खेल खेल में क्या से क्या
हो जाता है... लड़के नेशनल यूनिफॉर्म में मैदान में उतरते हैं और लड़कियां हाथ में
झालरें लेकर आधे- अधूरे कपड़ों में चीयरगर्ल्स बनती हैं. वो देश का गौरव बढ़ाते हैं
ये ग्लैमर बढ़ाती हैं. क्रिकेट की खबरों से पटे पड़े अखबारों से महिला क्रिकेट की
खबरें नदारद हो जाती हैं. सानिया मिर्ज़ा की उपलब्धियां भले ही बिसर जाएँ पर उनकी
नथ ज़रूर याद रह जाती है. जेंडर हमारे जीवन
में जाने- अनजाने किस हद तक घुस आता है ये जानने के लिए ज्यादा पोथियाँ पढ़ने की
जरूरत नहीं बस स्पोर्ट्स की खबरें देख- पढ़ डालिए.
विदेशों में महिला
खिलाड़ियों की न्यूड तस्वीरें पत्रिकाओं के कवर पृष्ठ की शोभा बढ़ातीं हैं. सफल
महिला एथलेटिक को बिना जाने- पूछे समलैंगिक मान लिया जाना भी आम है. हमारे यहाँ
सामाजिक बंधन इतना ग़ज़ब तो नहीं होने देते. लेकिन यहाँ भी महिला और पुरुष खिलाड़ी
मीडिया में अलग- अलग तरह से प्रोजेक्ट किये जाते हैं. पुरुष खिलाड़ियों के साहस,
जुझारुपन और कड़े ट्रेनिंग प्रोग्राम पर फ़ोकस किया जाता है. महिला खिलाड़ी या तो
लोकप्रिय मीडिया से नदारद रहतीं हैं या फिर उनके प्रदर्शन से ज्यादा उनके पति-
बच्चे, नथ- बिंदिया और फैशन सुर्ख़ियां बनाते हैं. हाल ही में ओलम्पिक मेडल जीतने
वाली एम. सी. मैरी कॉम तमाम ख़बरों में ‘दो बच्चों की माँ’ कहकर संबोधित की गयीं.
उनकी शादी, प्रेमकहानी, पति और जुड़वां बच्चों पर स्पेशल फीचर निकाले गए. एक
प्रतिष्ठित मैगज़ीन ने उन्हें अपने कवर पेज पर जगह तो दी पर वो भी एक वीमेन स्पेशल
अंक था जिसमें वो मय मुकुट- मेकअप- गुलाबी ईवनिंग गाउन, विराजमान थीं. मानों अभी-
अभी कोई ब्यूटी पेजेंट जीता हो या बॉक्सर होने की माफ़ी मांग रहीं हों. पहली नजर
में शायद आपको इसमें कोई बुराई न लगे. यहाँ सवाल अच्छे- बुरे का नहीं बराबरी का
है. अगर खेलों में लिंगभेद न होता तो मैरी कॉम सिर्फ महिलाओं की नहीं, हम सब की आदर्श
कहलातीं. या फिर स्पोर्ट्स पेज की सुर्खियाँ कुछ यूँ होतीं-
“दो बच्चों के पिता सचिन ने
आज अपना सौवां शतक लगाया.”
“हाल ही में शादीशुदा धोनी
की कप्तानी में भारत ने विश्वकप जीता.”
मैं मीडिया क्रिटिक नहीं
हूँ. न ही इस लिंगभेद के लिए अकेले पत्रकारों को दोषी संमझती हूँ. वो हमारे बीच से
ही आते हैं. जो हमारी सोच वही उनकी सोच है. हमारी डिमांड की दिशा में ही उनकी
लेखनी गतिशील होती है. स्पोर्ट्स हमारी नज़र में एक मर्दानी एक्टिविटी है. लड़कियों
की नज़ाकत और लड़कों की आक्रामकता हमारी नजर में उनका प्राकृतिक या बायलौजिकल गुण
है. पुष्ट मांसपेशियों वाली सफल महिला खिलाड़ी हमारी इस अवधारणा को कड़ी चुनौती देती
हैं. जहाँ पुरुष एथलीटों को हीरो मानने में हमें कोई परेशानी नहीं होती वहीँ
महिलाओं को मज़बूत और जुझारू खिलाड़ी के रूप में पचा पाना हमारे लिए बड़ा मुश्किल
होता है. वो हमारे ‘नॉर्मल’ औरत के खांचे में फिट नहीं बैठतीं. इस कारण हमें वो
खेल के मैदान के बजाय विज्ञापनों में तेल, चावल, शैम्पू बेचते या घरेलू बातें
करतीं ज्यादा सुहातीं हैं. उन्हें किसी की पत्नी, माँ या फिर चीयरगर्ल की भूमिका
में देखकर हमें तसल्ली हो जाती है कि चलो एथलीट सही, पर ये हैं तो औरतें ही. हम
महिला खिलाड़ियों के लिए धन के कमी का रोना रोते वक्त भूल जाते हैं कि इसके लिए
मीडिया या पुरुष खिलाड़ी ज़िम्मेदार नहीं है इस असमानता में हम सबकी भागीदारी है. वीमेन स्पोर्ट्स को मिलने वाला कम
कवरेज, उनके लिए धन और प्रायोजकों की कमी हमारी इस मानसिकता का परिणाम है.
अमरीकी स्कूलों में हाल ही
में किये गए एक शोध के दौरान सामने आया कि बहुत सी लड़कियां खेल-कूद में जान- बूझ
कर ख़राब परफॉर्म करती हैं ताकि उन्हें ‘मर्दानी’ औरत ना समझ लिया जाए. स्कूल-
कॉलेज तो बहुत दूर की बात है. लड़कों को मर्द और लड़कियों को नारी बनाने की प्रक्रिया
तो बचपन से ही शुरू हो जाती है जब हम लड़कों को खेलने के लिए कार- बंदूकें और
लड़कियों को गुड़िया और किचेन सेट देते हैं.
लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो धारा
के विपरीत बहने की हिम्मत कर रहे हैं. तमाम विषमताओं के बावजूद, हमारे देश में हर
तरह के खेलों में हिस्सा लेने वाली महिलाओं की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है. हमारी
महिला क्रिकेट टीम पर धन और विज्ञापनों की बरसात नहीं होती, पर इसके बावजूद उनकी
आई. सी. सी. रैंकिंग प्रथम है.
उम्मीद है कि हम सब जल्द ही
उन्हें वो जगह और सम्मान देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो पायेंगें जिसकी वो
हकदार हैं. ये भी ध्यान रखना होगा कि इस मामले में हम पश्चिमी मीडिया की अंधाधुंध
नक़ल न करें जो महिला खिलाड़ियों को कवरेज तो ज्यादा देते हैं पर सही वजहों से नहीं.
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