Sunday, June 30, 2013

चम्पकवन, ट्रेन और बारामूडा ट्रायेंगल


उन दोनों को ट्रेन में खिड़की वाली सीट पर बैठना हमेशा से पसंद था. उल्टी दिशा में भागते खेत-पेड़ जब चलती रेलगाड़ी के पेट में समाते जाते तो तेज हवा में आँखे मिचमिचाते बाहर देखते लाजवंती और वीर किसी और ही दुनिया में चले जाते थे. बादलों में आकार बन जाते, आस-पास के लोग और आवाजें खो जातीं और वो छूने की दुनिया छोड़कर सोचने की दुनिया में चले जाते. हर दो स्टेशन के बीच फैले खेत-जंगल देखकर वो सारी कहानियाँ सजीव हो उठतीं जिनमें बच्चे अपनी नानी से मिलने जंगल पार करके जाते थे और भालू या शेर को चकमा देकर नानी के घर ठाठ से खीर खाते थे. चम्पकवन के राजा शेर सिंह ने इन्हीं जंगलों में अपना दरबार लगाया होगा. भालू का नाम भोला, बाघ का नाम बघीरा और हर गिलहरी चीकू होती होगी. खेत में पंछी भगाते किसानों को देखकर उन्हें रंज होता कि वो भी इनके जैसी ही झोपड़ियों में क्यों नहीं रहते. ज्य़ादा दिल दरिया हो रहा हो तो खिड़की के पास बैठने का समय आधा- आधा बाँटा भी जा सकता था.
लेकिन आज की ट्रेन का सफ़र कुछ अलग है. जिस शहर जाना है वो उनके सपनों के आकार का कटा-बुना है. वहां पैकेट वाला दूध हर गली- दूकान पर मिलता है और पॉपकॉर्न बहुत महँगा है. चलते वक्त किसी लाजवंती के घरवालों के कान में मंतर फूंक दिया था कि हॉस्टल का माहौल लड़कियों को बिगाड़ देता है, वहां हर तरह की लड़कियां हर तरह की बातें करतीं हैं. वीर के घर छोड़ते वक्त उसके घरवालों ने उसे तिलक किया, नज़र उतारी कि वो इंजीनियर बन के ही लौटे.
ट्रेन के बाथरूम अच्छे तो कभी भी नहीं लगते पर उस दिन और भी घिनौने लगे. उससे पहले उनकी ऊंचाई कम थी और वो हिलते बाथरूमों में सधे हाथों से जाने किन इरादों से लिखे वैसे वाले वाक्य नहीं पढ़ सकते थे. वैसे वाले वाक्य जो सबको पता है वहां लिखे मिलेंगे लेकिन जिसके बारे में कोई किसी को सावधान नहीं करता, जिसका दरियादिल पेंटर कभी अपने काम का क्रेडिट नहीं लेता, जो पढ़कर आप अपने कपड़े वापस चढ़ाते हैं, हाथ धोकर अपनी सीट पर वापस आकर सह-सीट-वासी से देश की गंभीर समस्याओं के बारे में बात चालू कर देते हैं. लेकिन अब वैसा वाला सचित्र वर्णन उनकी बढ़ती नज़र के दायरे में आने लग गया था. उस पर लिखा था- ‘देख क्या रही है, तू भी करवायेगी क्या?’ जो करवाना था उसका चित्र भी खुरच रखा था. ऐसा लगा कि ये उनकी ज़िन्दगी का सबसे बदसूरत और डरावना चित्र है. उस ट्रेन पे ऐसे चित्रों के रचयिता भी थे और उनके पहले परिचय को ऐसे चित्रों के सहारे छोड़ देने वाले भी. बुराइयों के साथ-साथ नैतिक शास्त्र की किताबों ने भी हम सबको घुस-घुस कर मारा है. स्त्री-पुरुष संबंधों का सौन्दर्यबोध ताउम्र गड़बड़ाया ही रहेगा अब.
ये ट्रेन कभी वापस नहीं लौटती थी. लाजवंती को सीधे उस हॉस्टल उतारा था जिसका नाम उसकी वार्डन के फ़ेवरेट टी वी सीरियल के नाम पर ‘अपराजिता’ था और वार्डन का नाम डॉ. (ब्रैकेट में मिसेज़) सुशीला शर्मा था. यहां की लड़कियां हर रात खाने के ‘वक्त कसौटी जिन्दगी की’ देखती थीं. प्रेरणा के साथ आंसू बहाती, अनुराग बासु से उसकी शादी करवाने के लिए मन्नतें मांगतीं थीं. वो कभी वो नहीं देखतीं थीं जो वीर के हॉस्टल के लड़के देखते थे क्योंकि वैसी फ़िल्में देखने वाली लड़की से वो लड़के कभी शादी नहीं करेंगे. और इन लड़कियों को उन लड़कों के सपने देखने थे, उनसे अपनी आंख का काँटा निकलवाना था और उन्हें ये बताना था कि कल के एपिसोड में जब उन्होंने प्रेरणा को अनुराग बासु के साथ बारिश में डांस करते देखा तो वो समझ गयीं कि वो अच्छी लड़की नहीं है. इन लड़कियों के कुर्तों में जेब नहीं हुआ करती थी और वो कोका-कोला हमेशा स्ट्रॉ से पीती थीं. ये लोग बस दो शेड गोरा करने वाली क्रीम लगा कर क्रिकेट-कमेंटेटर, सिंगर, एयर–होस्टेस कुछ भी बन सकतीं थीं.   
थोड़ा सहेलीपना जम जाने पर सारी लड़कियां रात के खाने के बाद जाली-ग्रिल लगी खिड़कियों से बाहर ताकते बतियाने लगीं थीं. ये वक्त बड़ा खलबली मचा देता था. पास के चराहे पर ट्रैफिक बढ़ जाता, अंडे वाले के स्टाल की बिक्री बढ़ जाती, गले में फटे बांस को पनाह देने वाले भी तानसेन हो जाते, सीटियाँ मारने के गुण की कीमत बढ़ जाती, किसी को अपनी आँख- गर्दन की तकलीफ़ याद नहीं रह जाती और लुंगी वाले अंकल की खुजली बेतहाशा बढ़ जाती थी. सामने के ब्वायज हॉस्टल से लेज़र टॉर्च की लाइटें लड़कियों पर इधर-उधर पड़ने लगतीं. उनमें से एक दबंग टाईप लड़की का दावा था कि अगर हम सड़क पर इनके सामने जाकर खड़े हो जाएँ तो ये लोग पहचान नहीं पायेंगे कि ये वही वाली है जिसे बालकनी में देखने के चक्कर में जनाब ने सर उचकाया था और अपना संतुलन खो बैठे थे. फिलहाल इस दावे को टेस्ट करने जितनी आज़ादी नहीं थी और गिरने वाले, लड़की की आउटलाइन देखकर ही एक्सीडेंट का ख़तरा मोल लेने को तैयार थे. रात की ड्यूटी वाला वाचमैन झपकी-रहित रात बिताने पर मजबूर था. ये वही रात थी जब वीर की झिझक खोली जा रही थी और उसे अजीब आकृतियों वाली लेज़र लाईट से सामने वाले हॉस्टल की लड़कियों पर निशाना साधने को कहा जा रहा था. उसके रूम- मेट ने कुछ ख़ास अंगों के ज्यादा प्वाइंट्स निर्धारित कर रखे थे.
वीर की ट्रेन ने उसे ‘दास- हॉस्टल’ ले जा पटका था. जिसका नाम उस हॉस्टल के फंडदाता के नाम पे रखा गया था. वो अपनी टीचरी के वेतन का एक रुपया रख के बाकी हॉस्टल बनवाने के लिए दान कर देते थे. ‘एक रुपया भी काहे लेता था बे?’... ये था वीर का रूम-मेट जो भदोही के पास के किसी गाँव का था और तीन साल से इंजीनियरिंग एंट्रेंस परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. गाँव में सब यही जानते थे कि वो इंजीनियरिंग पढ़ रहा है. ऐसी अफवाहों के सहारे दहेज की संभावना दूनी- चौगुनी करने की गणित तो उसके इंजीनयरिंग बेपढ़े घरवालों को भी आती थी. वीर को वार्डन के साथ आता देखकर उसने हाथ में ली हुई क़िताब झट से तकिये के नीचे छुपा दी थी. वार्डन ने उससे आके पूछा कि उसकी पढ़ाई कैसी चल रही है. उसने जवाब दिया कि वो इस साल पूरी जान लगा देगा और आई. आई. टी. निकाल कर ही रहेगा.
उस हॉस्टल में एक और संत थे जिनका दावा था कि वो लड़की का फिगर देखकर उसका चरित्र बता सकते थे और उनका अंदाजा सौ में से निन्यान्बे टाइम सही निकलता था. इन्हीं सबों के किसी पूर्वज ने ही बारामूडा ट्रायेंगल नाम दिया था गर्ल्स हॉस्टल को, कि जो एक बार उधर ताका वो फंसा तो बस फंसा. ये लड़के अपना बटुआ पैंट की पीछे वाली जेब में रखते, थे जिसे बिल देने के लिए निकालते वक्त आगे झुकना पड़ता था. ये लोग कभी- कभी वैसी वाली फ़िल्में छोड़कर टी. वी. भी देख लेते थे. एक गाने का वीडियो चल रहा है जिसमें लड़का अपनी छोटे कपड़ों वाली शहरी गर्लफ्रेंड को लेकर गाँव आया है जहाँ उसकी घरेलू मंगेतर उसका पहले से ही इंतज़ार कर रही है. दोनों में उस लड़के को पाने के लिए झगड़ा होता है और अंततः गाँव की सीधी- सादी लड़की जीत जाती है.
लाजवंती और वीर की मुलाक़ात अभी भी हो ही जाती है. लेकिन अब वो पहले की तरह एक दूसरे से ये नहीं पूछते कि शाम को खेलने आना है या नहीं. दोनों एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेते हैं पर ना तो लाजवंती वीर को बताती है कि सुबह पेपरवाला उसके बगल से कानों में क्या बोलता हुआ निकलता है और ना ही ये कि रात को वो लुंगी वाले अंकल जी उसके हॉस्टल की बालकनी के सामने कुछ करते नज़र आते हैं और बारामूडा ट्रायेंगल के पास होकर भी उनका निशाना कभी नहीं चूकता. वीर भी उसे ये नहीं बताता कि अपनी झिझक खोलने के लिए वो क्या-क्या देख पढ़ रहा है और सब लड़कों के साथ वो भी हँसता है जब उस लुंगी वाले के आते ही लड़कियां अन्दर भागने लगतीं हैं.
दोनों के बीच एक दीवार है जो प्यार की संभावनाओं, बड़े-बूढों की सीखों, अफ़वाहों- उठती भौहों- इशारों और मोहनीश बहल के फेमस वाले डायलॉग की बनी है. एक दीवार जो उम्रो-उम्र से इसी उम्र के आस-पास आ खड़ी होती है. एक दीवार जिस पर चढ़ कर उनकी पुरानी ‘बच्चे-दोस्त’ वाली दोस्ती झाँकने लगती है; जब मासी की सिंगापुर से भेजी टॉफियाँ उनका सबसे कीमती खज़ाना थी और नोंक बदलने वाली पेंसिल दुनिया का सबसे महान आविष्कार; और दोनों उदास हो जाते हैं.
फिलहाल ‘अपराजिता’ की वार्डन डॉ. (ब्रैकेट में मिसेज़) सुशीला शर्मा का सख्त आदेश है कि लड़कियों को बालकनी पे खड़े होना ही है तो वहाँ थोड़े- बहुत कपड़े डाल दें और बालकनी की लाईट हमेशा बंद रहनी चाहिए. नीचे एक नया ऑटो वाला ‘दिल तो पागल है’ के गानों की तर्ज पर सीटियाँ बजाये जा रहा है......

(इससे पहले- 
छठवीं क्लास के सेक्शन ए से लाजवंती और सेक्शन बी से वीर

4 comments:

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    1. Cant say! May be i'll write more on this line may be I wont. Its a tricky story to do. You want to read more of it?

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