उन्हें सारी चीज़ों के भाव
रटे होंगे. वो दूधवाले के नागों का, कामवाली की छुट्टियों का, किराने की दूकान के
उधारों का मुंहज़बानी हिसाब रखेंगी. फल- सब्ज़ी वालों से मोल- तोल करके सबसे सस्ता
सौदा खरीद कर लायेंगी. पर बजट की घोषणा होगी तो आप अखबार झपट लेंगे- ‘ये पॉलिटिक्स
है मम्मी, आप नहीं समझेंगी.’
ये दिन भर मिक्सी, कुकर,
चूल्हे से जूझेंगी. वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव और फ्रिज के अति कॉम्प्लिकेटेड बटनों
के साथ माथापच्ची करेंगीं. लेकिन कम्प्यूटर और कार की सीटों पर आप कुंडली मारकर
बैठ जायेंगे- ‘ये नयी टेक्नॉलोजी है मम्मी, आप नहीं समझेंगी.’
ये सुबह आपको जगाएँगी. आपके
इस्तेमाल की सब चीजें तैयार रखेंगी. घर से निकलने से पहले मोबाइल, पर्स, पैसे रख
लेने की याद दिलाएंगी. आपके वापस आने से पहले आपका अस्त- व्यस्त किया कमरा कोरा-
चिट्टा कर देंगी. बाहर आप माँ- बाप का प्रोफेशन पूछे जाने पर आप धीमे सुर में बोलेंगे-
‘मेरी मम्मी कुछ नहीं करतीं, वो हॉउसवाइफ हैं.’
आप के इस मनोवैज्ञानिक रोग
की छूत धीरे- धीरे इन्हें भी लग गयी है. ये ना अपना मनपसंद खाना बनाएंगी, ना अपने
कपड़े- लत्तों का ध्यान रखेंगी. आपके सर दर्द भर से इनके माथे पर शिकन आ जाएगी
लेकिन अपनी बीमारियों को कोई बड़ी बात नहीं समझेंगी. कुछ पूछने पर कहेंगी- ‘अरे
मेरा क्या है मैं कौन सी कामकाजी हूँ, दिन भर घर पर ही तो रहती हूँ.’
अगर आपकी मम्मियां भी ये
सारे लक्षण दिखाती हैं- अपनी मर्जी का खाती- पहनती नहीं, दिन भर तेल- हल्दी से सने
कपड़े लादे रहतीं हैं, अपने ऊपर पैसे खर्च करने से कतराती हैं, उनका फेवरेट कुछ भी
नहीं है, सबकी पसंद को ही अपनी पसंद बताती हैं, कभी साथ बैठ कर खाना नहीं खाती,
बाद में सबका बचा- खुचा बटोरती हैं. तो समझ जाइए कि आप बहुत बीमार हैं (आपकी मम्मी
नहीं). आप ‘माय मदर डज़ नॉट वर्क सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं.
दरअसल कुछ काम करने का
हमारा सीधा मतलब कुछ पैसे कमाने से है. जो कमाता नहीं, वो कुछ नहीं करता. इसी तरह जिस
काम के लिए हमें ठोस मुद्रा के रूप में कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती उसकी हमें कोई
क़द्र नहीं होती. हमारी मम्मियों का काम भी इसी श्रेणी में आता है. घर- बच्चे संभालने को किसी भी समाज में कोई बड़ा या बौद्धिक
काम नहीं समझा जाता.
लड़कियों को जबरन घरेलू
कामों की शिक्षा देना और उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें गृहकार्य और मातृत्व की तरफ़
धकेले जाना बुरा है. लड़कियां प्राकृतिक रूप से इन कामों में दक्ष होती हैं, ये हमारा
भ्रम है. अगर ऐसा होता तो फाइव स्टार होटलों के शेफ से लेकर चाट का ठेला लगाने
वाले तक, पड़ोस के दर्जी से लेकर फैशन डिज़ाइनर और नामी पेंटर- डांसरों तक सब के सब ज्य़ादातर
पुरुष नहीं होते. लड़कियों को अपना करियर छोड़ कर घर पर ध्यान लगाने के शिक्षा देते
रहना बुरा ज़रूर है लेकिन इसका हल घरेलू औरतों की अवमानना नहीं है. इसका हल उनके
काम की क़द्र किया जाना है. अगर हम लड़कियों के डॉक्टर, इंजीनियर बनने की सराहना
करते हैं तो उनके गृहणी बन जाने को उनकी शिक्षा का बेकार जाना क्यों समझ लेते हैं?
अगर महिला अपनी मर्जी से घर- बच्चे संभालने का निर्णय लेती है तो इसमें कोई बुराई
नहीं. बुराई है पहले तो उनको ऐसा करने पर मजबूर किये जाने में और फिर उनको घर में दोयम दर्जा देने में और ये समझने में कि जिस औरत ने
सिर्फ बच्चे पैदा किये और घर संभाला उसने कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किया. सबसे
भयंकर बात ये है कि खुद गृहणियों ने भी इन सारे पूर्वाग्रहों को सही मान लिया है.
वो खुद भी अपने शारीरिक- मानसिक सेहतमंदी को प्राथमिकता नहीं देती. हमें खुद को और उनको भी ऐसी सोच से बचाना होगा.
मेरी नजर में एक आदर्श समाज
वो होगा जहाँ स्त्री- पुरुष में से कोई भी अपनी- अपनी क्षमता और रूचि के हिसाब से
अपना काम चुन सकेंगे और अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को साझा कर सकेंगे. इसके लिए
उन्हें किसी की आलोचना का डर नहीं होगा. ना तो लडकियों के करियर चुनने पर कोई
बंदिश होगी और न ही हॉउसवाइफ होने को पिछड़ेपन की निशानी समझा जाएगा. ऐसे समाज को
बनाने के लिए सबसे पहले घर के कामों को और इन्हें करने वालों को उचित महत्त्व दिया जाना
ज़रूरी है.
दो विशेष बातें-
१.
ये (उपदेश) लड़के और लड़कियों
दोनों के लिए है. अपनी मम्मियों को निकम्मा मानने में हममें से कोई भी कम नहीं है!
२.
ये कोई मदर्स डे विशेषांक
नहीं है. कुछ बीमारियाँ हमारी सोच और समाज को लगातार त्रस्त करती आ रहीं हैं. इनसे
लड़ने की कोशिश भी उतनी ही व्यापक और निरंतर होनी चाहिए. ये डे- फे तो सिर्फ आर्चीज़-
हॉलमार्क का भला करने के लिए बने हैं.