इस तरह की नैतिकता का पाठ
पढ़ाना धर्मगुरु होने की पात्रता तो हो सकती है लेकिन स्वास्थ्य नीतियों के साथ
इसका घाल-मेल बहुत घातक है. नीति नियंताओं और शिक्षकों ने जब भी जागरूकता पैदा
करने की ज़िम्मेदारी नैतिक शिक्षा के सहारी छोड़ी है, तब-तब मुंह की खाई है. नब्बे के दशक में अमेरिका में किशोर लड़कियों
में बढ़ती गर्भाधान की दर से निपटने के लिए किये गए उपाय इसका उदाहरण है. कुछ
कैथोलिक स्कूलों ने ‘यौन-शिक्षा’ के बजाय ‘एब्स्टिनेंस ओनली’ कार्यक्रमों का सहारा लेना ज़्यादा पसंद किया. २०१० के सरकारी आंकड़े
बताते हैं कि मिसीसिपी जैसे राज्यों में जहां यौन शिक्षा नहीं दी गयी वहां
किशोरियों में अनचाहे गर्भ की दर न्यू हैम्पशायर जैसे उदार राज्यों से अधिक है
जहां के स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाती है. जागरूकता विहीन युवा और किशोरों के
पास ग़ैरइरादतन गर्भ और एड्स से बचने की कोई तैयारी नहीं होती. क़ानून या उपदेश के
बूते हम किसी के लिए यौन गतिविधि की उम्र नहीं तय कर सकते. कम से कम नीति नियंताओं
को इस मुगालते में नहीं आना चाहिए. हां, सही जानकारी और कंडोम के प्रचार-प्रसार के ज़रिये उन्हें एड्स जैसी
तमाम संक्रामक बीमारियों के खतरे से ज़रूर बचाया जा सकता है. अब बात कंडोम के विज्ञापनों की
आती है. डॉक्टर हर्षवर्धन की शिकायत कंडोम के विज्ञापनों के ज़रिये हर तरह के
संबंधों को जायज़ दिखाने की है. गौरतलब है कि हाल ही में अभिनेता रणवीर सिंह ने
ड्यूरेक्स कंडोम का ऐड किया जिसमें वो हर बार अलग लड़की के साथ नज़र आते हैं. ये एक
अजीब संयोग है लेकिन फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी दिखने वाली इन दोनों घटनाओं में एक
जैसा ही सन्देश निहित है. डॉ. हर्षवर्धन अगर मोनोगैमी को कंडोम का विकल्प मानते
हैं तो क्या वो इस बात की अनदेखी नहीं कर रहे कि बेहद इमानदार संबंधों में भी
अनचाहे गर्भ और एस.टी.डी. का ख़तरा होता है. इसी तरह ‘डू द रेक्स’
का विज्ञापन पुरुषों की ‘बिन लगाम के घोड़े’
वाली छवि को भुना रहा है. दोनों ही अपने- अपने तरीके से वैवाहिक
संबंधों के भीतर कंडोम की ज़रुरत को कम करके आंक रहें है. ये ठीक है कि
नैतिकता किसी भी विज्ञापन को कटघरे में खड़ा करने का बहाना नहीं बन
सकता लेकिन जो उत्पाद किसी सामाजिक सारोकार से जुड़ा हो मीडिया में उसके चित्रण की
पड़ताल ज़रूरी है. अस्सी-नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले निरोध के विज्ञापनों
में पुरुष कभी ‘कैसीनोवा’ नहीं होते
थे. वो ज़्यादातर हमारे आस-पास का शादीशुदा आदमी थे. क्या मध्यम और निम्न-मध्यम
वर्ग तक जागरूकता पहुंचाने के लिए ये ‘आम आदमी’ वाली छवि ज़्यादा सहायक नहीं है?
एक और रोचक पहलू महिलाओं का
ऐसे विज्ञापनों से नदारद रहना भी है. क्या इसे हमारे समाज में शारीरिक संबंधों के
मामले में औरतों के पास निर्णय लेने का ज़्यादा अधिकार न होने का प्रतिबिम्ब माना
जाय? एक पूजा बेदी के ‘कामसूत्र’ विज्ञापनों को अपवादस्वरूप
छोड़ दें, तो आज भी किसी मुख्यधारा की
अभिनेत्री का कंडोम के ऐड में दिखाई देना उसके कैरियर के लिए घातक होगा. औरतें
दिखीं हैं तो ‘माला डी’ के ऐड में, वो भी हमेशा शादीशुदा जिनके
लिए गर्भनिरोधक गोलियां बच्चों में अंतर रखने का एक तरीका है निडर प्रणय संबंधों
का साधन नहीं. ‘डू द रेक्स’ में लड़कियां तो हैं लेकिन
वो निर्णयकर्ता नहीं निष्क्रिय सजावटें हैं जो सिर्फ़ विज्ञापन को ज़्यादा उत्तेजक
बनाने के लिये है. लेकिन स्थापित मानकों का इस्तेमाल शायद ऐसे विज्ञापन निर्माताओं
की मजबूरी है कभी व्यावसायिक लाभ के लिए तो कभी ज़्यादा से ज़्यादा जनता को बिना
प्रतिरोध के जागरूक करने के लिए.
लेकिन स्वास्थ्य मंत्री और
डॉक्टर होने के नाते क्या हर्षवर्धन जी की क्या ये ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इस
बहस को नैतिकता के बजाय यथार्थ के प्रिज़्म से देखने और दिखाने की कोशिश करें. आज
इंटरनेट और टी.वी. की व्यापक पहुँच हर तरह के अधकचरा ज्ञान को घर- घर पहुंचा रही
है. आप न यौन जिज्ञासा को रोक सकते हैं और न ही आपसी सहमति से बने किसी भी तरह के
विवाह-पूर्व, विवाहेतर या वैवाहिक
संबंधों को. लेकिन उन्हें सुरक्षित ज़रूर बना सकते है. एड्स की बढ़ती दरों के बीच
कंडोम सबसे प्रक्टिकल उपाय है. वैसे भी ये एक बचकानी अवधारणा है कि लोग हर तरह के
यौन सम्बन्ध सिर्फ़ इसलिए बनाने लगेंगे क्यूंकि कंडोम आसानी से उपलब्ध है! स्वास्थ्य
विभाग अगर अपना नैतिक-अनैतिक थोपे तो असफ़ल होगा क्यूंकि सबके लिए एक ही रेडीमेड
नैतिकता काम नहीं करती. वहीं अगर वो नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष रहकर जागरूकता
अभियान में अपनी ताकत झोंके तो ज़रूर सफ़लता मिलेगी क्यूंकि जागरूकता की कमी ही उनकी
चिंता का विषय हो सकता है. नैतिकता की कमी की भरपाई करना किसी भी मंत्री या सरकारी
मंत्रालय के अधिकारक्षेत्र के बाहर है.
डॉक्टर हर्षवर्धन का साक्षात्कार
विस्फोट.कॉम पर यह लेख
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