अमेरिका के दक्षिणी तट पर मिसीसिपी नदी की लाई
जलोढ़ मिट्टी पर बना लुइसियाना नाम का एक स्टेट है. ये स्टेट अपने खूबसूरत तटवर्ती
इलाकों और एक अनोखे पक्षी ‘पेलिकन’ के लिए मशहूर है. लुइसियाना के झंडे और सील पर
विराजमान इस पक्षी की खासियत, इसकी अनूठी, लम्बी चोंच है जिसके नीचे एक थैलीनुमा
संरचना होती है. पेलिकल नदी के ऊपर आराम से उड़ते-उड़ते अचानक पानी में गोता लगाता
है और अपने प्रिय आहार मछली को इसी थैली में कैद कर लेता है. 1950 के दशक में
अचानक इस पक्षी की संख्या घटने लग गयी. 1960 आते-आते सिर्फ़ दो जोड़े ही बचे. तमाम शोध
के बाद पता लगा कि इसकी वजह एक कीटनाशक ‘डी. डी. टी.’ है. जो फैक्ट्रियों के
अपशिष्ट के साथ नदी में आकर मिलता है. वहां से मछलियों के पेट में जाता है और फिर
वहां से उसे खाने वाले पेलिकन के शरीर में. प्रकृति का एक अजीब तंत्र ये है कि
लाभदायक चीज़ों को तो जीवों का शरीर ज़रुरत भर ही अवशोषित कर पाता है लेकिन डी. डी.
टी. जैसी हानिकारक चीज़ें शरीर की वसा में इकट्ठी होती चली जाती हैं. डार्विन के अनुसार किसी जीव
की दुरुस्ती उसकी प्रजनन दर से मापी जा सकती है.
बस, पेलिकन भी यहीं पर मात खा रहे
थे. उनके शरीर में जमकर बैठा डी. डी. टी. उनके अण्डों के कवच को कमज़ोर करे दे रहा
था. अंडे सेने के लिए जैसे ही मादा पेलिकन उन पर बैठती, वो अंडे उसके भार से टूट
जाते. वजह पता चलते ही लुइसियाना सरकार ने डी. डी. टी. पर प्रतिबन्ध लगा दिया.
देखते ही देखते कुछ ही सालों में पेलिकन की संख्या चार से चार सौ हो गयी. लुइसियाना
में पेलिकनों की वापसी, मानव द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र की क्षतिपूर्ति का एक दुर्लभ
उदाहरण है. ऐसा इसीलिये संभव हो पाया क्यूंकि समय रहते ही, दो बिलकुल जुदा दिखने
वाली चीज़ों के बीच सम्बन्ध पहचान लिया गया. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
प्रकृति की हर एक जैविक-अजैविक इकाई, मिट्टी से लेकर मनुष्य तक, सब एक दूसरे से
जुड़े हैं! पर्यावरण संरक्षण के लिए बस इतनी ही समझदारी विकसित करने की ज़रुरत है.
आम तौर पर पर्यावरण से जुड़े खतरों में ग्लोबल
वार्मिंग का जिक्र ज़रूर आता है. लेकिन ये भी सिर्फ़ ग्लेशियरों के पिघलने तक ही सीमित
रहता है. बर्फ़ पिघलना तो तापमान बढ़ने का बहुत प्रत्याशित परिणाम है लेकिन ज़्यादातर परिणाम बहुत
अप्रकट और दूरगामी होते हैं. उदाहरण के तौर पर दक्षिण अफ़्रीका में पाए जाने वाले
बहुत से हानिकारक परजीवी हैं जो कि ऊंचे तापमान पर आसानी से जीवित रह सकते हैं. पृथ्वी
का औसत तापमान बढ़ने से इनकी संख्या बढ़ती जा रही है, साथ ही मलेरिया जैसे रोग भी. कछुओं
की कुछ प्रजातियों में भ्रूण का लिंग निर्धारण तापमान पर निर्भर करता है. भ्रूण के
विकास के दौरान यदि तापमान, एक सीमा से ज़्यादा हो तो सारे बच्चे नर पैदा होते हैं.
लेकिन बिना पर्याप्त मादा कछुओं के प्रजाति आगे कैसे बढ़ सकती है? पारिस्थितिकी
तंत्र में विभिन्न जीवों के बीच का सम्बन्ध इतना संतुलित और इतना सूक्ष्म है कि
हमें ये दिखाई नहीं देता, जब तक कि हमारी खुद की गतिविधियाँ इस संतुलन को गड़बड़ा न
दें. फर्ज़ कीजिये कि शिकारी किसी जंगल में शेरों का अंधाधुंध शिकार करते रहें और
शेरों की संख्या में भारी कमी आ जाय तो, उस जंगल में हिरन जैसे शाकाहारी जीवों की
संख्या बढ़ जायेगी जो कि अब तक शेर का आहार थे. निरंकुश हिरन अब जंगल की घास और
पेड़-पौधों को चर कर धीरे-धीरे जंगल का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे. मामूली से
मामूली दिखने वाली प्रजाति की अपनी एक
भूमिका है जो कोई और नहीं कर सकता. जब ‘न्यूरोस्पोरा’ नाम के एक परजीवी फंगस ने
दुनिया भर की चावल की फ़सलों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया था तब केरल के
जंगलों में मिली चावल की एक किस्म में इस फंगस का प्रतिरोधी जीन मिला था. इस
साधारण से जंगली चावल ने, मनुष्य की एक भयानक अकाल से रक्षा की थी. ये अच्छा ही था
कि केरल के जंगल तब तक हमारी विनाशलीला से बचे हुए थे. लेकिन तमाम जानी या
अनचीन्ही प्रजातियों पर ये ख़तरा लगातार बना हुआ है.
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मैल्थास का कहना था कि प्रकृति
में खाद्य उत्पादन इतनी तेजी से नहीं बढ़ता जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ती है. उनके
अनुसार संसाधनों की ये कमी ही जनसंख्या पर अंकुश लगाएगी. लेकिन मैल्थास ने मनुष्य
की रचनात्मकता को कम करके आंक लिया था. जैसे-जैसे संसाधनों की कमी पड़ती गयी हमने नित
नए उपाय-आविष्कार करने शुरू कर दिए. मानव सभ्यता की शुरुआत में जब तक मनुष्य शिकार
और कंद-मूल इकट्ठा करके जीवित रहते थे तब तक वो प्रकृति से सिर्फ़ उतना ही लेते थे
जितना कि उनके लिए ज़रूरी था. संचय की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी. उनकी जनसंख्या भी
प्रकृति में उपलब्धता के आधार पर ही नियंत्रण में रहती थी. कहते हैं कि मनमाफ़िक
औजार विकसित कर लेने की क्षमता ने ही हमें जानवरों से अलग पहचान दी. बड़े-बड़े
पत्थरों को घिस-घिस कर इंसान ने अपना पहला हथियार बनाया. जिससे कि वो कभी जानवरों
का शिकार करता, तो कभी पेड़ों की जड़ें खोदता. फ़िर उसने जंगल साफ़ करके खेती करने की
ठानी और तभी कुल्हाड़ी-कुदालें बनाई और पूजी जाने लग गयीं. फिर धातु की खोज और बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की
शुरुआत हुई. औद्योगिक क्षेत्रों में बसते ही, परिवार उत्पादक के बजाय उपभोक्ता हो
गए. जैसे ही हमने खाद्यान्न उगाने के बजाय, बाज़ार से खरीदना शुरू किया, वैसे ही
प्रकृति और संस्कृति के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गयी. अब के वैज्ञानिक युग
में तकनीकी उन्नति की दर सालों में नहीं हफ़्तों में नापी जाती है. इस तरह हम
शिकारी से कृषक हुए, कृषक से उद्योगपति और अब जब खेती योग्य ज़मीन कम पड़ रही है तो
हम रासायनिक खाद से लेकर फसलों की जीन संरचना तक में घुसपैठ कर चुके हैं. अब हम
प्रकृति को जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों का अंगूठा दिखा रहें है, कि देखो हमें
तुम्हारी दया की ज़रुरत नहीं! हर एक आविष्कार ने हमें प्रकृति में मनचाहा फ़ेरबदल कर
लेने की ताकत दी. सभ्यता की तरफ़ बढ़ता हर क़दम, हमें प्रकृति से दूर करता चला गया और
ये दूरी हज़ारों बरसों में पैदा हुई है. लेकिन आज भी तमाम जन-जातियां आदिकाल जैसी
स्थितियों में रह रहीं है. उनको देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है. वो प्रकृति के
साथ सामंजस्य बैठाना जानते हैं. वो अगर पेड़ काटते हैं तो सिर्फ़ सूखे हुए, फल खाते
हैं तो पेड़ों से गिरे हुए, जानवरों का शिकार करते हैं तो मादा और बच्चों को कतई नहीं
और अगर जानवर पालते हैं तो उनकी दिनचर्या के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं. उनके
साथ चारागाह से चारागाह भटकते हैं, उन्हें डेयरी फार्मों में बांधकर अपने हिसाब से
जीने पर विवश नहीं करते. उनकी भाषा, लोकोक्तियों और लोक गीतों में साफ़ ज़ाहिर है कि
उनके लिए प्रकृति और संस्कृति का भेद बहुत गहरा नहीं है. इसलिए संरक्षित क्षेत्रों
और वन्य अभ्यारण्यों से भी उन्हें निकाला नहीं जाता. जंगल उनके जीविकोपार्जन नहीं
बल्कि जीवन का हिस्सा है. वो ये कभी नहीं कहते कि ‘ये जंगल हमारा है’ बल्कि कहते
हैं- ‘हम इस जंगल के हैं, ये जंगल ही हम सबको पालता है.’ इन जनजातियों से सीख लेकर
यदि हम भी प्रकृति को अपना संसाधन समझने के बजाय खुद को प्रकृति का अटूट हिस्सा
समझना शुरू कर दें तो हम शायद ही इसका विनाश कर पायेंगे. क्यूंकि विकास के नाम पर प्रकृति
का क्षरण करने वाला हर क़दम विनाश की ऐसी श्रृंखला अभिक्रिया की शुरुआत कर देता है
जिसका आदि और अंत, दोनों हम ही हैं. रॉकेट, जेट प्लेन और रेफ्रिजरेशन जैसी तकनीकों
का अगर लाभ उठाना है तो उनसे निकली जहरीली गैसों के धुंए से ओजोन परत में हुए छेद
से आती हानिकारक पराबैंगनी किरणों का दंश भी हमें ही भुगतना है.
अंत में एक अमेरिकी पर्यावरणविद, एडवर्ड एबी के
शब्दों में-
“Growth for the
sake of growth is the ideology of cancer cell.”
(“अंधाधुंध विकास,
कैंसरग्रस्त कोशिका का लक्षण है.”)
very nice........
ReplyDeleteThanks Pradeep!
Deleteराजेन्द्र ज़ी! प्राकाशन एवं लिंक, दोनों के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteशुक्रिया!
ReplyDeleterochak aur gyanprad lekh...........
ReplyDeleteधन्यवाद संध्या जी!
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतिभा जी!
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