Thursday, November 27, 2014

ए.एम्.यू. लाईब्रेरी: जेंडर और स्पेस के कुछ सवाल






निर्भया काण्ड के बाद से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक सकारात्मक बदलाव तो ज़रूर आया है. लिंगभेद लगभग जातिभेद और नस्लभेद के समानांतर राजनैतिक मुद्दा बन गया है. आजकल किसी सार्वजनिक हस्ती का जेंडर सेंसिटिव होना या कम से कम नज़र आना अनिवार्य है. पर इस बदलाव की बयार का सबसे बड़ा ख़तरा अपना फ़ोकस खो देने का है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वी.सी. पर एक बयान के बाद हुए शाब्दिक हमले ऐसे ही दिग्भ्रमित आक्रोश का एक उदाहरण है.

वी.सी. के मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में लड़कियों को आने देने की मनाही के आधे-अधूरे बयान को सुनकर उन पर लिंगभेदी होने का आरोप लगा जो कि आजकल एक संगीन लांछन है. जबकि ये पॉलिसी विश्विद्यालय में काफ़ी समय से है, साथ ही स्नातक तक की छात्राओं के लिए अलग बैठने- पढ़ने की व्यवस्था है. वी.सी. न ही लड़कियों के मामले में गैर- संवेदनशील हैं न ही ये नीति अपने-आप में लिंगभेदी है, कम से कम सक्रिय तौर पर तो नहीं. लेकिन एक बड़ा सवाल जेंडर और स्पेस का है जिसकी जड़ें लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय परिसर से बाहर के समाज में हैं.

समय का चक्र और स्पेस का फैलाव दोनों अपने-अपने तरीके से लिंगभेदी हैं. शाम को धुंधलके के बाद और बस स्टॉप या बैंक जैसी सार्वजनिक जगहों पर लड़कियां कम ही दिखाई देतीं हैं. चंद महानगरों को छोड़ दें तो कालचक्र और स्पेस के इस लिंग आधारित विभाजन का शायद ही कोई अपवाद है. अपनी खुद की कस्बाई परवरिश के अनुभवों से कहूं तो पब्लिक स्पेस लड़कियों के लिए नहीं हैं. यहाँ होने का मकसद उन्हें साफ़-साफ़ जताना होता है कभी अपनी स्कूल यूनिफार्म तो कभी किसी पुरुष के साथ के ज़रिये. ऐसे में लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना आसान बात है बजाय उन्हें पब्लिक स्पेस में पुरुषों जितना ही सहज कर पाना. ये एक अजीब विरोधाभास है- लड़कियां सार्वजानिक जगहों पर जितनी ज्यादा दिखेंगी, उनकी उपस्थिति उतनी ही आम बात होगी. फ़िलहाल उनकी नगण्य उपस्थिति ही इक्का- दुक्का लड़कियों की उपस्थिति को और भी विशिष्ट बना देती है. ये बात उन लड़कियों को चर्चा का केंद्र बनाकर असहज करने के लिए काफ़ी है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि वी.सी. के लड़कियों के माता-पिता से चिट्ठी लिखकर पूछने पर कि ‘क्या वो अपनी बेटी को मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में जाने देना चाहते हैं’, सिर्फ़ एक जोड़ा माँ- बाप ने सकारात्मक जवाब दिया.

ऐसे मामलों में नीति निर्धारकों को एक समझौता करना पड़ता है- या तो यथा स्थिति रहने दें या फिर लड़कियों को उनकी अलग जगह देकर कम से कम उन्हें बाहर लाने की एक पहल करें. ज़ाहिर है कि दूसरा रास्ता ही ज्यादा तर्कसंगत है. अलग लाइब्रेरी, मेट्रो में पहला कोच, लेडीज़ बस, महिला पुलिस चौकी और अब आगामी महिला बैंक सब इसी समझौते के अलग- अलग रूप हैं. ये लिंगभेद नहीं बल्कि उसे ख़त्म करने की एक रणनीति भर है. पर दुर्भाग्य से ये नीतियाँ ऐसी दर्दनिवारक दवा बन गयी हैं जिसे खा कर हम अपनी असली बीमारी भूले बैठे हैं. हमारा अंतिम लक्ष्य तो पब्लिक स्पेस में लड़कियों को पूरी तरह समाहित करना ही होना चाहिए था. लेकिन स्पेस विभाजन की नीतियाँ अपनी लोकप्रियता के चलते एक तरह का सुविधाजनक नारीवाद बन गयी हैं. जिन्हें लागू करके कोई भी जेंडर सेंसिटिव नज़र आ सकता है और वाहवाही बटोर सकता है.

उसी तरह से जहां प्राथमिकता ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को उच्च शिक्षण संस्थानों में लाने की हो, जहां माता- पिता भी अलग पुस्तकालय की व्यवस्था से ज्यादा सहज महसूस करते हों. वहां विश्वविद्यालय के ऐसा करने पर हाय-तौबा क्यूँ? वी. सी. वही कर रहें हैं जो उनके पद पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित है. मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी पब्लिक स्पेस का ही एक टुकड़ा है, एक संसाधन है जिसका आवंटन वो सामाजिक सन्दर्भों से कटकर नहीं कर सकते. अगर खेल के नियम ही गड़बड़ हों तो उस खिलाड़ी जो क्यों दोष दें जो नियमानुसार खेल रहा है?

एक संसाधन के रूप में समय-स्थान को देखना साथ ही जेंडर के साथ इनका समीकरण समझना दरअसल कभी ज़रूरी नहीं समझा गया. इस समस्या की भी पेचीदगी वही है. स्पेस और समय दोनों ही एक तरह से बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हैं. इनका फ़ायदा वही उठा सकता है जिसको इनका बेरोक-टोक इस्तेमाल करने की आज़ादी है. जिन पर बंदिशें हैं वो नुकसान में हैं. फ़र्ज़ कीजिये किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कोई हाई प्रोफ़ाइल नौकरी है जिसके लिए सुदूर इलाकों में रात- बेरात सफ़र करने की ज़रुरत है. ऐसी नौकरी के लिए समान क्वालिफिकेशन होने पर भी लड़कों को वरीयता दी जायेगी क्यूंकि सामाजिक परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं. समय और स्थान रूपी संसाधनों में असीमित पैठ पुरुष का प्रिविलेज है ऐसे में उन्हें उस पद  विशेष के लिए पुरुष ही ज्यादा उपयुक्त लगेगा. अब उस नौकरी देने वाली कंपनी को लिंगभेदी कहा जाय या समाज को?
अब सवाल यही है कि यथास्थिति को बदलने की पहल कौन करे? ये जोखिम कौन उठाए? इस लाइब्रेरी में लड़कियों की मनाही सीमित जगह की समस्या हल करने का तरीका है लड़कियों के लिए अलग लाइब्रेरी भी सामाजिक परिवेश देखते हुए वाजिब व्यवस्था लगती है. न माता- पिता ऐसी पहल कभी करेंगे और विश्विद्यालय के पास तो लड़कियों की सुरक्षा का एक सर्वव्यापी और सर्वमान्य बहाना है ही. किसी भी सन्दर्भ में लड़के- लड़कियों का मुक्त रूप से मिल पाना हमारे समाज के लिए गाहे- बगाहे चिंता का विषय बन ही जाता है. लेकिन सवाल माता- पिता की अनुमति से परे छात्राओं की स्वतंत्र निर्णय क्षमता का भी है. संसाधनों की कमी और अभिभावकों की अनिच्छा को कब तक उन्हें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी से वंचित रखने का बहाना बनाया जा सकता है? गौरतलब है कि लाइब्रेरी में प्रवेश की मांग छात्राओं की तरफ़ से ही आयी थी. उसके बाद वी.सी. साहब ने मानव संसाधन मंत्रालय से लाइब्रेरी का स्पेस बढ़ाने के लिए अनुदान माँगा है जिससे ज्यादा छात्राओं को भी सेन्ट्रल लाइब्रेरी में जगह दी जा सके. वी.सी. पर ज़्यादा से ज़्यादा यथास्थिति बने रहने देने का इल्ज़ाम लगाया जा सकता है इसे पैदा उन्होंने नहीं किया. ये ज़रूर है की महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग जो शायद बदलाव की पहल करने का माद्दा रखते हैं उनका आत्मसंतोष अक्सर प्रगति में बाधक होता है. और जेंडर के आधार पर समानता फ़िलहाल प्रगति और मानवाधिकार विकास का पर्याय बन चुकी है. 
खबर आ रही है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में वी.सी. के ख़िलाफ़  दाखिल एक जनहित याचिका के जवाब में कोर्ट ने लड़कियों को सेन्ट्रल लाइब्रेरी की सदस्यता दिए जाने के आदेश दिए दे हैं. वी.सी. साहब का बयान उसके सन्दर्भ के साथ देखा जाय तो नारी विरोधी नहीं था लेकिन सेंट्रल लाइब्रेरी के दरवाज़े लड़कियों के लिए खुलना निश्चय ही लैंगिक समानता की दिशा में अगला कदम है. 

हमें बीमारी का कोई लक्षण दीखते ही जड़ तक जाने के बजाय लक्षण पर वार करने की आदत बन गयी है, किसी सर्वव्यापी समस्या का दोष मढने के लिए बलि का बकरा तलाशने की प्रवित्ति है ताकि अपनी ग्लानि और ज़िम्मेदारी से मुक्त हुआ जा सके. कम से कम भारत में ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में देर रात रिसर्च लैब में बैठने से लेकर हॉस्टल से देर रात गए बाहर रहने के मामले में लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग नियम हैं. ये सब अलग पुस्तकालय की तरह ही समय और स्पेस के संसाधन पर पुरुष के विशेषाधिकार को सुदृढ़ करते हैं. इस मामले में बहस तो हर विश्वविद्यालय के पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा होनी चाहिए. 
पर फ़िलहाल बलि का बकरा ए.एम्.यू. के वी.सी. ही बने!


Sunday, August 10, 2014

नग्नता की शुद्धता और शॉक वैल्यू




हम अजीब विरोधाभासी दुनिया में रहते हैं. फ़िल्म पी.के. के पोस्टर आते ही एक लहर आमिर खान को न्यूड पोज़ देने की बहादुरी की प्रशंसा की चली तो वहीं दूसरी लहर इस बहाने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के दोगलेपन औए लिंगभेद पर हमले की. जो बॉलीवुड (मय दर्शक) आमिर खान के पोस्टर के लिए नग्न होने को उनका कला के प्रति डेडिकेशन बता रहा है, वही वर्ग शर्लिन चोपड़ा और पूनम पांडे के ऐसा करने को पब्लिसिटी स्टंट कहकर फ़तवे जारी करता रहता है. लेकिन विरोध के लिए विरोध करने वाले किसी को भी निराश नहीं करते. इस जमात ने आमिर पर भी ऑब्सिनिटी ऐक्ट के तहत मुक़दमा ठोंक दिया. अब सबके सुर बदल गए हैं. लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा सनी लियोन ने किया होता तो यही जमात आँखें सेंक रही होती.
इन सब विवादों से इतना तो खुल कर सामने आया है कि नग्न देह भी इस क़दर जेंडर्ड है कि हम पुरुष की देह में बहादुरी और स्त्री की देह में कामुकता ढूंढ ही लेते हैं. पी.के. का पोस्टर मात्र पब्लिसिटी स्टंट है या फिर सचमुच उस फ़िल्म की कहानी की कुंजी, इसका फ़ैसला तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद ही हो सकेगा लेकिन ये पोस्टर सामान्य न्यूड से थोड़ा अलग है. 

इसमें आपकी नज़र सीधे आमिर की नज़र से मिलती है, चेहरे के भाव से स्पष्ट है कि वो कुछ बतलाना चाहता है. इसके समानांतर ‘फ़ीमेल न्यूड’ फ़िल्म या पोर्न में तो क्या, कला के इतिहास में भी ढूँढ पाना मुश्किल है. इनमें चित्रित औरतें ज़्यादातर खोई हुई सी कहीं और देख रहीं होतीं है. आपकी नज़र उनकी नज़र पर नहीं बल्कि सीधे उनके शरीर पर पड़ती है जो कि निरीक्षण के लिए हाज़िर है. कभी अगर नज़र सामने होगी भी तो भाव हमेशा स्त्रियोचित कोमलता या कामुक आमंत्रण के होंगे. आप उन्हें देखे और वो पलटकर आपको, फ़ीमेल न्यूड में ऐसे असहज व्युत्क्रम का सामना नहीं करना पड़ता. नारीवादी चाहे नारी देह की स्वतन्त्रता की जितनी सिफ़ारिश करें लेकिन ज़्यादातर फ़ीमेल न्यूड पुरुष की दृष्टि के लिए बने हैं और वो स्त्री के अपने भावों के बजाय उन्हें देखने वाले की कामेच्छा का प्रतिबिम्ब होते हैं.

लेकिन इन सबसे इतर एक मुद्दा सिर्फ़ नग्नता और उसके विभिन्न निहितार्थों का भी है. मानव के जातिवृत्त और जीवनवृत्त दोनों ही में देखना, सुनने और बोलने से पहले विकसित होने वाली इन्द्रिय है. हम जितना कुछ देख पाते हैं क्या उतना ही और उसे वैसा का वैसा ही कह पाते हैं? दृश्य और भाष्य के बीच का यह फ़र्क ही नग्नता और अश्लीलता के बीच का फ़र्क है. एक बार पढ़ना-बोलना सीख जाने के बाद हम बालसुलभ भोलेपन से दुनिया को नहीं देख सकते. अब हमारे और हमारी आस-पास की दुनिया के बीच हमारे ज्ञान और अनुभवों का पर्दा है. चूंकि बात फ़िल्म के पोस्टर से शुरू हुई है इसलिए एक फ़िल्म का उदाहरण भी यहाँ मौजूं होगा. हाल ही में आयी फ़िल्म ‘आँखों देखी’ के बाऊजी जब से सिर्फ़ अपनी आँखों देखी पर यकीन करने की ठान लेते हैं तब से उन्हें वो चायवाला भी खूबसूरत नज़र आने लगता है जिसे उन्होंने पहले कभी ध्यान से देखा भी नहीं था. हम असलियत नहीं बल्कि असलियत की सांस्कृतिक हस्तक्षेप से बनी छवि देखते हैं. इसलिए नग्नता हमारे लिए सिर्फ़ निर्वस्त्र होने से ज़्यादा कुछ हो जाती है. इसी वजह से तथाकथित सभ्य समाज में इसकी एक शॉक वैल्यू है जिसका उपयोग अलग-अलग तरीके से होता रहा है.


उदाहरण के तौर पर भारतीय सशक्त सेना बलों के द्वारा एफ्स्पा की आड़ में किये जाने वाले बलात्कारों के विरुद्ध मणिपुर मदर्स के न्यूड प्रोटेस्ट या फिर इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए ग्रामीण महिलाओं का नग्न होकर हल चलाना ले सकते हैं. रूटीन से अलग होने ने ही नग्नता को उसकी शॉक वैल्यू दी है जो हमें कभी कचोटती है तो कभी वीभत्स रस से भर देती है लेकिन हमारा ध्यान खींचने में हमेशा ही सफ़ल रहती है. जहां 'न्यूड बीच' का चलन है या फिर जिन जनजातियों में कपड़े पहनने या वक्ष ढंकने की बाध्यता नहीं है, वहां नग्नता पूरी तरह से डीसेक्चुअलाइज्ड है और किसी को चौंकाती भी नहीं है.


न्यूडिटी का एक बहुत महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक अर्थ शुद्धता और प्रकृति से निकटता का भी है. ये संयोंग नहीं है कि ‘पेटा’ (people for ethical treatment of animals) ने शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए लोकप्रिय शख्सियतों के न्यूड या फिर उनकी सिर्फ़ पौधे-पत्तों में लिपटी छवियों का बारहा इस्तेमाल किया है. इसके अलावा, कोई विरला ही धर्म होगा जिसके किसी भी पवित्र स्थल पर नग्न मूर्तियाँ या छवियाँ न मिलें. दिगंबर जैन, नागा साधू इत्यादि की परम्परा विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में नग्नता को शुद्धता का पर्याय माने जाने को रेखांकित करते हैं. जहां नग्न होना निराभरण और छलरहित होने का पर्याय हैं.

ऐसे में नग्नता को इतनी सहजता से सेक्स और अश्लीलता से जोड़ लेना हमारी मानसिकता की दो परतों को उघाड़कर सामने लाता है. पहला कि नग्नता हमेशा सेक्स का पर्याय है और दूसरा- हमारे लिए सेक्स से जुड़ी चीज़ें हमेशा अश्लील और गंदी ही होंगीं. ये दोनों ही बातें हमारी साइकोलॉजी में घर कर चुकीं हैं. सेक्स एजुकेशन के विरोध के पीछे भी कमोबेश यही मानसिकता है.

दरअसल बाज़ार और उपभोक्तावाद की संस्कृति के लिए नग्नता का कामुकता से जुड़ा अर्थ ही सबसे अनुकूल है. शायद हमारी ही दमित कुंठाओं ने बाज़ार को संकेत दिया होगा जिससे कि नग्नता फ़िल्म या कोई भी उत्पाद बेचने का सबसे सरल साधन बन गयी. शुरुआत जहां से भी हुई हो, फ़िलहाल ये कुचक्र हमारे ऊपर इतना हावी हो चुका है कि हम न्यूडिटी में शुद्धता या फिर कलात्मकता देखने की क्षमता खो बैठे हैं. वो चाहे किसी भी रूप में किसी भी उद्देश्य से हमारे सामने आये, हमें हमेशा कामोत्तेजक ही लगती हैं. ऐसे में पी.के. का पोस्टर चाहे कुछ भी इंगित कर रहा हो हमें तो वो अश्लील लगना ही था. एक बार भाषा से बनी कृत्रिम दुनिया का हिस्सा बन जाने के बाद सिर्फ़ दृष्टि बोध की शुद्ध दुनिया में लौटना असंभव है.



Monday, July 14, 2014

फ़ीफ़ा का तमाशा और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल

जून के महीने में अगर आपने रेड एफ़.एम. सुना हो तो गानों के बीच विज्ञापनों के पारंपरिक व्यवधानों के अलावा फ़ीफ़ा विश्व कप की अपडेट और कपिल शर्मा के लाइव कंसर्ट की सूचना मिलती रही होगी. गूगल ने फ़ीफ़ा वर्ड कप के पहले से लेकर आखिरी दिन तक के लिए अलग-अलग ‘गूगल-डूडल’ मुक़र्रर कर रखे थे. इसी गूगल सर्च पर कपिल टाईप करते ही आने वाले सुझावों में कपिल ‘शर्मा’, ‘देव’ और ‘सिब्बल’ को पीछे छोड़ चुका है. फ़ीफ़ा वर्ड कप और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल अपनी- अपनी दुनिया में मनोरंजन के सिरमौर बन चुके हैं. इनके  सर्वव्यापीपन से अनजान होना आपके ‘बोरिंग’ होने या फिर आपके पिछड़ेपन(?) का सबूत माना जा सकता है. कपिल शर्मा इस महीने की पांच तारीख को अपने कंसर्ट में करोड़ों बटोर चुके है, आगे शायद फ़िल्मों में काम करेंगे. आज बीसवें विश्व कप का विजेता भी जर्मनी घोषित हो गया है. खेलों को, ब्राज़ील को, हास्य को और हमें क्या मिला? ये सवाल रह जाएगा.



ब्राज़ील में बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है. दरअसल, मनोरंजन अब वक्त काटने का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा अफ़ीम बन गया है जिसकी खुराक लेकर हम सच्चाई से पलायन कर जाना चाहते है. जिसके नशे में हम लिंगभेद, नस्लभेद, भ्रष्टाचार को भुलाए रखना चाहते हैं. ऐसे में ब्राज़ील का अपनी ही ज़मीन पर हारना शायद इस तंद्रा को तोड़े.

प्रसिद्ध दार्शनिक वोल्टेयर का कहना था कि ‘अगर ये जानना हो कि आपके ऊपर राज कौन करता है, ये जानने की कोशिश करो कि आप किसकी आलोचना नहीं कर सकते.’ इसी तर्ज़ पर क्या ये माना जा सकता है कि हम जिसकी आलोचना बिना किसी बात के कर सकते हैं, जिस पर बात-बेबात हंस सकते हैं, वो समाज का सबसे शोषित वर्ग है? व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर मनोरंजन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है और इसे हम किस हद तक मनोरंजन के नाम पर अनदेखा कर सकते हैं? भव्यता का अश्लील प्रदर्शन और गले फाड़ कर हंसना ही मनोरंजन का पर्याय कब से बन गया? इन सब सवालों के सही-सही जवाब मिलना शायद संभव न हो पर इनकी पड़ताल करना किसी समाज की नब्ज़ टटोलने जैसा है.

कॉमेडी नाइट्स विद कपिल के हास्य, या कहें परिहास का केंद्र सारे महिला पात्र हैं. उसकी पत्नी जब-तब अपनी औसत शक्ल सूरत और कम दहेज लाने के लिए अपमानित होती रहती है. कपिल अर्थात बिट्टू शर्मा की एक ढलती उम्र की बुआ है जिसका कुंवारा रह जाना उसकी सबसे बड़ी व्यथा है और उसकी पुरुष-पिपासा हमारे हास्य का स्रोत. थोड़ी आज़ादी है तो दादी के चरित्र के लिए जो दारू पी कर झूम सकती है और शो में आये पुरुषों को ‘शगुन की पप्पी’ चस्पा कर सकती है. उम्रदराज़ औरतों पर हमारे समाज में बंधन नियंत्रण की ज़रुरत वैसे भी नहीं समझी जाती. एक वजह यह भी है कि दादी का चरित्र एक पुरुष अदाकार निभा रहा है. पुरुषों का स्त्रियों जैसी वेशभूषा पहनना और उनके जैसी हरकतें करना हमारे लिये इतना हास्यास्पद है कि इसके अलावा हमें हंसाने के लिए उसे ज़्यादा मेहनत की भी ज़रुरत नहीं पड़ती.

फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुमान के मुताबिक़ २०१४ के विश्व कप पर लगभग 14 अरब डॉलर का खर्च आया है. ब्राज़ील के आर्थिक हालातों को मद्देनज़र रखते हुए विश्वकप का आयोजन पहले ही देश पर वैसे भी एक भार था. विश्व के अब तक के सबसे महंगी स्पर्धा की तैयारी के लिए ब्राजील सरकार को पब्लिक परिवहन का किराया बढ़ाना पड़ा साथ ही बहुत सी ज़रूरी सार्वजनिक परियोजनाओं को भी रोकना पड़ा. विश्व कप के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए किये गए चाक-चौबंद सुरक्षा इंतज़ामात में हुआ खर्च एक अतिरिक्त भार था. फ़ीफ़ा प्रमुख ‘सेप ब्लैटर’ पर जब-तब भ्रष्टाचार की आरोप लगते रहें है. ब्रिटेन के सन्डे टाइम्स के एक खुलासे के अनुसार २०२२ में फ़ीफ़ा के आयोजन का अधिकार ‘क़तर’ को मिलना एक अंदरूनी फिक्सिंग थी. न सिर्फ़ इस अरबी देश की गर्म जलवायु इस खेल के आयोजन के प्रतिकूल है बल्कि वहां खेलों की तैयारी के लिए भारतीय और नेपाली प्रवासी मजदूरों से अमानवीय तरीके से काम लिया जा रहा है. मजदूरों की लगातार होती मौत और उनके मानवाधिकारों का हनन, क़तर के चुनाव को निष्पक्ष बताने वालों के गले की हड्डी बनती जा रही है.
हिन्दी में हास्य को एक अलहदा विधा का रूप देने वाले हरिशंकर परसाई का तीखा व्यंग्य सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार होता था. स्टैंड अप कॉमेडी में भी फूहड़पन शुरुआत से रहा हो ऐसा नहीं है. सुरेन्द्र शर्मा के हास्य में भी ‘घरवाली’ आती है लेकिन सिर्फ़ नीचा दिखाई जाने के लिए नहीं. शैल चतुर्वेदी और अशोक चक्रधर का व्यंग्य ज़्यादातर या तो ट्रेजेडी से उपजता है या फिर ख़ुद की कमियों पर ही हँसते हुए उत्तम हास्य की कसौटी पर खरा उतरता रहा है. ये धारा अब टी.वी. के कॉमेडी शोज़ में तिरोहित हो चुकी है. इसी तरह फ़ुटबॉल का उद्भव ‘हार्पेस्तान’ नाम के एक प्राचीन यूनानी खेल से हुआ माना जाता है. ये एक बर्बर,  आक्रामक और ग्रामीण खेल था जिसके कोई ख़ास नियम नहीं थे. सालों के मानकीकरण और वैश्वीकरण ने फ़ुटबॉल को उसका आधुनिक रूप बख्शा है. इस विषय में ऑस्कर वाइल्ड का प्रसिद्ध कथन है, ‘फ़ुटबॉल बर्बर लोगों के लिए बना वह खेल है जिसे सभ्य लोग खेलते हैं.’ व्यवसायीकरण और मुनाफ़े की मंशा में गुड़ में मक्खी की तरह आ जुटे प्रायोजकों ने कॉमेडी और फ़ुटबॉल दोनों ही को उसका मौजूदा विकृत रूप दिया है. ज़ाहिर है, तत्सम जब तद्भव बनता है तो अपनी बर्बरता तो बचा ले जाता है लेकिन अपनी सादगी नहीं.

कपिल शर्मा के शो पर कई बार महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने पर केस दर्ज करने की कोशिश हुई. लेकिन उसे एक अतिवादी प्रतिक्रया कह कर पल्ला झाड़ लिया गया. ब्राज़ील विश्व कप पर हुए अनाप-शनाप खर्च को वहन करना भी सालों तक बढ़े हुए टैक्स के रूप में वहां के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से ही आयेगा और सारा मुनाफ़ा फ़ीफ़ा का होगा. लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी इस अन्याय का विरोध करने के लिए अपनी ही सरकार का दमन झेल रहें है. जो सबसे ज़्यादा प्रभावित है उसे ही मनोरंजन के नाम पर सबकुछ बर्दाश्त करने को कहना हमारी प्रवित्ति है और ये किसी टी.वी. कलाकार या खेल संस्था से ज़्यादा हमारी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.
ये एक अजीब संयोग है लेकिन भ्रष्टाचार का गढ़ होने के साथ- साथ ऐसे खेल आयोजन  प्रतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का भी एक ज़रिया बन सकते हैं. ब्राज़ील के नागरिकों का विश्व कप की पूर्व संध्या पर किया गया अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन इस मामले में हमारी प्रेरणा बनने लायक है जिसमें फ़ीफ़ा और जागरूक नागरिक, अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में एक दूसरे के आमने- सामने थे. ऐसे में नागरिकों का इनकी दी अफ़ीम चाटकर अशक्त नींद में सो जाना एक पाले की सबसे बड़ी उम्मीद है दूसरे पाले की सबसे बड़ी हार. क्यूंकि टी.वी. के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है और फ़ीफ़ा जैसी संस्थाएं किसी भी सरकार के लिए उत्तरदायी नहीं है.

महिलाएं, बच्चे, मजदूर और आर्थिक रूप से अल्पविकसित तबका इस चमकती तस्वीर का वो निगेटिव है जिसकी ज़रुरत सिर्फ़ भव्य आयोजनों और भड़कीले कॉमेडी शोज़ की रंगीन तस्वीर रचने के लिए पड़ती है. कुछ विरले लोग इस तस्वीर और निगेटिव के बीच की खाई लांघ भी सके हैं. ख़ुद साधारण पृष्ठभूमि से आये ख़ुद कपिल शर्मा की सफ़लता इसका प्रमाण है. या फिर सोमालिया जैसे पिछड़े देश से आये रैपर ‘के नान’ की कहानी जिसका गाना २०१० के फ़ीफ़ा विश्व कप का आधिकारिक चिन्ह और अफ्रीकी देशों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरा था. पर इन गिने चुने उदाहरणों के अलावा ज़्यादातर किस्से निराशाजनक ही हैं. आज, १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार ‘डाऊज़ केमिकल’ लन्दन के ओलम्पिक का प्रायोजक हो सकता है, आई.पी.एल. की टी.आर.पी. मैच फिक्सिंग की खबरों के बाद और भी बढ़ सकती है, महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाले ‘मिस इंडिया’ के निर्णायक हनी सिंह हो सकते हैं. हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि ये बातें अब हमें परेशान भी नहीं करतीं. हालिया विश्व कप के लिए गाया गया ‘पिटबुल’ का गाना ‘वी आर द वन’ हमारी इस स्थिति के लिए सबसे सटीक रूपक है. इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी सह लेने के मामले में क्या भारत, क्या ब्राज़ील हम सब एक ही हैं!

'पत्रकार प्राक्सिस' पर यह लेख.


Wednesday, July 9, 2014

बिलकीस बानो अक्का 'बॉबी जासूस'

‘बॉबी जासूस’ से पहले शायद ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ ही ऐसा कर पायी है. जिसमें मुख्य किरदारों के नाम ‘शर्मा’, ‘मेहता’ या ‘सिंह’ नहीं थे. ऐसा होने के बाद भी वो एक मुख्यधारा की फिल्म थी. उस फ़िल्म के तमाम मुख्य किरदार ‘खान’ थे लेकिन उसकी बार-बार उद्घोषणा की ज़रुरत नहीं थी. अब तक ये विशेषाधिकार हमारी फिल्मों में सिर्फ़ हिन्दू नायकों के लिए सुरक्षित है.  हमारी फ़िल्म के सारे नायक ऊंची जाति के पुरुष ही क्यूं होंगे ये सवाल हमने अपने फिल्मकारों से कभी पूछा ही नहीं. शायद हमारे दिमाग में भी नहीं आया. क्यूँ मुस्लिम युवक या तो आतंकवादी होंगे, या फिर हीरो की रोमांस में मदद करने वाले शायर या फिर शान्ति के मसीहा जैसे कुछ, जिससे बाकियों के पाप धुल जाएँ? कुल मिलाकर उनका मुस्लिम होना ही उनकी पहचान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहेगा. बाक़ी बातें गौण होंगी. वो ‘फ़ना’ का नायक हो सकता है, ‘दबंग’ या ‘हौलिडे’ का कतई नहीं. हिन्दू नायक कभी डॉक्टर होगा, कभी सैनिक, कभी इंजीनियर, साथ में उसका हिन्दू होना जैसे उसके खाने-पीने, सांस लेने जितना ही स्वाभाविक है.

ऐसे में मुस्लिम औरत एक ऐसा क्रॉस सेक्शन है जिसका हमारी फ़िल्म में नायक बनकर आना एक घटना है. ‘बॉबी जासूस’ की खूबसूरती ये नहीं है कि उसकी नायिका एक मुस्लिम औरत है. बल्कि एक फ़िल्म के रूप में अपनी तमाम खामियों के बावजूद उसकी सफ़लता ये है कि फ़िल्म देखते हुए हम ये बात बिलकुल भूल जाते हैं. ‘बिलकीस बानो’ को फ़िल्म का नायक (जब तक फ़िल्म को अपने कन्धों पर उठाने वाले के लिए कोई ‘जेंडर न्यूट्रल’ विशेषण न हो) बनने के लिए न दंगा पीड़ित होने की ज़रुरत हुई, न ही औरतों के ऊपर हुए अत्याचारों का बदला लेने की. हैदराबादी लहजे में बोलने वालों को जोकर दिखाने की भी ज़रुरत नहीं है. कैरियर के चुनाव को लेकर तनाव और संवादहीनता की स्थिति पिता और ‘बेटी’ में भी हो सकती है. बिलकीस अपने जैसी रहते हुए भी सिर्फ़ ‘समानांतर सिनेमा’ नहीं बल्कि मुख्यधारा सिनेमा का मुख्य किरदार हो सकती है जहां उसे ‘मर्दानी’ बनने की ज़रुरत नहीं. ‘वुमन’ और ‘माइनौरिटी’ के ख़ास दर्जे और मुद्दों के बिना भी एक पूरी फ़िल्म उस पर केन्द्रित रह सकती है. बराबरी शायद ऐसी ही दिखती है! 

Friday, June 27, 2014

कंडोम बनाम कल्चर


 हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन, एड्स से लड़ने के लिए कंडोम के बजाय भारतीय संस्कृति को प्राथमिकता देने की कह कर सोशल मीडिया के निर्दय चुटकुलों के ताज़े- ताज़े शिकार बन गए हैं. हालांकि उन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज के ज़रिये सफ़ाई देने की कोशिश की है कि उनके बयान को तोड़ा- मरोड़ा गया है. वो कंडोम के विरोधी नहीं लेकिन सेक्स संबंधों में ईमानदारी के पक्षधर हैं. पर तब तक सोशल मीडिया पर कल्चर ही कंडोम है’, ‘अपना कल्चर पाहन कर चलोजैसे जुमले उछाले जा चुके थे. उनके इस बयान के बहाने ही सही दो मुद्दों महत्वपूर्ण पर प्रायः प्रतिबंधित मुद्दों पर चर्चा की जानी चाहिए- पहली स्वास्थ्य नीतियों में नैतिकता के दखल और दूसरा विज्ञापनों में  कंडोम का चित्रण.फ़िलहाल अगर स्वास्थ्य मंत्री के बयान के सन्दर्भ को परे रख कर बात करें तो संस्कृति के ज़रिये समस्या का समाधान निकालना कोई हास्यास्पद बात नहीं है. कोई भी संस्कृति अपने मूल में अपनी जन्मदाता सभ्यता के लोगों की ज़रूरतों का जवाब भर ही है. जब तक तकनीक किसी समस्या का तोड़ न ढूंढ ले, संस्कृति ही समाधान है. लेकिन तकनीक का विकास होते ही संस्कृति का पलक झपकते ही बदल जाना संभव नहीं है. इसके जीवाश्म आधुनिकता के साथ हमेशा ही लिपटे रहते है. गर्भनिरोधकों के आविष्कार-प्रसार से पहले के समय में, ‘संयमकी संस्कृति निश्चय ही अनचाहे गर्भ, संक्रमण से बचाव और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए वरदान रही होगी. ये किसी ख़ास धर्म या संस्कृति की विशिष्टता हो ऐसा भी नहीं है. ईसाई धर्म का भी ब्रह्मचर्य और एब्स्टिनेंसपर कमोबेश उतना ही ज़ोर रहा है. लगभग सभी पोप गर्भनिरोध, कंडोम और गर्भपात को लेकर अपने अनुदार विचारों से विश्व को चौंकाते रहें है.
इस तरह की नैतिकता का पाठ पढ़ाना धर्मगुरु होने की पात्रता तो हो सकती है लेकिन स्वास्थ्य नीतियों के साथ इसका घाल-मेल बहुत घातक है. नीति नियंताओं और शिक्षकों ने जब भी जागरूकता पैदा करने की ज़िम्मेदारी नैतिक शिक्षा के सहारी छोड़ी है, तब-तब मुंह की खाई है. नब्बे के दशक में अमेरिका में किशोर लड़कियों में बढ़ती गर्भाधान की दर से निपटने के लिए किये गए उपाय इसका उदाहरण है. कुछ कैथोलिक स्कूलों ने यौन-शिक्षाके बजाय एब्स्टिनेंस ओनलीकार्यक्रमों का सहारा लेना ज़्यादा पसंद किया. २०१० के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मिसीसिपी जैसे राज्यों में जहां यौन शिक्षा नहीं दी गयी वहां किशोरियों में अनचाहे गर्भ की दर न्यू हैम्पशायर जैसे उदार राज्यों से अधिक है जहां के स्कूलों में यौन शिक्षा दी जाती है. जागरूकता विहीन युवा और किशोरों के पास ग़ैरइरादतन गर्भ और एड्स से बचने की कोई तैयारी नहीं होती. क़ानून या उपदेश के बूते हम किसी के लिए यौन गतिविधि की उम्र नहीं तय कर सकते. कम से कम नीति नियंताओं को इस मुगालते में नहीं आना चाहिए. हां, सही जानकारी और कंडोम के प्रचार-प्रसार के ज़रिये उन्हें एड्स जैसी तमाम संक्रामक बीमारियों के खतरे से ज़रूर बचाया जा सकता है. अब बात कंडोम के विज्ञापनों की आती है. डॉक्टर हर्षवर्धन की शिकायत कंडोम के विज्ञापनों के ज़रिये हर तरह के संबंधों को जायज़ दिखाने की है. गौरतलब है कि हाल ही में अभिनेता रणवीर सिंह ने ड्यूरेक्स कंडोम का ऐड किया जिसमें वो हर बार अलग लड़की के साथ नज़र आते हैं. ये एक अजीब संयोग है लेकिन फ़ौरी तौर पर विरोधाभासी दिखने वाली इन दोनों घटनाओं में एक जैसा ही सन्देश निहित है. डॉ. हर्षवर्धन अगर मोनोगैमी को कंडोम का विकल्प मानते हैं तो क्या वो इस बात की अनदेखी नहीं कर रहे कि बेहद इमानदार संबंधों में भी अनचाहे गर्भ और एस.टी.डी. का ख़तरा होता है. इसी तरह डू द रेक्सका विज्ञापन पुरुषों की बिन लगाम के घोड़ेवाली छवि को भुना रहा है. दोनों ही अपने- अपने तरीके से वैवाहिक संबंधों के भीतर कंडोम की ज़रुरत को कम करके आंक रहें है. ये ठीक है कि  नैतिकता किसी भी विज्ञापन को कटघरे में खड़ा करने का बहाना नहीं बन सकता लेकिन जो उत्पाद किसी सामाजिक सारोकार से जुड़ा हो मीडिया में उसके चित्रण की पड़ताल ज़रूरी है. अस्सी-नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले निरोध के विज्ञापनों में पुरुष कभी कैसीनोवानहीं होते थे. वो ज़्यादातर हमारे आस-पास का शादीशुदा आदमी थे. क्या मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग तक जागरूकता पहुंचाने के लिए ये आम आदमीवाली छवि ज़्यादा सहायक नहीं है?
एक और रोचक पहलू महिलाओं का ऐसे विज्ञापनों से नदारद रहना भी है. क्या इसे हमारे समाज में शारीरिक संबंधों के मामले में औरतों के पास निर्णय लेने का ज़्यादा अधिकार न होने का प्रतिबिम्ब माना जायएक पूजा बेदी के कामसूत्रविज्ञापनों को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो आज भी किसी मुख्यधारा की अभिनेत्री का कंडोम के ऐड में दिखाई देना उसके कैरियर के लिए घातक होगा. औरतें दिखीं हैं तो माला डीके ऐड में, वो भी हमेशा शादीशुदा जिनके लिए गर्भनिरोधक गोलियां बच्चों में अंतर रखने का एक तरीका है निडर प्रणय संबंधों का साधन नहीं. डू द रेक्समें लड़कियां तो हैं लेकिन वो निर्णयकर्ता नहीं निष्क्रिय सजावटें हैं जो सिर्फ़ विज्ञापन को ज़्यादा उत्तेजक बनाने के लिये है. लेकिन स्थापित मानकों का इस्तेमाल शायद ऐसे विज्ञापन निर्माताओं की मजबूरी है कभी व्यावसायिक लाभ के लिए तो कभी ज़्यादा से ज़्यादा जनता को बिना प्रतिरोध के जागरूक करने के लिए.

लेकिन स्वास्थ्य मंत्री और डॉक्टर होने के नाते क्या हर्षवर्धन जी की क्या ये ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इस बहस को नैतिकता के बजाय यथार्थ के प्रिज़्म से देखने और दिखाने की कोशिश करें. आज इंटरनेट और टी.वी. की व्यापक पहुँच हर तरह के अधकचरा ज्ञान को घर- घर पहुंचा रही है. आप न यौन जिज्ञासा को रोक सकते हैं और न ही आपसी सहमति से बने किसी भी तरह के विवाह-पूर्व, विवाहेतर या वैवाहिक संबंधों को. लेकिन उन्हें सुरक्षित ज़रूर बना सकते है. एड्स की बढ़ती दरों के बीच कंडोम सबसे प्रक्टिकल उपाय है. वैसे भी ये एक बचकानी अवधारणा है कि लोग हर तरह के यौन सम्बन्ध सिर्फ़ इसलिए बनाने लगेंगे क्यूंकि कंडोम आसानी से उपलब्ध है! स्वास्थ्य विभाग अगर अपना नैतिक-अनैतिक थोपे तो असफ़ल होगा क्यूंकि सबके लिए एक ही रेडीमेड नैतिकता काम नहीं करती. वहीं अगर वो नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष रहकर जागरूकता अभियान में अपनी ताकत झोंके तो ज़रूर सफ़लता मिलेगी क्यूंकि जागरूकता की कमी ही उनकी चिंता का विषय हो सकता है. नैतिकता की कमी की भरपाई करना किसी भी मंत्री या सरकारी मंत्रालय के अधिकारक्षेत्र के बाहर है.


 डॉक्टर हर्षवर्धन का साक्षात्कार 
विस्फोट.कॉम पर यह लेख