‘बॉबी जासूस’ से पहले शायद ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ ही ऐसा कर पायी है. जिसमें
मुख्य किरदारों के नाम ‘शर्मा’, ‘मेहता’ या ‘सिंह’ नहीं थे. ऐसा होने के बाद भी वो
एक मुख्यधारा की फिल्म थी. उस फ़िल्म के तमाम मुख्य किरदार ‘खान’ थे लेकिन उसकी
बार-बार उद्घोषणा की ज़रुरत नहीं थी. अब तक ये विशेषाधिकार हमारी फिल्मों में सिर्फ़
हिन्दू नायकों के लिए सुरक्षित है. हमारी
फ़िल्म के सारे नायक ऊंची जाति के पुरुष ही क्यूं होंगे ये सवाल हमने अपने
फिल्मकारों से कभी पूछा ही नहीं. शायद हमारे दिमाग में भी नहीं आया. क्यूँ मुस्लिम
युवक या तो आतंकवादी होंगे, या फिर हीरो की रोमांस में मदद करने वाले शायर या फिर
शान्ति के मसीहा जैसे कुछ, जिससे बाकियों के पाप धुल जाएँ? कुल मिलाकर उनका
मुस्लिम होना ही उनकी पहचान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहेगा. बाक़ी बातें गौण
होंगी. वो ‘फ़ना’ का नायक हो सकता है, ‘दबंग’ या ‘हौलिडे’ का कतई नहीं. हिन्दू नायक
कभी डॉक्टर होगा, कभी सैनिक, कभी इंजीनियर, साथ में उसका हिन्दू होना जैसे उसके
खाने-पीने, सांस लेने जितना ही स्वाभाविक है.
ऐसे में मुस्लिम औरत एक ऐसा क्रॉस सेक्शन है जिसका हमारी फ़िल्म में
नायक बनकर आना एक घटना है. ‘बॉबी जासूस’ की खूबसूरती ये नहीं है कि उसकी नायिका एक
मुस्लिम औरत है. बल्कि एक फ़िल्म के रूप में अपनी तमाम खामियों के बावजूद उसकी
सफ़लता ये है कि फ़िल्म देखते हुए हम ये बात बिलकुल भूल जाते हैं. ‘बिलकीस बानो’ को
फ़िल्म का नायक (जब तक फ़िल्म को अपने कन्धों पर उठाने वाले के लिए कोई ‘जेंडर
न्यूट्रल’ विशेषण न हो) बनने के लिए न दंगा पीड़ित होने की ज़रुरत हुई, न ही औरतों
के ऊपर हुए अत्याचारों का बदला लेने की. हैदराबादी लहजे में बोलने वालों को जोकर
दिखाने की भी ज़रुरत नहीं है. कैरियर के चुनाव को लेकर तनाव और संवादहीनता की
स्थिति पिता और ‘बेटी’ में भी हो सकती है. बिलकीस अपने जैसी रहते हुए भी सिर्फ़
‘समानांतर सिनेमा’ नहीं बल्कि मुख्यधारा सिनेमा का मुख्य किरदार हो सकती है जहां उसे
‘मर्दानी’ बनने की ज़रुरत नहीं. ‘वुमन’ और ‘माइनौरिटी’ के ख़ास दर्जे और मुद्दों के
बिना भी एक पूरी फ़िल्म उस पर केन्द्रित रह सकती है. बराबरी शायद ऐसी ही दिखती है!
आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - जन्मदिवस : गुरु दत्त और संजीव कुमार में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteशुक्रिया!
Deleteएक सार्थक पहल की ओर आपने ध्यान दिलाया। धन्यवाद
ReplyDeleteशुक्रिया अरमान, ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
Delete''हिन्दू नायक कभी डॉक्टर होगा, कभी सैनिक, कभी इंजीनियर, साथ में उसका हिन्दू होना जैसे उसके खाने-पीने, सांस लेने जितना ही स्वाभाविक है. ''आपने बिलकुल सही सवाल उठाया हे हा तस्वीर के और भी पहलु हे तरुण विजय जी आदि संघी ब्लॉगर शिकायत करते रहते हे की हिंदी फिल्मो में पादरी मौलाना को हमेशा सह्रदय दिखाया जाता हे जबकि पुजारियों को धूर्त
ReplyDeleteमेरे हिसाब से ये ज़्यादातर मुस्लिम किरदारों को राष्ट्र्विरोधी तत्वों के रूप में दिखाए जाने का ही कम्पेंसेशन मात्र है. हाँ, धार्मिक लोगों के प्रति पूर्वाग्रह की बात से सहमत हूँ. दरअसल, ज़्यादातर फ़िल्मकार धार्मिक और साम्प्रदायिक के बीच का फर्क करने में असफ़ल रहें हैं. एक बार फिर, कमेन्ट के लिए शुक्रिया!
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