Monday, June 9, 2014

जातिवाद और दलित महिलाओं का संघर्ष


बात राजस्थान के भटेरी गाँव की है. गाँव के गूर्जर समुदाय के कुछ युवकों ने एक दलित औरत को ‘सबक सिखाने’ की ठान ली. वो औरत सरकारी संस्थाओं की ‘साथिन’ बनकर गाँव में बाल विवाह रुकवाने की कोशिश कर रही थी. और तो और, उसने नौ साल की बच्ची का विवाह रुकवाने के लिए एक सवर्ण परिवार के ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने का दुस्साहस भी दिखाया था. इस समुदाय के पांच युवकों ने 22 सितम्बर 1992 की शाम ‘साथिन’ भंवरी देवी का बलात्कार किया. भंवरी देवी, मेडिकल जांच,  पुलिस और गाँव-समाज की प्रताड़ना से लेकर हर कदम पर मुसीबतों से जूझने के बावजूद न्याय पाने में असफ़ल रहीं. 1995 में सेशन कोर्ट ने पाँचों अभियुक्तों को बाइज्ज़त बरी कर दिया. उस निर्णय में बाक़ायदा लिखित है कि, ‘ये अविश्वसनीय है कि कोई ‘ऊंची’ जाति का पुरुष किसी दलित स्त्री का बलात्कार करेगा.’
इसी वर्ष २३ मार्च को हरियाणा के भगाणा गाँव में बाल्मीकि समुदाय की चार लड़कियों का गाँव के जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया. न्याय पाने के लिए उनका संघर्ष देश की राजधानी में धरने के रूप में अभी तक जारी है. हाल ही में उत्तर प्रदेश के बंदायूं जिले के कटरा गाँव में, चौदह व पंद्रह साल की दो नाबालिग चचेरी बहनों के साथ, गाँव के ही कुछ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर दी. हत्या के बाद बलात्कारियों ने उन लड़कियों का शव को बड़ी बेरहमी से पेड़ पर लटका दिया। इस भयानक सीनाजोरी से अपराधियों के बिल्कुल निरापद होने का अनुमान लगाया जा सकता है. आरोपी युवक यादव जाति से सम्बंधित थे जो कि उस गाँव में एक प्रभावी जाति है. पुलिस ने न सिर्फ़ एफ़. आई. आर. दर्ज करने में आनाकानी की बल्कि लड़कियों के परिवार वालों पर भी रिपोर्ट वापस लेने का दबाव डालती रही. अब मध्य प्रदेश से भी मिलती-जुलती खबरें आ रहीं है. बदायूं की घटना के बाद अखिलेश यादव की संवेदना शून्य प्रतिक्रया से ज़ाहिर है कि भंवरी देवी काण्ड के बाईस वर्ष बाद भी इस तरह के मामलों में पुलिस, प्रशासन और समाज, तीनों ही अपेक्षाकृत कम संवेदनशील है.
‘निर्भया काण्ड’ के बाद आई बहुचर्चित और प्रायः प्रशंसित वर्मा कमेटी रिपोर्ट में जातिवाद उत्प्रेरित बलात्कार का बारंबार उल्लेख था. इसी घटना के बाद दिए गए एक बयान में आर. एस. एस. प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि ‘भारत’ में बलात्कार नहीं होते. ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त दलित महिलाओं पर होने वाली हिंसा शायद उनके लिए बलात्कार की श्रेणी में ही नहीं आते और ऐसी मान्यता रखने वाले वो अकेले नहीं हैं. ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन से पहले गाँव में आने वाली किसी दलित की नवविवाहिता पर गाँव के ज़मींदार का अधिकार स्वाभाविक माना जाता था.
यहाँ उद्देश्य न तो किसी देश-धर्म, संस्कृति या जाति व्यवस्था को घेरने का है और न ही किसी ख़ास जाति के सभी पुरुषों को अमानवीय ठहराने का है. इस तरह की प्रतिक्रियाएं सिर्फ़ प्रतिरोध और आक्रोश को दिग्भ्रमित करती हैं. लेकिन ये शोचनीय है कि भंवरी देवी का संघर्ष आखिर अंतहीन क्यूँ बन गया या भगाणा की बलात्कार उत्तरजीविताओं का संघर्ष वैसा ही क्यूँ बनता जा रहा है? क्यूं बदायूं की घटना के विरोध में हर शहर के हर गली-चौक में ‘१६ दिसंबर’ के उत्तरार्द्ध जैसी उग्र भीड़ इकट्ठा नहीं हो सकी? इन सबका जवाब पाने के लिए विभिन्न जातियों के अंतर्संबंध के इतिहास और समाजशास्त्र की गहराई में जाने की ज़रुरत है.

जाति व्यवस्था, सामाजिक वर्गीकरण की सबसे पुरानी व्यवस्थाओं में से एक है जिसमें हर एक वर्ग का एक नियत स्थान है. शुद्ध-अशुद्ध और स्वीकार्य-निषिद्ध के नियमों ने इन वर्गों को पारस्परिक निर्भरता के बावजूद एक दूसरे से नितांत अलग अस्तित्व बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जाति व्यवस्था और लिंगभेद की गड्डमगड्ड ने भारतीय समाज की जो परिपाटी तैयार की है उसमें सवर्ण पुरुष सबसे पहली और दलित महिलाएं सबसे निचली पायदान पर आते हैं. इस जटिल व्यवस्था में, विवाह संबंधों में स्वीकार्य संबंधों के बजाय निषिद्ध सम्बन्ध अधिक स्पष्टता से परिभाषित हैं. ख़ास तौर पर, लड़कियों के मामले में हिन्दू समाज में लड़की का सम्बन्ध अपने बराबर या फिर अपने से ऊंची कुल-जाति में करने की परम्परा है. ऐसे में ऊंची जाति की महिला और नीची जाति के पुरुष का सम्बन्ध सर्वथा अनुचित और अवांछनीय है. जो स्त्री जितनी ही ऊंची जाति से सम्बन्ध रखती हो उसकी लैंगिक स्वतंत्रता पर उतनी ही बंदिशें होंगी. दलित वर्ग में अपनी स्त्रियों पर ऐसा नियंत्रण लगाने की प्रथा या आवश्यकता कभी नहीं रही. ऊंची जाति के पुरुष के लिए दलित स्त्रियाँ हमेशा से ज्यादा प्राप्य हैं जबकि इसका उलटा वर्जित है. ऐसे में सवर्ण स्त्री और दलित पुरुष के स्वेच्छा से बने संबंधों तक को रूढ़िवादी समाज का बहुत आक्रामक प्रतिरोध झेलना पड़ता है, जबकि दलित स्त्री पर सवर्ण पुरुषों द्वारा किये गए बलात्कार की भी ‘शॉक वैल्यू’ बेहद कम है. जो दलित धर्मान्तरित हो गए हैं उनकी भी सामाजिक स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं है. भारतीय उपनिवेश में, जाति व्यवस्था उन धर्मों में भी परासरित होती गयी है जिनमें इसका नामो-निशान भी नहीं था. ज़्यादातर समाजशास्त्रियों का मानना है कि बलात्कार का उत्प्रेरण, काम-वासना के बजाय ‘पावर’ से जुड़ा हुआ है. अगर पितृसत्ता ने पुरुषों को ये ताकत दी है तो भारत में जाति व्यवस्था ने वही ताकत ऊंची जाति के पुरुषों के हाथों में संकेंद्रित कर दी है. ये ताकत शारीरिक नहीं, सामाजिक है. किसी ऊंची जाति के पुरुष को अपने समाज की स्त्री की ‘रक्षा’ न कर पाने के लिए जितना शर्मिन्दा किया जाएगा, अपने से नीची जाति की स्त्री का उत्पीड़न करने के लिए उतना नहीं. समाज और न्याय प्रणाली में समुचित और सुनिश्चित दंड और शर्मिन्दगी का न होना ही ऐसे अपराधियों की ताकत है.
आम तौर पर इस घटना के विरोध में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रहीं हैं उनमें या तो मीडिया के पूर्वाग्रह की चर्चा है, या देश और संस्कृति को शर्मिंदा करने की कोशिश, या फिर इन घटनाओं को ‘बलात्कार’ की स्थूल श्रेणी में डाल देने की कवायद, जो कि जातिवाद के सूक्ष्म सन्दर्भों की अनदेखी करती है. आलोचना ये है कि इन घटनाओं को आगामी चुनावों के मद्देनज़र ज़्यादा तूल दिया जा रहा है. ऐसा संभव है कि इन घटनाओं को मिलने वाला मीडिया कवरेज मौसमी हो या उस क्षेत्र की राजनैतिक परिस्थितियों और किसी राजनैतिक दल विशेष के प्रति दुराग्रह से प्रेरित हो. लेकिन मीडिया की एकतरफ़ा रिपोर्टिंग इन अपराधों का गुरुत्व कम नहीं कर सकती. अपराध फिर भी अपराध है और उतना ही निंदनीय! इसी तरह देश और संस्कृति पर आक्रमण, भावावेश में की गयी अभिव्यक्ति हो सकती है लेकिन समस्या का समाधान नहीं. ऐसी प्रतिक्रियाएं उल्टा, सम्बंधित वर्ग और समाज में, बदलाव के प्रति और प्रतिरोध ही पैदा करती हैं. जाति आधारित भेदभाव मिटाने के तरीकों के बारे में तमाम महान सुधारकों में भी मतभेद रहा है. जहां बाबा साहब आंबेडकर जाति व्यवस्था के ही समूल नाश की बात करते थे वहीं महात्मा गांधी सिर्फ़ छुआ-छूत जैसी कुरीतियों का ही बहिष्कार करने के पक्ष में थे. तरीका चाहे जो भी अपनाया गया हो दलित महिलाओं की स्थिति में सुधार की गति, नौ दिन चले अढ़ाई कोस की कहावत को ही चरितार्थ करती नज़र आ रही है.  
कोई आश्चर्य नहीं कि विपक्षी दलों के नेता भी ऐसे अवसरों को भुनाने का प्रयास करते दिख रहें है. मगर आंकड़ों की माने तो दलित उत्थान के नाम पर वोट लेने वालों के शासन में भी दलित औरतों की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं है. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि दलित महिलाओं को अपने आप में कभी एक वर्ग या ‘वोट-बैंक’ के रूप में नहीं देखा गया. महिलाओं या फिर दलितों के उत्थान की योजनाओं में ही उनका भला समझ कर हर एक सरकार ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. ऐसा अनुमान था कि दलितों और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए किये गए प्रयासों का फल अंततः दलित महिलाओं तक भी पहुँच ही जाएगा. लेकिन अब तक ये एक मिथ्या अवधारणा ही साबित हुई है.
तमाम उदाहरणों से ज़ाहिर है कि जातिगत बलात्कार का प्रतिफल चाहे अन्य यौन हिंसाओं जैसा ही दिखे, मगर इसके पीछे का उद्देश्य, इरादा और उत्प्रेरण बहुत अलग है इसलिए इन पर अलग से चर्चा किये जाने की ज़रुरत है. ऐसी घटनाओं को धड़ल्ले से अंजाम दिया गया, क्यूंकि ऐसा आसानी से किया जा सकता था और करके आसानी से बचा भी जा सकता था. इसलिए बलात्कार, अपराधियों के लिए दलित महिलाओं को उनकी हद याद दिलाने का सबसे सुगम रास्ता बन गया. ऐसी स्थिति में दलित लड़कियों के साथ हुई इन घटनाओं के लिए क्या कुछ विशेष प्रावधान होना चाहिए? इसमें एक कानूनी पेचीदगी यह है कि, कानून कभी भी उद्देश्य या अपराध के पीछे इरादों के आधार पर सज़ा नहीं दे सकता. लेकिन अगर दो अलग-अलग बीमारियों के लक्षण सामान भी हों तो दोनों के इलाज के लिए एक ही दवा काम नहीं कर सकती. इससे पहले भी दलित उत्पीड़न रोकने के लिए भारत सरकार ने 1989 में ‘शेड्यूल कास्ट एंड ट्राइब एक्ट’ पास किया था. जिसके तहत आरोपी को बिना वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकता था साथ ही जातिवादी हिंसा को गैर ज़मानती अपराध बना दिया गया था. हालांकि जातिवाद की गहरी जड़ों के कारण ऐसे कानूनों का क्रियान्वयन अपने आप में एक समस्या है जिसके चलते ऐसे कानून अक्सर दंतहीन साबित होते हैं. लेकिन समाज विशेष की संरचना के हिसाब से यदि न्याय व्यवस्था पक्षपातपूर्ण हो जाय तो उसे तटस्थ बनाने को कोई न कोई तरीका निकालना तो आवश्यक हो जाता है.

ये एक दुखद सत्य है कि किसी भी समाज में किसी व्यक्ति के न्याय पाने की संभावना उसकी सामाजिक स्थिति के समानुपाती होती है. जिनका सामाजिक ओहदा- धर्म, जाति, संख्या, आर्थिक या लैंगिक किसी भी आधार पर कमतर है उनको न्याय मिल पाने की संभावना बहुत क्षीण होती है. ऐसी स्थिति में दलित स्त्रियाँ अपनी जाति और लिंग के आधार पर दोहरा दमन झेलती हैं. दलित महिलाओं के बलात्कार पर प्रशासन, कानून और मीडिया, तीनों ही की चुप्पी का बहुत लंबा इतिहास रहा है. क़ानून व्यवस्था में कोई परिवर्तन हो न हो, कम से कम बड़े पैमाने पर विमर्श और प्रतिरोध के ज़रिये नागरिकों और न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों को ऐसे मुद्दों पर संवेदनशील बनाने की पहल तो होनी ही चाहिए. कुल मिलाकर दलित महिलाओं के संघर्ष को एक ऐसा अंधा कुआँ बनने से बचाना होगा जिसमें न तो रोशनी हो और न ही रास्ता!

विस्फ़ोट पर इस लेख के अंश.

एक मित्र शुभम गुप्ता की बदौलत अब ये लेख ऑडियो फॉर्मेट में यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है-
https://www.youtube.com/watch?v=wmifvOfrvy0

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