हाल ही में हॉलीवुड सुपरस्टार एंजलीना जॅाली के एक इक़रारनामे ने हलचल मचा दी.
इसमें इन्होंने कैंसर के खतरे से बचने के लिए डबल मैसटैक्टमी (सर्जरी द्वारा दोनों
स्तन निकलवा दिया जाना) करवाना स्वीकार किया. लेकिन उसके तुरंत बाद ही उनके मिरियड
जेनेटिक्स नामक फार्मा कंपनी से गठजोड़ की बात सामने आई और असल मुद्दा रफा- दफा हो
गया. कोई उन्हें शूरवीर तो कोई मेडिकल कार्पोरेट जगत का मोहरा बताने के चक्कर में है. ये
कंपनी कैंसर की कारक ब्रैक१ और ब्रैक२ जीनों को पेटेंट कराने की कोशिश में है ऐसा
होते ही इस टेस्ट की कीमत सौ गुना तक बढ़ सकती है. कई जगह ये तर्क भी पढ़ने को मिले
कि ऐसी चिकित्सा भारतीय महिलाएं अफ़ोर्ड कर ही नहीं सकती.
अगर ये प्रचार का हथकंडा है तो भी हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि मिरियड कंपनी
को एंजलीना की ईमेज की ज्य़ादा ज़रूरत है न कि एंजलीना को उनके पैसों की या फिर खुद
को फ़रिश्ता साबित करने की. वो पहले ही विश्व की सफलतम, मशहूर और धनी महिलाओं में
से एक है. भारतीय महिलाओं का कैंसर के इलाज का खर्च उठा सकें ये सुनिश्चित करना
एंजलीना जॅाली की नहीं हमारे नीति नियंताओं की जिम्मेदारी है. अगर किसी के भी पास
भरपूर संसाधन और पैसे हों तो वो बिना खर्च की परवाह किये अपनी सेहत के लिए उपाय-
इलाज करेगा ही.
लेकिन जो बात सबसे गौरतलब है वो ये कि ये सर्जरी बीमारी के बाद नहीं पहले की गयी
है ताकि कैंसर हो ही न सके. ये एक आसान फैसला नहीं है. स्तन कैंसर कई सामाजिक और
भावनात्मक कारणों से बाकी किसी भी कैंसर से अलग है. स्तन मुक्ति का निर्णय भी सांप काटे का
जहर रोकने के लिए उंगली पर नश्तर चलवा देने से कहीं ज्य़ादा पेचीदा है. इसकी वजह
ब्रेस्ट का महिलाओं के बाकी अंगों से थोड़ा अलग और थोड़ा अधिक महत्त्वपूर्ण होना है.
इस थोड़ा अलग और थोड़ा अधिक को हम कई उदाहरणों से समझ सकते हैं- मॉडलों के लिये तय
सौन्दर्य मानकों को देख लीजिये, बाज़ार में पैडेड ब्रा और सिलिकॉन ट्रांसप्लांट की
उपलब्धि और लोकप्रियता पर नज़र डालिए या फिर किसी भी लड़की से उसके साथ हुई छेड़छाड़
के अनुभव पूछ डालिए. खुले आम स्तन- प्रदर्शन और इसकी बीमारी तक के बारे में बात
करना अपराध तो नहीं लेकिन अश्लील हर समाज में माना जाता है. अगर याद हो तो कुछ समय
पहले विवादित खिलाड़ी पिंकी प्रमाणिक, जिनका जेंडर संदेह के घेरे में था, की कुछ
तस्वीरें मीडिया में आई थीं. इसमें एक पुलिस वाले ने उन्हें सीने के पास से अभद्र
तरीके से पकड़ रखा था. कुछ तो अलग है इस अंग में!
इस थोड़े अलग और थोड़े अधिक महत्त्व की वजह से ये अंग लड़कियों की सेक्चुअलिटी,
आकर्षण और धीरे- धीरे उनके आत्मविश्वास का भी अहम् हिस्सा बन जाता है. बीमारी को
रोकने के लिए हम सब टीके- दवाएं आम तौर पर इस्तेमाल करते हैं. लेकिन कैंसर पैदा
करने वाले जीन पाए जाने पर स्तनों से ही छुटकारा पा लेना आमतौर पर देखने में नहीं
आता. हमारे समाज में लड़कियों की सबसे बड़ी उपयोगिता उनका बच्चे पैदा करने और पालने
की क्षमता को ही समझा जाता है. बचपन से ही उनकी ये ट्रेनिंग शुरू हो जाती है. समय
पे शादी करने, सिगरेट न पीने से लेकर तमाम मशविरे दिए जाते हैं ताकि उनके माँ बनने
में दिक्कत ना आये. ऐसे में स्तन- मुक्ति सिर्फ एक निजी फैसला नहीं रह जाता.
इस ख़बर से किसी को हिम्मत मिली हो या न मिली हो, एंजलीना की स्वीकारोक्ती ने
इस प्रतिबंधित विषय को मीडिया के जरिये हर घर के ड्राइंग रूम तक तो पहुंचा ही दिया
है. हालांकि समाज के सौन्दर्य मानकों को वो भी धता- बता नहीं सकीं और ब्रेस्ट
ट्रांसप्लांट करवा ही लिया. इसका एक कारण ये भी है कि जिस प्रोफेशन में वो हैं,
उसमें रहकर सौन्दर्य मानकों की अनदेखी कर पाना मुमकिन नहीं है. कोशिश ये करनी होगी
ये तमाम बहस कुछ ठोस बदलाव ला सके. औरतें फार्मा कंपनी के फैलाये आतंक के जाल में
ना आये और ना ही सामाजिक दबाव में आकर अपने स्वास्थ्य की अनदेखी करें. साथ ही उनके पास
इतनी जानकारी और संसाधन हों कि वो सोच समझ कर स्तनों को रखने या न रखने का फैसला
ले सकें. इस खबर ने कम से कम शुरूआती माहौल तो तैयार कर दिया है.
टिप्पणी के लिए धन्यवाद मदन जी!
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