनी हो और न ही रास्ता!

विस्फ़ोट पर इस लेख के अंश.

एक मित्र शुभम गुप्ता की बदौलत अब ये लेख ऑडियो फॉर्मेट में यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है-
https://www.youtube.com/watch?v=wmifvOfrvy0

Thursday, June 5, 2014

संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण

अमेरिका के दक्षिणी तट पर मिसीसिपी नदी की लाई जलोढ़ मिट्टी पर बना लुइसियाना नाम का एक स्टेट है. ये स्टेट अपने खूबसूरत तटवर्ती इलाकों और एक अनोखे पक्षी ‘पेलिकन’ के लिए मशहूर है. लुइसियाना के झंडे और सील पर विराजमान इस पक्षी की खासियत, इसकी अनूठी, लम्बी चोंच है जिसके नीचे एक थैलीनुमा संरचना होती है. पेलिकल नदी के ऊपर आराम से उड़ते-उड़ते अचानक पानी में गोता लगाता है और अपने प्रिय आहार मछली को इसी थैली में कैद कर लेता है. 1950 के दशक में अचानक इस पक्षी की संख्या घटने लग गयी. 1960 आते-आते सिर्फ़ दो जोड़े ही बचे. तमाम शोध के बाद पता लगा कि इसकी वजह एक कीटनाशक ‘डी. डी. टी.’ है. जो फैक्ट्रियों के अपशिष्ट के साथ नदी में आकर मिलता है. वहां से मछलियों के पेट में जाता है और फिर वहां से उसे खाने वाले पेलिकन के शरीर में. प्रकृति का एक अजीब तंत्र ये है कि लाभदायक चीज़ों को तो जीवों का शरीर ज़रुरत भर ही अवशोषित कर पाता है लेकिन डी. डी. टी. जैसी हानिकारक चीज़ें शरीर की वसा में इकट्ठी होती चली जाती हैं. डार्विन के अनुसार किसी जीव की दुरुस्ती उसकी प्रजनन दर से मापी जा सकती है. 
बस, पेलिकन भी यहीं पर मात खा रहे थे. उनके शरीर में जमकर बैठा डी. डी. टी. उनके अण्डों के कवच को कमज़ोर करे दे रहा था. अंडे सेने के लिए जैसे ही मादा पेलिकन उन पर बैठती, वो अंडे उसके भार से टूट जाते. वजह पता चलते ही लुइसियाना सरकार ने डी. डी. टी. पर प्रतिबन्ध लगा दिया. देखते ही देखते कुछ ही सालों में पेलिकन की संख्या चार से चार सौ हो गयी. लुइसियाना में पेलिकनों की वापसी, मानव द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र की क्षतिपूर्ति का एक दुर्लभ उदाहरण है. ऐसा इसीलिये संभव हो पाया क्यूंकि समय रहते ही, दो बिलकुल जुदा दिखने वाली चीज़ों के बीच सम्बन्ध पहचान लिया गया. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति की हर एक जैविक-अजैविक इकाई, मिट्टी से लेकर मनुष्य तक, सब एक दूसरे से जुड़े हैं! पर्यावरण संरक्षण के लिए बस इतनी ही समझदारी विकसित करने की ज़रुरत है.
आम तौर पर पर्यावरण से जुड़े खतरों में ग्लोबल वार्मिंग का जिक्र ज़रूर आता है. लेकिन ये भी सिर्फ़ ग्लेशियरों के पिघलने तक ही सीमित रहता है. बर्फ़ पिघलना तो तापमान बढ़ने का बहुत प्रत्याशित परिणाम है लेकिन ज़्यादातर परिणाम बहुत अप्रकट और दूरगामी होते हैं. उदाहरण के तौर पर दक्षिण अफ़्रीका में पाए जाने वाले बहुत से हानिकारक परजीवी हैं जो कि ऊंचे तापमान पर आसानी से जीवित रह सकते हैं. पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ने से इनकी संख्या बढ़ती जा रही है, साथ ही मलेरिया जैसे रोग भी. कछुओं की कुछ प्रजातियों में भ्रूण का लिंग निर्धारण तापमान पर निर्भर करता है. भ्रूण के विकास के दौरान यदि तापमान, एक सीमा से ज़्यादा हो तो सारे बच्चे नर पैदा होते हैं. लेकिन बिना पर्याप्त मादा कछुओं के प्रजाति आगे कैसे बढ़ सकती है? पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न जीवों के बीच का सम्बन्ध इतना संतुलित और इतना सूक्ष्म है कि हमें ये दिखाई नहीं देता, जब तक कि हमारी खुद की गतिविधियाँ इस संतुलन को गड़बड़ा न दें. फर्ज़ कीजिये कि शिकारी किसी जंगल में शेरों का अंधाधुंध शिकार करते रहें और शेरों की संख्या में भारी कमी आ जाय तो, उस जंगल में हिरन जैसे शाकाहारी जीवों की संख्या बढ़ जायेगी जो कि अब तक शेर का आहार थे. निरंकुश हिरन अब जंगल की घास और पेड़-पौधों को चर कर धीरे-धीरे जंगल का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे. मामूली से मामूली दिखने वाली  प्रजाति की अपनी एक भूमिका है जो कोई और नहीं कर सकता. जब ‘न्यूरोस्पोरा’ नाम के एक परजीवी फंगस ने दुनिया भर की चावल की फ़सलों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया था तब केरल के जंगलों में मिली चावल की एक किस्म में इस फंगस का प्रतिरोधी जीन मिला था. इस साधारण से जंगली चावल ने, मनुष्य की एक भयानक अकाल से रक्षा की थी. ये अच्छा ही था कि केरल के जंगल तब तक हमारी विनाशलीला से बचे हुए थे. लेकिन तमाम जानी या अनचीन्ही प्रजातियों पर ये ख़तरा लगातार बना हुआ है. 
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मैल्थास का कहना था कि प्रकृति में खाद्य उत्पादन इतनी तेजी से नहीं बढ़ता जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ती है. उनके अनुसार संसाधनों की ये कमी ही जनसंख्या पर अंकुश लगाएगी. लेकिन मैल्थास ने मनुष्य की रचनात्मकता को कम करके आंक लिया था. जैसे-जैसे संसाधनों की कमी पड़ती गयी हमने नित नए उपाय-आविष्कार करने शुरू कर दिए. मानव सभ्यता की शुरुआत में जब तक मनुष्य शिकार और कंद-मूल इकट्ठा करके जीवित रहते थे तब तक वो प्रकृति से सिर्फ़ उतना ही लेते थे जितना कि उनके लिए ज़रूरी था. संचय की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी. उनकी जनसंख्या भी प्रकृति में उपलब्धता के आधार पर ही नियंत्रण में रहती थी. कहते हैं कि मनमाफ़िक औजार विकसित कर लेने की क्षमता ने ही हमें जानवरों से अलग पहचान दी. बड़े-बड़े पत्थरों को घिस-घिस कर इंसान ने अपना पहला हथियार बनाया. जिससे कि वो कभी जानवरों का शिकार करता, तो कभी पेड़ों की जड़ें खोदता. फ़िर उसने जंगल साफ़ करके खेती करने की ठानी और तभी कुल्हाड़ी-कुदालें बनाई और पूजी जाने लग गयीं. फिर  धातु की खोज और बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की शुरुआत हुई. औद्योगिक क्षेत्रों में बसते ही, परिवार उत्पादक के बजाय उपभोक्ता हो गए. जैसे ही हमने खाद्यान्न उगाने के बजाय, बाज़ार से खरीदना शुरू किया, वैसे ही प्रकृति और संस्कृति के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गयी. अब के वैज्ञानिक युग में तकनीकी उन्नति की दर सालों में नहीं हफ़्तों में नापी जाती है. इस तरह हम शिकारी से कृषक हुए, कृषक से उद्योगपति और अब जब खेती योग्य ज़मीन कम पड़ रही है तो हम रासायनिक खाद से लेकर फसलों की जीन संरचना तक में घुसपैठ कर चुके हैं. अब हम प्रकृति को जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों का अंगूठा दिखा रहें है, कि देखो हमें तुम्हारी दया की ज़रुरत नहीं! हर एक आविष्कार ने हमें प्रकृति में मनचाहा फ़ेरबदल कर लेने की ताकत दी. सभ्यता की तरफ़ बढ़ता हर क़दम, हमें प्रकृति से दूर करता चला गया और ये दूरी हज़ारों बरसों में पैदा हुई है. लेकिन आज भी तमाम जन-जातियां आदिकाल जैसी स्थितियों में रह रहीं है. उनको देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है. वो प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाना जानते हैं. वो अगर पेड़ काटते हैं तो सिर्फ़ सूखे हुए, फल खाते हैं तो पेड़ों से गिरे हुए, जानवरों का शिकार करते हैं तो मादा और बच्चों को कतई नहीं और अगर जानवर पालते हैं तो उनकी दिनचर्या के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं. उनके साथ चारागाह से चारागाह भटकते हैं, उन्हें डेयरी फार्मों में बांधकर अपने हिसाब से जीने पर विवश नहीं करते. उनकी भाषा, लोकोक्तियों और लोक गीतों में साफ़ ज़ाहिर है कि उनके लिए प्रकृति और संस्कृति का भेद बहुत गहरा नहीं है. इसलिए संरक्षित क्षेत्रों और वन्य अभ्यारण्यों से भी उन्हें निकाला नहीं जाता. जंगल उनके जीविकोपार्जन नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा है. वो ये कभी नहीं कहते कि ‘ये जंगल हमारा है’ बल्कि कहते हैं- ‘हम इस जंगल के हैं, ये जंगल ही हम सबको पालता है.’ इन जनजातियों से सीख लेकर यदि हम भी प्रकृति को अपना संसाधन समझने के बजाय खुद को प्रकृति का अटूट हिस्सा समझना शुरू कर दें तो हम शायद ही इसका विनाश कर पायेंगे. क्यूंकि विकास के नाम पर प्रकृति का क्षरण करने वाला हर क़दम विनाश की ऐसी श्रृंखला अभिक्रिया की शुरुआत कर देता है जिसका आदि और अंत, दोनों हम ही हैं. रॉकेट, जेट प्लेन और रेफ्रिजरेशन जैसी तकनीकों का अगर लाभ उठाना है तो उनसे निकली जहरीली गैसों के धुंए से ओजोन परत में हुए छेद से आती हानिकारक पराबैंगनी किरणों का दंश भी हमें ही भुगतना है.
अंत में एक अमेरिकी पर्यावरणविद, एडवर्ड एबी के शब्दों में-

“Growth for the sake of growth is the ideology of cancer cell.”

(“अंधाधुंध विकास, कैंसरग्रस्त कोशिका का लक्षण है.”)

Friday, April 11, 2014

टाइटैनिक का कायर


1912 में दुर्घटनाग्रस्त हुए मशहूर जहाज़ टाइटैनिक पर उसका मालिक और एक धनी व्यापारी, ‘जोसेफ़ ब्रूस इस्मे’ भी सवार था. जहाज़ जब डूबने लगा तो बच्चों और औरतों को बचाने की परवाह किये बिना वो एक लाइफबोट पर बैठ कर बच निकला. लेकिन बच कर वापस आते ही उसे ब्रिटिश और अमेरिकी मीडिया ने घेर लिया. कोई अखबार उसके कार्टून बनाता तो किसी ने उसकी ‘बर्बरता’ के ख़िलाफ़ कवितायेँ छापीं. उसे ‘टाइटैनिक का कायर’ की संज्ञा दे दी गयी. राहत कार्य में औरतों और बच्चों को दरकिनार करने की ज़िल्लत उसे ताउम्र झेलनी पड़ी. टाइटैनिक पर सवार 75% औरतों के मुकाबले सिर्फ़ 20% पुरुषों को बचाया जा सका था. अमीर से अमीर आदमी की भी जीवित बचने की संभावना निर्धनतम औरतों और बच्चों से कहीं कम थी. ये आंकड़े थोड़ी बहुत फ़ेरबदल के साथ किसी भी दुर्घटना और उसके राहत एवं बचाव कार्यों की सच्चाई बयान कर सकते हैं.
लगभग इसी समय के आस पास, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कई देशों में ‘सेफ्राजेट आन्दोलन' साँसे ले रहा था, जिसमें ‘वोट फॉर वुमन’ के नारे के ज़रिये औरतों को तमाम देशों में मताधिकार दिलाने की जी तोड़ कोशिश हो रही थी. इस आन्दोलन में शामिल औरतों को अक्सर ऐसी नाव दुर्घटनाओं का वास्ता देकर ये यकीन दिलाने की कोशिश की जाती थी, कि जब तक ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ सिद्धांत के पालक-पोषक पुरुष ज़िंदा हैं तब तक उन्हें अपनी चिंता करने की ज़रुरत नहीं. ये मताधिकार नहीं, बल्कि ‘पुरुषोचित व्यवहार’ है जो हमेशा उनका सच्चा हितैषी रहेगा. खीज कर कुछ महिलाओं ने नारा बदल कर ‘वोट फॉर वुमन एंड बोट फॉर मेन’ कर दिया.
ये नारा लैंगिक असमानता की दुधारी प्रवित्ति को रेखांकित करता है, जिसने एक तरफ़ औरतों को मताधिकार नहीं दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ आदमियों को लाइफ़बोट में बैठ कर अपनी जान बचाने की आजादी भी नहीं दी. चुनावी माहौल में वोट की चर्चा तो चल ही रही है, मुलायम सिंह की हालिया विवादास्पद टिप्पणी ने ‘वोट-बोट’ की बहस को देसी सन्दर्भ दे दिया है.
लैंगिक असमानता का शिकार स्त्री-पुरुष दोनों ही होते हैं और ये बयान इस बात का ताजातरीन उदाहरण है. हर उस औरत के लिए जिसे बच्चे पालने के लिए अपना हरा-भरा कैरियर छोड़ना पड़ता है, एक पुरुष है जो जीविकोपार्जन के लिए ओवरटाइम करने के लिए मजबूर है. उन्हें भी अपना पौरुष साबित करने के लिए तमाम परीक्षाएं देनी है. कभी रोना नहीं है, कोई भावनात्मक कमज़ोरी नहीं दिखानी और ज़रुरत पड़े तो शारीरिक बल दिखाने से भी पीछे नहीं हटना है. ‘हर औरत दुखियारी है’ के पीछे ‘हर पुरुष अत्याचारी है’ की एक मूक भावना है. स्त्री की हर एक बेचारगी का एक अनदेखा पुल्लिंग प्रतिबिम्ब भी है और दोनों का उतना ही विरोध होना चाहिए. लेकिन आम समझदारी यही है कि मुलायम सिंह का बयान और ऐसी तमाम चीज़ें स्त्रीविरोधी है, इसलिए इसका विरोध भी या तो महिला संगठन ही कर रहे हैं या फिर महिला सशक्तिकरण की टोन लिए हुए हैं.
मुलायम सिंह ने इसके साथ मृत्युदंड न सन्दर्भ भी टांक दिया है. आप भले ही मृत्युदंड के सिद्धांततः विरोधी हों, लेकिन ये बयान फिर भी आपको कचोटना चाहिए. क्योंकि ये मृत्युदंड के विरुद्ध किसी मानवतावादी नज़रिये से नहीं बल्कि उस मानसिकता से पगा है जो बलात्कार को बहुत बड़ा अपराध नहीं मानता. साथ ही उसे पुरुषों के स्वाभाविक व्यवहार का हिस्सा बताकर उन्हें भी अपमानित करता है.
क्या पुरुषों से हमारी उम्मीदें सचमुच इतनी कम हैं? और हम गाहे-बगाहे ऐसा जताकर पुरुषों की मानसिकता के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? फ़र्ज़ कीजिये कि आपका एक बेटा या बेटी है. आप रिश्तेदारों, पड़ोसियों के सामने दिन-रात उसकी निंदा करते नहीं थकते. उसकी कमअक्ली और नालायकी का रोना रोते रहते हैं. ऐसा करके आप उसी क्षण से उसके मनोबल और नैतिक स्तर के क्षरण के उत्प्रेरक बन जाते हैं. उस बच्चे के पास जीवन में न तो कुछ अच्छा करने का प्रोत्साहन है और ना ही उसे ऐसा करने में कोई फ़ायदा नज़र आता है. सबकी नज़र में तो पहले ही नकारा है, अब उसे कुछ अच्छा करने की क्या पड़ी है? ये नाउम्मीदी एक ऐसा चक्रव्यूह है जो एक बार शुरू हो जाय तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. हम पर लगी उम्मीदें ही हमारी महत्वाकांक्षाओं की सरहद तय करतीं हैं. पुरुष को नारी का रक्षा न कर पाने के लिए तो खूब अपमानित किया जाता है लेकिन बलात्कार या छेड़खानी के लिए उतना नहीं. दोनों बातें फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी लग सकतीं हैं लेकिन दरअसल हैं नहीं. दोनों ही पितृसत्ता कि उस मानसिकता का प्रतीक है को पुरुष को बल मात्र समझता है.
नारीवादी चिंतकों नें ‘वुमन इज़ वॉम्ब’ (नारी कोख मात्र है), की विचारधारा का खूब विरोध किया है. उनके हिसाब से पितृसत्ता में औरत के अस्तित्व को उसकी बायोलौजी से बाँध कर ही देखा गया है जिसके बिना पर उन्हें निर्णय क्षमता से विहीन बच्चे पालने-पोसने का यंत्र बता कर कभी मताधिकार से तो कभी डिग्री पाने से रोका गया. अपनी जगह ये बात बिल्कुल ठीक है. लेकिन ज़रा सोचिये कि इस व्यवस्था में पुरुषों को क्या उनके लिंग से ज्यादा कुछ समझा गया? इसके हिसाब से वो भी हरमोन से संचालित होतें हैं और अपने जननांगों से सोचतें हैं. वो सिर्फ़ असीम शारीरिक बल का प्रतीक हैं, जो या तो मुसीबत में नारी को बचाएंगे या फिर उसी पर शारीरिक बल का इस्तेमाल करेंगे. दोनों ही आयाम उनकी मूल प्रकृति का हिस्सा माने जाते हैं.  
हर तरह की हिंसा और असमानता के बरक्स, ताकत का वास्तविक या सांकेतिक का डंडा जिसके भी हाथ में दिखता है हम उस पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को नज़रंदाज़ करते चले जाते हैं. लैंगिक असमानता ने पुरुषों के साथ जो किया वो हमारी नज़र में नहीं आता क्यूंकि वो ही तो हमारी नज़र में पितृसत्ता के सृजक और पोषक हैं. ये एक मिथ्या अवधारणा है. कोई भी सामाजिक व्यवस्था उस समाज के आर्थिक-सामाजिक परिवेश और पर्यावरण की मिलीभगत से सदियों में अस्तित्व और आकार पा पाती है. अगर उसमें कुछ खामियां हैं तो उसका दोष किसी ख़ास वर्ग पर थोपना, बेहद सतही प्रतिक्रया है. स्त्री को कोमलांगी समझना उसी सिक्के का पट है जिसके चित पर पुरुष की अजेय मांसपेशियां अंकित हैं. एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता था, न ही एक के बिना दूसरा ख़त्म किया जा सकता है.
नारी-अधिकार धुरंधरों के चलते औरतों को ‘वोट’ तो मिल गया है, लेकिन अब समय है कि आदमियों को भी उनकी ‘बोट’ दे दी जाय! साथ ही मुलायम सिंह के बयान की निंदा सिर्फ़ नारीविरोधी नहीं बल्कि पुरुषविरोधी लहजे की वजह से भी की जाय.

Wednesday, February 26, 2014

क्यूंकि सड़क पर तो हम ही मिलतें हैं.....


ऑटोचालक जैनू
जोड़ा-ए-माँ बाप ने नाम दिया है जैनू. पेशे से ऑटोरिक्शा चालक और प्रजाति- आम आदमी. भारत की भीड़ का वो ‘मिनिमम कॉमन डिनॉमिनेटर’ जो दशमलव की बिंदी की तरह कहीं भी लगकर कभी वोट और कभी चवनिया फ़िल्मों के कलेक्शन कई गुना घटा-बढ़ा सकता है. या फिर मारे गए गुलफ़ाम का हीरामन कहूं, जो सोच रहा है कि अपने ऑटो पर बैठी संभ्रांत सवारी से बात कैसे शुरू की जाय? कि उसे ‘आप’ कहा जाय या ‘तुम’?
कहतें हैं कि दुनिया में हर चीज़ के दो प्रयोजन होते हैं- एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष. इस तर्ज़ पर राजनीति का अघोषित मकसद शायद अजनबियों के बीच बातें शुरू करवाने का उत्प्रेरक बनना है. घर से यूनिवर्सिटी तक पहुँचने ‘आप’ का एक पोस्टर पड़ा. मेरा उसे देखना जैनू रियर व्यू मिरर में ताड़ लेते हैं. “अबकी वोट दोगे इनको?” बस, बातचीत शुरू हो गयी.
“आप लड़कियों की वजह से क्लास लग रही है आजकल हमारी.” तो असल गांठ ये है!
भारत सरकार, मानस नाम की एक संस्था के सहयोग से दिल्ली में जेंडर सेन्सिटाईज़ेशन प्रोग्राम चला रही है. ऑटो रिक्शा चालक और पुलिस वालों के लिए. चार दिनों तक हर रोज़ दो घंटे की क्लास करनी पड़ेगी.
“हमारा लाइसेंस तभी रिन्यू होगा.” बदलाव के लिए या तो दंड देना होगा या फिर लालच. नए से लग रहे ओटो में महिला फ्रेंडली होने के पोस्टर पटे पड़ें हैं. आप सोच सकतें हैं कि इनसे होगा क्या? लेकिन शुरुआत तो कहीं ना कहीं से करनी ही होगी. बरसों की व्यवस्था चुटकियों में नहीं बदलती. पर सरकार और क़ानून हमेशा से ही बदलाव की बयार चलाने में सक्षम रहें है. सही दिशा मिलनी चाहिए बस.
जैनू का ऑटो
जैनू की क्लास का कंटेंट जानने की इच्छा हुई. “आप ही के जैसी लड़कियां सिखातीं हैं हमें. (थोड़ी तगड़ी आपसे कम हैं!) हमें बताया जाता है कि कोई लेडीज़ सवारी को ये मत समझो कि हमारी ग्राहक है, ये समझो कि हमारी माँ है, बहन है उसकी इज्ज़त करो.” इस बात के साथ अपनी समस्याएँ है. क्या ये ‘माँ-बहन’ और ‘सुरक्षा देने’ वाला मामला उसी सिस्टम का प्रतीक नहीं है जिससे लड़ने की कोशिश की जा रही है? उन लड़कियों का क्या जो ‘माँ- बहन’ की तरह रहती, बरतती, पहनती, ओढ़ती नहीं है. मनमर्ज़ी से देर रात आती-जाती हैं? क्या सुरक्षा का जिम्मा राज्य से हटकर जनता के हाथ में आ जाने का मतलब ये होगा कि आत्मनिर्भर लड़कियां, इन जोशीले ‘रक्षकों’ की शिकायत भरी भिनभिनाहट सुनेंगी कि उनके स्वच्छंद व्यवहार ने ही उनकी सुरक्षा करना कितना मुश्किल बना दिया है? आर ख़ुद जैनू का क्या जिन पर इन अतिरिक्त अपेक्षाओं भार आ पड़ा है? या फिर लोहे को लोहे से काटने, ज़हर को ज़हर से ही उतारने की तर्ज़ पर ये फ़ार्मूला सफ़ल होगा?

अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. इतना तय है कि समानता पर आधारित समाज में पुरुष को सिर्फ़ रक्षक या भक्षक ही नहीं समझा जाएगा. लड़की भी किसी की ज़िम्मेदारी नहीं होगी. लेकिन वहां तक पहुँचने के लिए शायद इन पूर्वस्थापित, पितृसत्तात्मक प्रतीकों का सहारा लेना ही पड़ेगा. जो पहले से ही लैंगिक समानता के पक्षधर हैं उनके लिए शायद ये मुहिम ज़्यादा काम की नहीं है लेकिन अगर इनसे इतर लोगों को प्रभावित करना है तो उनकी मानसिकता में झांकना पड़ेगा. उन्हीं की भाषाई गुफ़ा-कन्दराओं में भटकना पड़ेगा. कुछ वैसे ही जैसे ‘पोलियो उन्मूलन’ कार्यक्रमों के लिए धार्मिक फ़तवों की मदद लेनी पड़ी था. शौचालय बनवाने के लिए प्रेरित करने के लिए ‘बहू-बेटियों’ के खुले में शौच करने को उनकी ‘मर्यादा’ के ख़िलाफ़ बताना पड़ा था.
आखिर इस ‘मिनिमम कॉमन डिनॉमिनेटर’ तक जो ज्ञान न पहुंचे वो किस काम का? क्यूंकि बकौल जैनू ही, “रात-बेरात कहीं भी जाओ, सड़क पर तो हम ही मिलेंगे मैडम!”
अपना कॉलेज आ चुका था. “हम भी चलते हैं मैडम. वापस बुराड़ी जाना है. सुबह भी क्लास की थी अभी भी दोबारा दो घंटे बुराड़ी में क्लास. मेरे जैसे बहुत से ऑटो वालों की.” इस कथन में उलाहना तो है लेकिन तिरस्कार नहीं.

अब चलना होगा हीरामन. फिर मिलेंगे. तब तक शायद कुछ बदल चुका होगा या फिर बदलाव का दौर यूं ही चल रहा होगा. सफ़र शायद मंजिल से ज़्यादा सिखाते हैं. सबक सीखने की प्रक्रिया में हम भी कुछ बदल जाते हैं और शायद सबक भी वैसा का वैसा नहीं रहता.      

ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है -
http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=62632%3A2014-03-24-06-55-03&catid=21%3Asamaj 

फ़ोटोग्राफ़ में- ऑटोचालक जैनू और उनका ऑटो.

Sunday, January 12, 2014

एक खुला ख़त अरविन्द केजरीवाल के नाम


श्री अरविन्द केजरीवाल जी,

अभी कुछ ही महीने पहले की बात है. चुनाव कैम्पेन का माहौल था. तमाम वादे-नारे कहे-सुने जा रहे थे. ऐसे में आपका एक विज्ञापन ऑटो के पीछे दिखाई दिया- “हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमांडो फ़ोर्स बनाएगी.” इरादा नेक ही लगा और मुद्दा भी मौजूं था. उसी वक्त आपको एक खुला ख़त लिखकर इस मुद्दे पर आपका विस्तृत विचार जानने की इच्छा हुई. लेकिन आप भी जानते हैं कि हमारे देश में जनता और नेता के बीच एक अबोला सा है. यथास्थितिवाद का फैशन है और ‘छोड़ो, इससे क्या होगा’ वाली उदासीनता भी है. हालांकि आपके आने का बाद स्थिति बदली है. ऐसा लगने लगा है राजनीति आम आदमी से दूर कोई हवा-हवाई चीज़ नहीं है और भ्रष्टाचार जैसे ज़मीनी मुद्दे पर भी चुनाव लड़-जीते जा सकते हैं. इसलिए उस चिट्ठी को लिखने की इच्छा दोबारा बलवती हुई. अंततः लिखे ही दे रही हूँ, ताकि सनद रहे.

इससे पहले कि दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर बात की जाय, ये जान लेना ज़रूरी है कि दिल्ली में आखिर कौन लड़कियां रहतीं हैं और दिल्ली उनको क्या देती है? दिल्ली, मूल निवासियों और जाने पहचाने पड़ोस वाला शहर नहीं है. ये असीमित संभावनाओं का शहर है जहाँ लोग अपनी महात्वाकांक्षाओं को पूरा करने आते हैं. कस्बों से उठकर यहाँ आने वाली लड़कियां कॉल सेंटरों में काम कर रहीं हैं, मैकडोनाल्ड में पार्ट टाइम जॉब कर रहीं हैं, घरेलू कामगार हैं, यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. कर रहीं हैं, साल-दर-साल प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ रहीं हैं. वो सबकुछ कर रहीं हैं जिसकी इजाज़त बंदिशों की उमस भरा क़स्बाई परिवेश उन्हें नहीं देता.
विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियां दिन भर कौलेज के छतों-मीनारों-सेमिनारों में फेमिनिज़म, कम्यूनिज़म से लेकर डार्विन के सिद्धांतों पर गले फाड़ती हैं. आन्दोलनों में नारेबाज़ी करतीं, लिंगभेद की थ्योरिटिकली ऐसी- तैसी करतीं हैं. फिर घड़ी में आठ बजता देखकर सरपट भागतीं हैं ताकि हॉस्टल की समय-सीमा ना पार हो जाय. जो वोट देने की उम्र की हो चुकी हैं वो भी बात- बात में गार्जियन से कंसेंट फॉर्म भरवाती हैं. तुर्रा ये है कि ये सब उन्हीं की सुरक्षा के लिए तो है. यहाँ मेरी नीयत नियमों-अनुशासनों की भर्त्सना करने की नहीं है. लेकिन सुरक्षा और नियंत्रण में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? क्या किसी को सुरक्षा देने के लिए उसकी बुद्धि-विवेक और निर्णय क्षमता पर सवालिया निशान लगाना अपरिहार्य है?

इतने सब के बावजूद 16 दिसंबर जैसी कोई घटना हो ही जाती है और मीडिया उस पर टूट पड़ती है. दिल्ली की लड़कियों की बेचारगी पर स्पेशल प्रोग्राम बनते हैं जिसमें दिल्ली हमेशा विलेन होती है. घरवाले आतंकित होकर दिल्ली गयी लड़कियों को वापस बुलाने की जुगत में लग जाते हैं. सपनों को पूरा करने के लिए मिली मियाद, जो पहले ही छोटी थी, उसमें और भी कटौती हो जाती है. क्या दिल्ली को बदनाम और लड़कियों को आतंकित किये बिना इस समस्या से लड़ना मुमकिन नहीं है?
कहते हैं कि राजनीति संख्या का खेल है. महिलाएं आधी आबादी तो हैं लेकिन फिर भी किसी जाति या धर्म की तरह कोई वोट बैंक नहीं बनातीं. वो अलग-अलग धर्म, जातियों और क्लास के बीच बंटी हुई रहतीं हैं. इन वर्गों की समस्याओं को ही उनकी समस्या और उनके समाधान में ही महिलाओं की समस्या का समाधान निहित मान लेने की प्रवृत्ति रही है. पश्चिम में महिलाओं लम्बे समय तक मताधिकार ना देने के पीछे यही मानसिकता थी. हमारे अपने देश में भी आज़ादी के बाद मताधिकार देकर ये समझ लिया गया कि भुखमरी-ग़रीबी ही देश की मुख्य समस्याएँ हैं और इन वर्गों की महिलाओं की जो भी समस्याएँ हैं वो इनके निवारण के साथ ही ख़तम हो जायेंगीं. जो कि सत्तर के दशक में बड़ी मशक्कत से तैयार की गयी ‘टुवर्ड्स इक्वालिटी’ रिपोर्ट के हिसाब से  एक ग़लत अनुमान निकला. दहेज उत्पीड़न, भ्रूण हत्या से लेकर शैक्षिक और आर्थिक मुद्दों में औरतों की लगभग नगण्य भागीदारी जैसे तमाम मुद्दे सामने आने शुरू हुए.
ज़ाहिर है, महिलाओं की अपनी समस्याएँ तो हैं लेकिन इन मुद्दों को राजनीति में मिलने वाली की महत्ता का मौसमी उतार-चढ़ाव अक्सर महिलाओं पर होने वाली हिंसा की रिपोर्टों पर ही निर्भर रहा है. ऐसा लगता है जैसे जेंडर का मतलब सिर्फ़ औरतें हैं और लिंगभेद का मतलब सिर्फ महिलाओं के पर होने वाले शारीरिक अत्याचार ही हैं. हिंसा से इतर, लिंगभेद के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो कि महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी को ज़्यादा बाधित करते हैं. जैसे- महिला शौचालय और कामकाजी महिलाओं के बच्चों के लिये क्रचेज़ की व्यवस्था ना होना. ये मुद्दे अक्सर यौन अपराधों की आक्रामक खबरों और उन्हें मिलने वाले मीडिया कवरेज के पीछे छुप जाते हैं. ‘आप’ ने भी महिला मुद्दों का संज्ञान 16 दिसंबर की घटना के बाद ही लिया था. खैर, ‘देर आये दुरुस्त आये’ की तर्ज़ पर मुझे इस बात से कोई ऐतराज़ भी नहीं है. मेरी मंशा तो महिला सशक्तिकरण के मामले में आपका सैद्धांतिक स्टैंड जानने की है. क्या आपकी नीतियाँ भी ‘महिला-स्पेशल’ की बौछार करने और लैंगिक अपराध की दर नीचे लाने तक ही सीमित रहेंगी या लैंगिक समानता के बारे में आपकी पार्टी की कोई वृहद् विचारधारा भी है?
महिला बैंक से लेकर लेडीज़ बस और महिला पुलिस चौकी तक के वादे तो दूसरी पार्टियों ने भी किये हैं और कभी-कभी वो पूरे भी हुए हैं. दरअसल इस तरह से लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना बहुत आसान है और ऐसा करने में वाहवाही मिलने की गुंजाइश भी ज़्यादा है. लेकिन उन्हें पब्लिक स्पेस में उसी तरह से फिट कर पाना जिस तरह पुरुष हैं या फिर पब्लिक स्पेस को महिलाओं के लिए उतना ही अनुकूल बना पाना जितना वो पुरुषों के लिए है, ज्यादा मुश्किल काम है. अक्सर आसान काम कर लेने का आत्मसंतोष हमसे पड़ाव को ही मंजिल समझ लेने की भूल करवा देता है. ऐसे में ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि किसी भी क्षेत्र में ‘महिला स्पेशल’ श्रेणी, अपने आप में कोई समाधान ना होकर लैंगिक समानता तक पहुँचने की एक रणनीति भर है और अंततः उस श्रेणी को ख़त्म करने की तरफ़ बढ़ना है. यहीं पर राजनैतिक दृढ़ता की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है. मैं जानती हूँ कि यहाँ आदर्शस्थिति की बात की जा रही है जिसे चुटकियों में नहीं पैदा किया जा सकता. वहां तक पहुँचने के लिए शायद इस लेडीज़-स्पेशल कैटेगरी का इस्तेमाल करना भी पड़े. लेकिन तब तक अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं मान लेनी है जब तक इन बैसाखियों की ज़रुरत ना रह जाय. चाहे वो बिजली कंपनियों की ऑडिट करने का निर्णय हो या फिर भ्रष्टाचार विरोधी हेल्प्लालाइन लाना हो, बाकी मामलों में भी आपने आसान और लोकप्रिय होने के बजाय कड़क और सिद्धांतवादी होने को तरजीह दी है, इसलिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर भी आपसे अपेक्षाएं थोड़ी ऊंची ही हैं.
लैंगिक उत्पीड़न हर लड़की की ज़िंदगी का हिस्सा ही न हो, लेकिन इससे बचाने के लिए उन पर लादे गए सामाजिक और न्यायिक बंधन उनकी दिनचर्या बन जाते हैं. दिल्ली को बदनाम करने का असर अपराधियों पर हो ना हो उन हज़ारों लड़कियों के भविष्य पर ज़रूर होता है जिनके दिल्ली आने पर प्रतिबन्ध लग जाता है क्यूंकि वो एक ‘बुरा’ शहर है. इसका मतलब उनका देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों और बहुत सी बेहतरीन करियर संभावनाओं से वंचित रह जाना है, जो कि अपना आप में एक ‘सायलेंट’ लिंगभेद है, जिससे बचना जितना ज़रूरी है उतना ही मुश्किल भी.
इतना कुछ मांगकर शायद मतदाता का नेता पर जितना हक़ होता है उसका भी अतिक्रमण कर रही हूँ.  लेकिन जब माँगने की दीनता करनी ही है तो आसान चीज़ें क्यूँ माँगी जाएँ?. महिलाओं के लिए अलग से बैंक क्यूँ मांगूं, हर एक बैंक उनका होना चाहिए. वो सिर्फ लेडीज़ कम्पार्टमेंट या लेडीज़ बस के बजाय हर जगह हर वक्त सुरक्षित क्यूँ न महसूस करें? अलग से महिला पुलिस फ़ोर्स के बजाय पूरी पुलिस फ़ोर्स को ही जेंडर सेंसिटिव बनाने की कोशिश क्यों ना की जाय? महिलाएं भी नागरिक हैं और समान नागरिक का दर्जा देना उन्हें विशेषाधिकार दिए बिना भी संभव है. क्या ‘आप’ ये (कम से कम कोशिश) कर सकेंगे?