Wednesday, February 26, 2014

क्यूंकि सड़क पर तो हम ही मिलतें हैं.....


ऑटोचालक जैनू
जोड़ा-ए-माँ बाप ने नाम दिया है जैनू. पेशे से ऑटोरिक्शा चालक और प्रजाति- आम आदमी. भारत की भीड़ का वो ‘मिनिमम कॉमन डिनॉमिनेटर’ जो दशमलव की बिंदी की तरह कहीं भी लगकर कभी वोट और कभी चवनिया फ़िल्मों के कलेक्शन कई गुना घटा-बढ़ा सकता है. या फिर मारे गए गुलफ़ाम का हीरामन कहूं, जो सोच रहा है कि अपने ऑटो पर बैठी संभ्रांत सवारी से बात कैसे शुरू की जाय? कि उसे ‘आप’ कहा जाय या ‘तुम’?
कहतें हैं कि दुनिया में हर चीज़ के दो प्रयोजन होते हैं- एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष. इस तर्ज़ पर राजनीति का अघोषित मकसद शायद अजनबियों के बीच बातें शुरू करवाने का उत्प्रेरक बनना है. घर से यूनिवर्सिटी तक पहुँचने ‘आप’ का एक पोस्टर पड़ा. मेरा उसे देखना जैनू रियर व्यू मिरर में ताड़ लेते हैं. “अबकी वोट दोगे इनको?” बस, बातचीत शुरू हो गयी.
“आप लड़कियों की वजह से क्लास लग रही है आजकल हमारी.” तो असल गांठ ये है!
भारत सरकार, मानस नाम की एक संस्था के सहयोग से दिल्ली में जेंडर सेन्सिटाईज़ेशन प्रोग्राम चला रही है. ऑटो रिक्शा चालक और पुलिस वालों के लिए. चार दिनों तक हर रोज़ दो घंटे की क्लास करनी पड़ेगी.
“हमारा लाइसेंस तभी रिन्यू होगा.” बदलाव के लिए या तो दंड देना होगा या फिर लालच. नए से लग रहे ओटो में महिला फ्रेंडली होने के पोस्टर पटे पड़ें हैं. आप सोच सकतें हैं कि इनसे होगा क्या? लेकिन शुरुआत तो कहीं ना कहीं से करनी ही होगी. बरसों की व्यवस्था चुटकियों में नहीं बदलती. पर सरकार और क़ानून हमेशा से ही बदलाव की बयार चलाने में सक्षम रहें है. सही दिशा मिलनी चाहिए बस.
जैनू का ऑटो
जैनू की क्लास का कंटेंट जानने की इच्छा हुई. “आप ही के जैसी लड़कियां सिखातीं हैं हमें. (थोड़ी तगड़ी आपसे कम हैं!) हमें बताया जाता है कि कोई लेडीज़ सवारी को ये मत समझो कि हमारी ग्राहक है, ये समझो कि हमारी माँ है, बहन है उसकी इज्ज़त करो.” इस बात के साथ अपनी समस्याएँ है. क्या ये ‘माँ-बहन’ और ‘सुरक्षा देने’ वाला मामला उसी सिस्टम का प्रतीक नहीं है जिससे लड़ने की कोशिश की जा रही है? उन लड़कियों का क्या जो ‘माँ- बहन’ की तरह रहती, बरतती, पहनती, ओढ़ती नहीं है. मनमर्ज़ी से देर रात आती-जाती हैं? क्या सुरक्षा का जिम्मा राज्य से हटकर जनता के हाथ में आ जाने का मतलब ये होगा कि आत्मनिर्भर लड़कियां, इन जोशीले ‘रक्षकों’ की शिकायत भरी भिनभिनाहट सुनेंगी कि उनके स्वच्छंद व्यवहार ने ही उनकी सुरक्षा करना कितना मुश्किल बना दिया है? आर ख़ुद जैनू का क्या जिन पर इन अतिरिक्त अपेक्षाओं भार आ पड़ा है? या फिर लोहे को लोहे से काटने, ज़हर को ज़हर से ही उतारने की तर्ज़ पर ये फ़ार्मूला सफ़ल होगा?

अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. इतना तय है कि समानता पर आधारित समाज में पुरुष को सिर्फ़ रक्षक या भक्षक ही नहीं समझा जाएगा. लड़की भी किसी की ज़िम्मेदारी नहीं होगी. लेकिन वहां तक पहुँचने के लिए शायद इन पूर्वस्थापित, पितृसत्तात्मक प्रतीकों का सहारा लेना ही पड़ेगा. जो पहले से ही लैंगिक समानता के पक्षधर हैं उनके लिए शायद ये मुहिम ज़्यादा काम की नहीं है लेकिन अगर इनसे इतर लोगों को प्रभावित करना है तो उनकी मानसिकता में झांकना पड़ेगा. उन्हीं की भाषाई गुफ़ा-कन्दराओं में भटकना पड़ेगा. कुछ वैसे ही जैसे ‘पोलियो उन्मूलन’ कार्यक्रमों के लिए धार्मिक फ़तवों की मदद लेनी पड़ी था. शौचालय बनवाने के लिए प्रेरित करने के लिए ‘बहू-बेटियों’ के खुले में शौच करने को उनकी ‘मर्यादा’ के ख़िलाफ़ बताना पड़ा था.
आखिर इस ‘मिनिमम कॉमन डिनॉमिनेटर’ तक जो ज्ञान न पहुंचे वो किस काम का? क्यूंकि बकौल जैनू ही, “रात-बेरात कहीं भी जाओ, सड़क पर तो हम ही मिलेंगे मैडम!”
अपना कॉलेज आ चुका था. “हम भी चलते हैं मैडम. वापस बुराड़ी जाना है. सुबह भी क्लास की थी अभी भी दोबारा दो घंटे बुराड़ी में क्लास. मेरे जैसे बहुत से ऑटो वालों की.” इस कथन में उलाहना तो है लेकिन तिरस्कार नहीं.

अब चलना होगा हीरामन. फिर मिलेंगे. तब तक शायद कुछ बदल चुका होगा या फिर बदलाव का दौर यूं ही चल रहा होगा. सफ़र शायद मंजिल से ज़्यादा सिखाते हैं. सबक सीखने की प्रक्रिया में हम भी कुछ बदल जाते हैं और शायद सबक भी वैसा का वैसा नहीं रहता.      

ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है -
http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=62632%3A2014-03-24-06-55-03&catid=21%3Asamaj 

फ़ोटोग्राफ़ में- ऑटोचालक जैनू और उनका ऑटो.

Sunday, January 12, 2014

एक खुला ख़त अरविन्द केजरीवाल के नाम


श्री अरविन्द केजरीवाल जी,

अभी कुछ ही महीने पहले की बात है. चुनाव कैम्पेन का माहौल था. तमाम वादे-नारे कहे-सुने जा रहे थे. ऐसे में आपका एक विज्ञापन ऑटो के पीछे दिखाई दिया- “हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमांडो फ़ोर्स बनाएगी.” इरादा नेक ही लगा और मुद्दा भी मौजूं था. उसी वक्त आपको एक खुला ख़त लिखकर इस मुद्दे पर आपका विस्तृत विचार जानने की इच्छा हुई. लेकिन आप भी जानते हैं कि हमारे देश में जनता और नेता के बीच एक अबोला सा है. यथास्थितिवाद का फैशन है और ‘छोड़ो, इससे क्या होगा’ वाली उदासीनता भी है. हालांकि आपके आने का बाद स्थिति बदली है. ऐसा लगने लगा है राजनीति आम आदमी से दूर कोई हवा-हवाई चीज़ नहीं है और भ्रष्टाचार जैसे ज़मीनी मुद्दे पर भी चुनाव लड़-जीते जा सकते हैं. इसलिए उस चिट्ठी को लिखने की इच्छा दोबारा बलवती हुई. अंततः लिखे ही दे रही हूँ, ताकि सनद रहे.

इससे पहले कि दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर बात की जाय, ये जान लेना ज़रूरी है कि दिल्ली में आखिर कौन लड़कियां रहतीं हैं और दिल्ली उनको क्या देती है? दिल्ली, मूल निवासियों और जाने पहचाने पड़ोस वाला शहर नहीं है. ये असीमित संभावनाओं का शहर है जहाँ लोग अपनी महात्वाकांक्षाओं को पूरा करने आते हैं. कस्बों से उठकर यहाँ आने वाली लड़कियां कॉल सेंटरों में काम कर रहीं हैं, मैकडोनाल्ड में पार्ट टाइम जॉब कर रहीं हैं, घरेलू कामगार हैं, यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. कर रहीं हैं, साल-दर-साल प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ रहीं हैं. वो सबकुछ कर रहीं हैं जिसकी इजाज़त बंदिशों की उमस भरा क़स्बाई परिवेश उन्हें नहीं देता.
विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियां दिन भर कौलेज के छतों-मीनारों-सेमिनारों में फेमिनिज़म, कम्यूनिज़म से लेकर डार्विन के सिद्धांतों पर गले फाड़ती हैं. आन्दोलनों में नारेबाज़ी करतीं, लिंगभेद की थ्योरिटिकली ऐसी- तैसी करतीं हैं. फिर घड़ी में आठ बजता देखकर सरपट भागतीं हैं ताकि हॉस्टल की समय-सीमा ना पार हो जाय. जो वोट देने की उम्र की हो चुकी हैं वो भी बात- बात में गार्जियन से कंसेंट फॉर्म भरवाती हैं. तुर्रा ये है कि ये सब उन्हीं की सुरक्षा के लिए तो है. यहाँ मेरी नीयत नियमों-अनुशासनों की भर्त्सना करने की नहीं है. लेकिन सुरक्षा और नियंत्रण में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? क्या किसी को सुरक्षा देने के लिए उसकी बुद्धि-विवेक और निर्णय क्षमता पर सवालिया निशान लगाना अपरिहार्य है?

इतने सब के बावजूद 16 दिसंबर जैसी कोई घटना हो ही जाती है और मीडिया उस पर टूट पड़ती है. दिल्ली की लड़कियों की बेचारगी पर स्पेशल प्रोग्राम बनते हैं जिसमें दिल्ली हमेशा विलेन होती है. घरवाले आतंकित होकर दिल्ली गयी लड़कियों को वापस बुलाने की जुगत में लग जाते हैं. सपनों को पूरा करने के लिए मिली मियाद, जो पहले ही छोटी थी, उसमें और भी कटौती हो जाती है. क्या दिल्ली को बदनाम और लड़कियों को आतंकित किये बिना इस समस्या से लड़ना मुमकिन नहीं है?
कहते हैं कि राजनीति संख्या का खेल है. महिलाएं आधी आबादी तो हैं लेकिन फिर भी किसी जाति या धर्म की तरह कोई वोट बैंक नहीं बनातीं. वो अलग-अलग धर्म, जातियों और क्लास के बीच बंटी हुई रहतीं हैं. इन वर्गों की समस्याओं को ही उनकी समस्या और उनके समाधान में ही महिलाओं की समस्या का समाधान निहित मान लेने की प्रवृत्ति रही है. पश्चिम में महिलाओं लम्बे समय तक मताधिकार ना देने के पीछे यही मानसिकता थी. हमारे अपने देश में भी आज़ादी के बाद मताधिकार देकर ये समझ लिया गया कि भुखमरी-ग़रीबी ही देश की मुख्य समस्याएँ हैं और इन वर्गों की महिलाओं की जो भी समस्याएँ हैं वो इनके निवारण के साथ ही ख़तम हो जायेंगीं. जो कि सत्तर के दशक में बड़ी मशक्कत से तैयार की गयी ‘टुवर्ड्स इक्वालिटी’ रिपोर्ट के हिसाब से  एक ग़लत अनुमान निकला. दहेज उत्पीड़न, भ्रूण हत्या से लेकर शैक्षिक और आर्थिक मुद्दों में औरतों की लगभग नगण्य भागीदारी जैसे तमाम मुद्दे सामने आने शुरू हुए.
ज़ाहिर है, महिलाओं की अपनी समस्याएँ तो हैं लेकिन इन मुद्दों को राजनीति में मिलने वाली की महत्ता का मौसमी उतार-चढ़ाव अक्सर महिलाओं पर होने वाली हिंसा की रिपोर्टों पर ही निर्भर रहा है. ऐसा लगता है जैसे जेंडर का मतलब सिर्फ़ औरतें हैं और लिंगभेद का मतलब सिर्फ महिलाओं के पर होने वाले शारीरिक अत्याचार ही हैं. हिंसा से इतर, लिंगभेद के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो कि महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी को ज़्यादा बाधित करते हैं. जैसे- महिला शौचालय और कामकाजी महिलाओं के बच्चों के लिये क्रचेज़ की व्यवस्था ना होना. ये मुद्दे अक्सर यौन अपराधों की आक्रामक खबरों और उन्हें मिलने वाले मीडिया कवरेज के पीछे छुप जाते हैं. ‘आप’ ने भी महिला मुद्दों का संज्ञान 16 दिसंबर की घटना के बाद ही लिया था. खैर, ‘देर आये दुरुस्त आये’ की तर्ज़ पर मुझे इस बात से कोई ऐतराज़ भी नहीं है. मेरी मंशा तो महिला सशक्तिकरण के मामले में आपका सैद्धांतिक स्टैंड जानने की है. क्या आपकी नीतियाँ भी ‘महिला-स्पेशल’ की बौछार करने और लैंगिक अपराध की दर नीचे लाने तक ही सीमित रहेंगी या लैंगिक समानता के बारे में आपकी पार्टी की कोई वृहद् विचारधारा भी है?
महिला बैंक से लेकर लेडीज़ बस और महिला पुलिस चौकी तक के वादे तो दूसरी पार्टियों ने भी किये हैं और कभी-कभी वो पूरे भी हुए हैं. दरअसल इस तरह से लड़कियों को उनका अपना स्पेस दे देना बहुत आसान है और ऐसा करने में वाहवाही मिलने की गुंजाइश भी ज़्यादा है. लेकिन उन्हें पब्लिक स्पेस में उसी तरह से फिट कर पाना जिस तरह पुरुष हैं या फिर पब्लिक स्पेस को महिलाओं के लिए उतना ही अनुकूल बना पाना जितना वो पुरुषों के लिए है, ज्यादा मुश्किल काम है. अक्सर आसान काम कर लेने का आत्मसंतोष हमसे पड़ाव को ही मंजिल समझ लेने की भूल करवा देता है. ऐसे में ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि किसी भी क्षेत्र में ‘महिला स्पेशल’ श्रेणी, अपने आप में कोई समाधान ना होकर लैंगिक समानता तक पहुँचने की एक रणनीति भर है और अंततः उस श्रेणी को ख़त्म करने की तरफ़ बढ़ना है. यहीं पर राजनैतिक दृढ़ता की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है. मैं जानती हूँ कि यहाँ आदर्शस्थिति की बात की जा रही है जिसे चुटकियों में नहीं पैदा किया जा सकता. वहां तक पहुँचने के लिए शायद इस लेडीज़-स्पेशल कैटेगरी का इस्तेमाल करना भी पड़े. लेकिन तब तक अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं मान लेनी है जब तक इन बैसाखियों की ज़रुरत ना रह जाय. चाहे वो बिजली कंपनियों की ऑडिट करने का निर्णय हो या फिर भ्रष्टाचार विरोधी हेल्प्लालाइन लाना हो, बाकी मामलों में भी आपने आसान और लोकप्रिय होने के बजाय कड़क और सिद्धांतवादी होने को तरजीह दी है, इसलिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर भी आपसे अपेक्षाएं थोड़ी ऊंची ही हैं.
लैंगिक उत्पीड़न हर लड़की की ज़िंदगी का हिस्सा ही न हो, लेकिन इससे बचाने के लिए उन पर लादे गए सामाजिक और न्यायिक बंधन उनकी दिनचर्या बन जाते हैं. दिल्ली को बदनाम करने का असर अपराधियों पर हो ना हो उन हज़ारों लड़कियों के भविष्य पर ज़रूर होता है जिनके दिल्ली आने पर प्रतिबन्ध लग जाता है क्यूंकि वो एक ‘बुरा’ शहर है. इसका मतलब उनका देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों और बहुत सी बेहतरीन करियर संभावनाओं से वंचित रह जाना है, जो कि अपना आप में एक ‘सायलेंट’ लिंगभेद है, जिससे बचना जितना ज़रूरी है उतना ही मुश्किल भी.
इतना कुछ मांगकर शायद मतदाता का नेता पर जितना हक़ होता है उसका भी अतिक्रमण कर रही हूँ.  लेकिन जब माँगने की दीनता करनी ही है तो आसान चीज़ें क्यूँ माँगी जाएँ?. महिलाओं के लिए अलग से बैंक क्यूँ मांगूं, हर एक बैंक उनका होना चाहिए. वो सिर्फ लेडीज़ कम्पार्टमेंट या लेडीज़ बस के बजाय हर जगह हर वक्त सुरक्षित क्यूँ न महसूस करें? अलग से महिला पुलिस फ़ोर्स के बजाय पूरी पुलिस फ़ोर्स को ही जेंडर सेंसिटिव बनाने की कोशिश क्यों ना की जाय? महिलाएं भी नागरिक हैं और समान नागरिक का दर्जा देना उन्हें विशेषाधिकार दिए बिना भी संभव है. क्या ‘आप’ ये (कम से कम कोशिश) कर सकेंगे?

Monday, December 16, 2013

बनावटी प्राकृतिक


जापान की मियोको मियाज़ाकी २००३ में जब मिस वर्ल्ड बनीं तो उनसे पूछा गया कि, “आपकी जिन्दगी की सबसे बड़ी व्यक्तिगत उपलब्धि क्या है?” और उन्होंने जवाब दिया कि, “अपनी लेफ्टहैंडेडनेस (बाएं हाथ इस्तेमाल करने की आदत) पर विजय पाना.” क्योंकि जिस संस्कृति से वो ताल्लुक रखतीं हैं वहां बाएं हाथ का इस्तेमाल अशुभ माना जाता है. माँ-बाप न सिर्फ बच्चों को ‘सीधा’ करने के लिए जोर ज़बरदस्ती करते हैं बल्कि लड़कियों की शादी के समय भी उनके बायाँहत्था होने की बात उनके भावी ससुराल वालों से छुपाई जाती है. कई एशियाई देशों और धर्मों में में बाएं हाथ का प्रयोग शुभ कार्यों के लिए निषिद्ध है.
धर्म को हमेशा दो ध्रुवों की दरकार रही है- एक शुभ होगा और दूसरा निषिद्ध. बुराई पर अच्छाई की विजय की कहानियों से सभी धर्म पटे पड़े हैं. एक के पवित्र होने के लिए दूसरे का अपवित्र होना ज़रूरी है. एक प्रक्रिया पर प्राकृतिक होने का ठप्पा लगने के लिए दूसरी को अप्राकृतिक होना होगा. किसी समय दास-प्रथा बाइबिल के हिसाब से सही मानी जाती थी. क्यूंकि अश्वेत लोग प्राकृतिक रूप से ही बुद्धिहीन और शारीरिक रूप से बलवान माने गए थे जिन्हें नियंत्रित रखने और आदेश देने के लिए ‘प्राकृतिक’ रूप से ज्यादा बुद्धिमान सफ़ेद चमड़ी वालों का उन पर राज करना न्यायोचित था. एक वक्त ऐसा भी था जब औरतों का प्रसव-पीड़ा सहना ज़रूरी था और उनकी मदद करने वाली दाइयों को मौत तक की सज़ा मिलने का प्रावधान था क्यूंकि ऐसी मदद ‘अप्राकृतिक’ और भगवान् की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ थी. हिटलर ने यहूदियों के दमन को ‘प्राकृतिक’ ठहराने के लिए डार्विन के सिद्धांत के बेतुके मतलब निकाल दिखाए थे. उसने दो नस्लों के मिलन को घातक बताया था. हमारे देश में ऐसे तर्क जातियों के सन्दर्भ में दिए जाते रहे हैं. ‘शुद्ध-अशुद्ध’ के ताम- झाम ने तमाम जातियों का मंदिर में प्रवेश करना तक वर्जित कर रखा था.
गौरतलब है कि प्राकृतिक-अप्राकृतिक की ये श्रेणियां और इनमें आने वाले समूह हमेशा एक जैसे नहीं रहे. ये देश-काल और सन्दर्भ के हिसाब से बदलते रहें हैं, निर्भर करता है कि गिनती या ताकत के हिसाब से किस समूह का पलड़ा भारी बैठता है. तभी तो मासिक धर्म जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के साथ भी ‘अपवित्र’ होने का तमगा लगा है क्यूंकि ये औरतों से जुड़ा है. किस हद तक इस पवित्र-अपवित्र का पालन होगा ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि उस समय किसी सभ्यता की जरूरतें क्या हैं? उदाहरण के तौर पर गर्भपात को ले लीजिये, अमेरिका में ये एक बड़ा मुद्दा है जहां राजनेताओं को ‘प्रोचॉईस’ या ‘प्रोलाईफ़’ के रूप में अपना सैद्धांतिक पक्ष स्पष्ट करना होता है. जबकि भारत में बढ़ती जनसंख्या की चिंता के चलते तमाम धार्मिक लफ्फाजियों के बावजूद औरतों को ये अधिकार बिना लड़े मिला हुआ है और कन्या भ्रूणहत्या में होने वाले इसके इस्तेमाल की तो बात ही मत कीजिये.
धर्म की दी परिभाषाएं कभी तोड़ी-मरोड़ी भी गयीं हैं और कभी पीछे भी छोड़ दी गयीं हैं लेकिन हमेशा बहुसंख्यकों की सुविधा के हिसाब से. ये लचीलापन इस बात का सबूत है कि ‘प्राकृतिक-अप्राकृतिक’ की पूरी अवधारणा ही मानव निर्मित है. बहुसंख्यक और ताकतवर समूह की परिभाषा ही मानदंड होगी चाहे वो दायें हाथ से लिखना हो या परलैंगिकता (heterosexuality). बाकी सबको या तो इनके जैसा बनना होगा या फिर इनके जैसे होने का नाटक करना होगा. चाहे दायेंहत्थे लोगों को ही ध्यान में रख कर कर बनाए गए उपकरण हों या परलैंगिकों के हिसाब से ही बने नियम-कानून हों, बाकी लोगों को ख़ुद को इनके लिए डिज़ाइन की गयी दुनिया  में ख़ुद को ढालना होगा.
अगर आप परलैंगिक हैं तो आपके लिए कल्पना करना भी मुश्किल है कि अपने जननांगों का अपनी मर्ज़ी से अपने ही घर के एकांत में इस्तेमाल करने का अधिकार भी किसी को लड़ कर लेना पड़ता है. आप इतने विशिष्ट हैं कि आपको ख़ुद अपने प्रिविलेज (विशेषाधिकार) का अंदाज़ा नहीं है. हाई कोर्ट के आर्डर के बाद जिन्होनें अपनी पहचान ज़ाहिर करने की हिम्मत की थी, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद उनका भविष्य एक बार फिर अधर में है. उनकी नींद कैसी होती होगी जो ये सोच कर सोते होंगे कि सुबह तक पता नहीं वो ‘लीगल’ रह जायेंगे या नहीं, क्या आप ये समझ सकतें हैं?

ऐसे में ये बहस बेमानी है कि फ़ैसला समलैंगिकों के ख़िलाफ़ है या समलैंगिक संबंधों के. अगर चोरी करना अपराध है तो चोर ही तो अपराधी ही हुआ. कर्ता और कर्म एक दूसरे के बिना परिभाषित नहीं हो सकते. इसलिए फैसला पूरे LGBT समुदाय के ख़िलाफ़ है. वैसे भी लैंगिकता कोई व्यवसाय या संपत्ति नहीं है. ये  किसी की पहचान का अहम् हिस्सा है जो उनको परिभाषित करता है. उसे अपराधिक गतिविधि घोषित करना उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है. दरअसल हमारे समाज में हर चीज़ फ़र्टिलिटी के चारों तरफ़ घूमती है. परलैंगिक जोड़ों की शादियों के महिमामंडन के पीछे वंशवृद्धि की कामना छिपी है. अब वो प्राकृतिक या किसी और व्यक्तिगत कारणों से बच्चे पैदा न करें ये अलग बात है. लेकिन बच्चों के जन्म से ही उन्हें भविष्य में अपनी इस ज़िम्मेदारी के लिए तैयार करने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं. जहां शादियाँ व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक दायित्व हैं वहां बिना संतानोत्पत्ति की संभावना वाले दैहिक सम्बन्ध अगर अप्राकृतिक घोषित कर दिए गए हों, तो हैरानी कैसी? शुद्ध-निषिद्ध के मामले में हर समाज का अपना इतिहास है जो धीरे-धीरे हमारी समझ में भी घुसपैठ करता जाता है. हम जब पैदा होते हैं तो ये मानदंड समाज में पहले ही इस्तेमाल हो रहे होते हैं. हमारे हर फैसले में हमसे ज्यादा हमारे समाजीकरण का हाथ होता है. ऐसे में समलैंगिकता का हमारे समाज में heterosexuality के समानांतर एक विकल्प ना होना ही ख़ुद समलैंगिकता के न होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता.

प्राकृतिक-अप्राकृतिक के तर्कों के अलावा, 377 के हिमायती बहस को विकास की तरफ ले जाने पर भी अमादा हैं कि जिस देश में लोगों की मूलभूत जरूरतें और महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य अभी तक पूरा ना हुआ हो वहां समलैंगिकों के अधिकारों पर कैसे ध्यान दिया जा सकता है? ये कोई नई बात नहीं है. किसानों और जनजातियों से जमीन अधिग्रहण करने के लिए भी देश के विकास की दुहाई दी जाती रही है. लेकिन यहाँ तो मसला पहचान की राजनीति का है, किसी प्राकृतिक संसाधन का नहीं. वैसे भी विकास के नाम पर लैंगिक अल्पसंख्यकों की बलि क्यों चढ़े?


लैंगिक पहचान के निर्धारण के अधिकार और समलैंगिकता की बहस को पश्चिमी संस्कृति से आयातित होने के तर्क के विरोध में खजुराहो से लेकर अर्धनारीश्वर तक के उदाहरण गिनाये जा सकते है. लेकिन ऐसा क्यूँ करें? संस्कृति सिर्फ़ वो नहीं है जो इमारतों और शास्त्रों में रुक गयी है. ये पारंपरिक कपड़ों-गहनों और पकवानों में भी नहीं है जिनकी याद कभी-कभी त्यौहारों पर आती है. कोई संस्कृति सिर्फ उन विशिष्टताओं- विचत्रताओं में नहीं बसती जिनकी फ़ोटो पोस्टकार्डों पर छाप कर विदेशी पर्यटकों को लुभाया जाता है. संस्कृति वो है जिसे हम हर रोज़ जीते हैं. लोग बदलते हैं इसलिए संस्कृति भी बदलती रहती है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के विरोध में लोगों का खुल कर के सामने आना इस बात का सबूत है. कभी लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग शिक्षा थी क्योंकि तकनीकी विषयों में लड़के प्राकृतिक रूप से ज्यादा समझदार माने जाते थे. आज ये बात सुनने में भी हास्यास्पद लगती है क्यूंकि हम बदल चुके हैं. समलैंगिक संबंधों को कानूनी जामा पहनाने का मुद्दा आज से पचास साल पहले महत्त्वपूर्ण रहा हो या ना रहा हो, लेकिन अब है. ये ज़ाहिर करना ज़रूरी है. अच्छा होगा कि हम राजनैतिक पार्टियों को भी इस विषय में अपना पक्ष स्पष्ट करना के लिए कहें ताकि जो रास्ता न्यायपालिका ने बंद कर दिया वो बाज़रिये विधायिका खुल सके. 


वाशिंगटन पोस्ट पर एक अच्छा मैप है. समलैंगिकता के बारे में हमारे रवैये की वजह से हम किन देशों के साथ जा खड़े हें हैं  एक बार ये देख लेना भी अच्छा होगा- http://www.washingtonpost.com/blogs/worldviews/wp/2013/12/11/a-map-of-the-countries-where-homosexuality-is-criminalized/

(हिंदी में sex और gender के लिए दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं, ऐसे लेख लिखते समय यही सबसे बड़ी बाधा होती है. मेरे शब्द चुनाव से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं, कोई नए शब्द भी सुझाए जा सकते हैं.)

(ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&task=view&id=58376&Itemid=)


Saturday, November 23, 2013

न्याय की भी 'प्रॉक्सी'?

हाल ही में समाज के अलग- अलग वर्गों से मिलती-जुलती खबरें आईं. तरुण तेजपाल ने एक रिपोर्टर से छेड़छाड़ की, दिल्ली में एक वरिष्ठ जज के एक लॉ इन्टर्न से छेड़छाड़ करने का मामला सामने आया और अफसरों, विधायकों और उनकी बीवियों ने अपनी घरेलू नौकरानी के साथ हैवानियत दिखाई. आख़िरी मामला भी सीधे तौर पर लगे ना लगे पर है लिंग आधारित हिंसा ही. घरेलू नौकर के रूप में महिलाओं को ही वरीयता मिलती है क्यूंकि हमारे हिसाब से एक पुरुष नौकर के मुक़ाबले वो ज्यादा दब्बू होंगी, कम तनख्वाह लेंगी और हमारा गुस्सा सहने की सीमा भी उनमें ज्यादा होगी. घर की चारदीवारियों में उनके साथ की गयी हिंसा को घर का अंदरूनी मामला बताकर कानूनी जांच को भी रोका जा सकता है. ये घर आखिर उन घरेलू नौकरों के कार्यस्थल ही हैं. फिर ये भी कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न का ही तो मामला हुआ! 
‘आजकल ये घटनाएं कितनी बढ़ गयीं हैं?’ आमतौर पर ऐसी खबरों के बाद हमारी प्रतिक्रया कुछ ऐसी ही होती है. सुनकर ऐसा लगता है कि पहले हम कुछ सही कर रहे थे और अब कुछ गड़बड़. पहले हम जो कर (नहीं) रहे थे उसकी लिस्ट कुछ यूं है-
-    माध्यम वर्ग और उच्च माध्यम वर्ग की स्त्रियों को उनके घर वाले नौकरियाँ नहीं करने दे रहे थे. (ध्यान रहे कि औरतों का काम करना कोई नया नहीं है, निम्न वर्ग की औरतें हमेशा से घरेलू नौकरों और दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करती आईं हैं, हालांकि उनके शोषण पर कभी ध्यान नहीं दिया गया.)
-    महिलाओं का नाईट शिफ्ट में काम करना कानूनन वैध नहीं कर रहे थे, भले ही वो तमाम फैक्ट्रियों, अस्पतालों और कॉल सेंटरों में काम कर रहीं थी. इससे वे आर्थिक या लैंगिक शोषण की शिकायत करने की सोच भी नहीं सकतीं थी.
-    सेक्सुअल हरासमेंट कमेटी के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं दे रहे थे. इसके बावजूद कि ‘सेक्सुअल हरासमेंट ऐट वर्क प्लेस’ का सबसे वीभत्स मुद्दा हमारे देश में ही हुआ है, (अरुणा शानबाग, जिन्हें हम इच्छा-मृत्यु के लिए ज्यादा जानते हैं) विशाखा गाइडलाइन्स आने में सालों लग गए.
बहरहाल कई क़ानून आये और स्थिति बदली. अगर सेक्चुअल हरासमेंट से मुक्त कार्यस्थल अब नहीं है तो पहले भी नहीं थे. हर तरह के रोजगार में महिलाओं की बढ़ती घुसपैठ, क़ानून की उपलब्धि और  लैंगिक उत्पीड़न की विस्तृत की गयी परिभाषा ने इन मुद्दों को ज्यादा गोचर बनाया है बस. हालांकि इसका लाभ सिर्फ एक ख़ास वर्ग ही उठा पा रहा है. इसकी वजह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की औरतों पर अपनी रोज़ी- रोटी बनाए रखने की मजबूरी होना भी है. ऐसे में ये हैरानी की बात नहीं कि विरोध की ज्यादातर आवाजें तुलनात्मक रूप से समृद्ध परिवारों की लड़कियों की तरफ से आ रही है.
हर एक कार्यस्थल पर रोजगार देने और पाने वाले के बीच असमानता का रिश्ता होता है. बॉस की बातें कितनी भी बेतुकी लगें उन्हें अक्सर मानना ही होता है. सहमति-असहमति का प्रश्न तो तब है जब असहमति जताना एक विकल्प हो न कि नौकरी छुड़वाने या प्रमोशन रुकवाने का सबब. ऐसे में तरुण तेजपाल का इसे ‘जजमेंट एरर’ या ‘शराब का नशा’ कहना कितना हास्यास्पद है! यह तो एकदम सटीक निर्णय है. अपराधकर्ता को पता है कि उसकी सत्ता कहाँ चलेगी.  नौकरी और बॉस की कृपादृष्टि बचाए रखने के लिए कौन चुप रहेगा? नहीं रहेगा तो क्या धमकियां देनी हैं? और फिर ‘मौनम् सम्मति लक्षणं’ की तर्ज पर इसे ‘कन्सेन्चुअल’ का जामा कैसे पहनाना है? समाज की सफ़ाई करने की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भी अपनी इस ताकत का इस्तेमाल लैंगिक उत्पीड़न के लिए कर रहें हैं तो इसमें हैरानी कैसी? जेंडर सेंसिटिविटी न तो हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा हैं और ना ही बौद्धिकता नापने की कसौटी. वैसे भी किसी बौद्धिक निर्वात में रहकर लैंगिक समानता की बातें करना एक बात है, व्यवहारिकता की बयार के बीच उन सिद्धांतों को संभाले रखना बिल्कुल अलग.
ये एक अच्छा संकेत है कि तरुण तेजपाल मामले में सभी एकमत होकर कानूनी जांच की मांग कर रहें हैं लेकिन इसमें शायद हमारा एक बड़े आदमी को मटियामेट होते देखने का सुकून भी शामिल है, तमाम चैनलों की चटखारे ले कर की जा रही रिपोर्टिंग इस कुंठा का सबूत है. तेजपाल ने अपनी पत्रकारिता से कई धुर विरोधी भी पैदा किये हैं, जो इस बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और विक्टिम की पहचान छुपाना और मुद्दे के साथ संवेदनशीलता बरतना हाशिये पर है. ऑनलाइन एक्टिविज़म की चिल्ला-चिल्ली के बीच पीड़िता का पक्ष गायब है.
हम हमेशा यही मानते और मनवाते आये हैं कि लैंगिक उत्पीड़न में जो आहत हुआ उसकी कोई ग़लती नहीं, चाहे उसने शराब पी हो या कैसे भी कपड़े पहने हों, उसका ना कहने का अधिकार उसके अतीत में कही गयी ‘हाँ’ के भार से मुक्त हो. अपना चरित्र की दृढ़ता साबित करने का भार उस पर क्यों आये? ठीक उसी तर्क से भीड़ की न्याय-लिप्सा शांत करने का भार उस पर क्यूं आये? क़ानून की धाराएं सबके लिए एक जैसी हो सकतीं हैं लेकिन न्याय की परिभाषा नहीं. न्याय मिलने और मुद्दे के समापन का संतोष किसी को माफी देकर भी मिल सकता है, किसी को आतंरिक शिकायत करके, किसी को दूसरों को जागरूक करके तो किसी को सिर्फ ब्लॉग लिखकर जैसा कि उस लॉ इन्टर्न ने किया. न्याय सबके लिए टेलर मेड नहीं हो सकता. इन्हीं सब कारणों से ‘आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट’ या आतंरिक ‘एंटी सेक्चुअल हरासमेंट कमेटी’ बनाने जैसे प्रावधान है. ये सच है कि सामाजिक दबावों के चलते भी पीड़ित को केस वापस लेने पर मजबूर किया जा सकता है. लेकिन आन्दोलनों का दबाव बना कर विक्टिम को पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने पर मजबूर करना और न करने पर कमज़ोर कह कर उसकी आलोचना करना उस सामाजिक दबाव का दूसरा रूप ही तो है. कानूनी प्रक्रियाएं लम्बी चलतीं है. किसी को न्याय पाने का संतोष अगर उससे पहले ही मिल जाय और फिर भी उसे ये कड़वा अनुभव वकीलों और पुलिसवालों के क्रॉस-एग्ज़ामिनेशन में बार-बार दोहराना पड़े तो क्या ये उसके साथ एक और अन्याय नहीं है? ये सच है कि ज्यादातर अपराध सिर्फ व्यक्ति नहीं स्टेट के विरुद्ध होते हैं. पीड़ित अगर फैसले लेने की दशा में ना हो तो उसकी और से किसी भी प्रत्यक्षदर्शी या जागरूक नागरिक को रिपोर्ट लिखाने का हक़ है जैसा कि घरेलू हिंसा के मामलों में अक्सर होता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि पीड़ित पर सामाजिक न्याय की परिभाषाएं थोपी जाएँ और उन पर समाज के सामने एक आदर्श या उदाहरण प्रस्तुत करने की नैतिक ज़िम्मेदार मढ़ दी जाय. स्टेट की ज़िम्मेवारी है के अपने नागरिकों को न्याय पाने के तमाम विकल्प और रास्ते उपलब्ध कराये. एक्टिविस्ट और स्टेट मिलकर ज्यादा से ज्यादा ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि शिकायतकर्ता के पास हर विकल्प खुला रहे. अब उसे कौन सा विकल्प अपनाना है ये अधिकार उसी के पास रहे तो अच्छा है. सामाजिक दबाव और जबरन समाज सुधार के दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है जो कि शिकायत करने वाले की इच्छा का सम्मान करने पर ही मुमकिन है.


Friday, November 8, 2013

एक ऋतुमती परुष के प्रसव की कहानी

ये कहानी अरुणाचलम् मुरुगनाथम् के जीतने से ज्यादा हमारे हारने की है. मुरुगनाथम् तमिलनाडु के कोयम्बतूर जिले के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं. उनकी जिन्दगी अपने गाँव के बाकी लोगों जैसी ही थी, नाम-मात्र की पढ़ाई, फैक्ट्री में नौकरी, कच्ची उम्र में घर वालों की पक्की की हुई शादी.
पत्नी को एक दिन हाथ पीछे बांधे, कुछ छुपा कर ले जाते देखकर पूछा, ‘क्या छुपा रही हो?’
तुमसे मतलब?’ पत्नी से रूखा सा उत्तर मिला.
लेकिन मुरुगनाथम् ने पत्नी के हाथ में मैला कुचैला कपड़ा देख ही लिया जिसे हम अपने घरों में झाड़ने-पोंछने के लिए भी इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे. वो वजह ताड़ गए और पत्नी से पूछा कि वो टी.वी. पर दिखाए जाने वाले सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल क्यूँ नहीं करतीपत्नी के कहा कि ऐसा किया तो घर के लिये दूध खरीदना बंद करना पड़ेगा. नयी-नयी पत्नी को इम्प्रेस करने के लिए सेनेटरी नैपकिन खरीदने के इरादे से अरुणाचलम् मुरुगनाथम् एक दूकान में घुसे. दुकानदार नैपकिन के पैकेट जब भी किसी को देता तो इधर-उधर देखकर जल्दी-जल्दी उन्हें अखबार में लपेटकर काली पन्नियों में छुपा देता, मानों कोई प्रतिबंधित ड्रग्स बेच रहा हो. उन्होंने नैपकिन का एक पैकेट हाथ में उठाया, वजन कोई दस ग्राम रहा होगा और दाम दो सौ से भी ऊपर. हैरान-परेशान मुरुगनाथम् ने एक नैपकिन खुद ही बनाने का फैसला किया. रूई खरीदी, उसके ऊपर कपड़ा लगा कर आढ़ी-टेढ़ी सिलाई मारी और बीवी को पकड़ा दिया. एक तो असंतुष्ट बीवी का खराब फीडबैक और उस पर इस बात की शर्म कि अपने घर-गाँव की औरतों के लिए पैड बनाने के लिए एक विदेशी कंपनी की जरूरत है. बस तब से कम दाम के नैपकिन बनाने की खब्त सवार हो गयी. नयी-नयी तरकीबों से पैड बनाते और पत्नी को पकड़ा देते. पत्नी महीने में एक ही बार फीडबैक दे सकती थी, इसलिए बहनें उनका अगला निशाना बनी. लेकिन कोई इस बारे में बात तक करने को राज़ी नहीं था. हारकर उन्होंने शहर के मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से संपर्क साधने की कोशिश की. उनमें भी वही झिझक. शर्म-धरम की संस्कृति से ऐसे बेशरम प्रयोगों के लिए वॉलंटीयर कहाँ से आते? ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की हार है जो सामाजिक रूढ़ियों के आगे अक्सर दम तोड़ देती है.
वैसे भी जो बरसों से पीरियड्स के नाम पर सकुचा जाना ही सीखती आयीं हैं, जिनकी दादी-नानी-माँ ने मिलकर उन्हें मासिक धर्म में सिर्फ खुद को अपवित्र समझने का पाठ पढ़ाया है, उनमें ऐसी बेझिझक निर्भीकता कहाँ से आयेगी कि वो किसी पुरुष के सामने इस बारे में बात कर सकें. कुछ लड़कियों के फीडबैक के सहारे प्रयोग थोड़ा आगे बढ़ा लेकिन मुरुगनाथम् समझ गए थे कि लड़कियों के भरोसे नहीं रहा जा सकता. बस, फिर जैसे नील आर्मस्ट्रांग चन्द्रमा पर जाने वाले पहले पुरुष बने थे, तेनजिंग नोर्गे एवरेस्ट पे चढ़ाई करने वाले पहले पुरुष बने थे वैसे ही मुरुगनाथम् सेनेटरी पैड पहनने वाले पहले पुरुष बन गए. जानवरों के खून से भरा एक लचीला ब्लैडर उनके हाथ में होता जो एक नली के सहारे सेनेटरी पैड से जुड़ा होता. मुरुगनाथम् चलते-फिरते, साइकिल चलाते थोड़ा-थोड़ा खून पम्प करते जाते. उनके अनुसार ये उनके सबसे मुश्किल दिन थे. औरतों की समस्याएँ जानने के लिए उन्होंने खुद औरतों की दिनचर्या और दिमाग में उतरने फ़ैसला किया. यहाँ वो हमारी पौरुष की परिभाषा को हराते हैं और मासिक धर्म से जुड़े अशुद्धि और कमज़ोरी जैसे पूर्वाग्रहों को भी. और ऐसा करके अच्छा ही करते हैं.
लेकिन अब तक उनकी पत्नी शांती का धैर्य जवाब दे चुका था. उन्हें शक होने लगा कि मुरुगनाथम् लड़कियों से बात करने के बहाने ढूंढते रहते हैं. वो उन्हें छोड़कर चली गयीं. कुछ महीनों में तलाक का नोटिस भी आ गया. लेकिन वो सपना ही क्या जो आपको चैन से सोने दे. जुनूनी मुरुगनाथम् ने लड़कियों से उनके इस्तेमाल किये हुए पैड माँगने शुरू कर दिए. वो उनका कभी खुद परीक्षण करते कभी किसी टेस्टिंग लैब में भेजते. उनकी माँ ने पहले उन पर से भूत-प्रेत उतरवाने के जतन किये और आखिरकार अपनी क़िस्मत ठोंक कर घर छोड़ दिया. गाँव वालों को लगता कि मुरुगनाथम् को कोई गुप्त रोग हो गया है. दोस्त उन्हें देखकर रास्ता बदलने लगे. आखिरकार उन्होंने पता लगा ही लिया कि सेनेटरी पैड बनते तो लकड़ी की लुगदी से ही हैं लेकिन उन्हें बनाने की भारी- भरकम मशीन बहुत महंगी है. मुरुगनाथम् उस मशीन एक छोटी और सस्ती नक़ल बनाने की कोशिश करने लगे.
आज जब मुरुगनाथम् आई.आई.टी और आई.आई.एम. में लेक्चर देते हैं तो कहते हैं, “मैं आपलोगों की तरह पढ़ा-लिखा नहीं था, इसलिए तमाम असफलताओं के बाद भी रुका नहीं. पढ़ा- लिखा होता तो कब का रुक जाता.उनका ये कथन सबसे करारी चोट करता है. पढ़- लिख कर हम सबने एक जैसी डिग्रियां पायीं और अपनी मौलिकता खो दी. स्थाई नौकरी पाने की जद्दोजहद, कुछ नया कर दिखाने के जूनून पर हावी हो गयी. ये हमारे अभिजात्य की हार है जिसकी ठसक में हमने मुरुगनाथम् जैसों को हमेशा हेय समझा है.  

अंततः वो मशीन बन गयी. कम लागत में बढ़िया गुणवत्ता के सेनेटरी नैपकिन बनाने का तरीका मिल गया. उस देश में जहां सेनेटरी नैपकिन की पहुँच शहरी इलाकों में सात प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में सिर्फ दो प्रतिशत है, वहां ये तकनीक मुरुगनाथम् के लिए सोने की चिड़िया साबित हो सकती थी. लेकिन उन्होंने न सिर्फ इसे पेटेंट कराने से मना कर दिया बल्कि ये मशीनें ग्रामीण महिलाओं को मुफ्त में इस्तेमाल करने को दे दी. उनका लक्ष्य इसके ज़रिये ग्रामीण महिलाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा रोज़गार और स्वास्थ्यकर ज़िन्दगी मुहैया कराना है. यहाँ वो हमारे अर्थशास्त्र को हराते हैं जो सिर्फ मांग-आपूर्ति और अधिकतम लाभ का रट्टा लगाता है. बस यही एक हार हमें नहीं कचोटती.
आज सैकड़ों गाँव और कई देशों में मुरुगनाथम् की तकनीक और उनके नाम की धाक पहुँच चुकी है. उनके जीवन पर मेंसट्रूअल मैननामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है. आई.आई.टी से सर्वश्रेष्ठ आविष्कारसमेत कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं. लेकिन मुरुगनाथम् को अभी भी चैन नहीं मिला है. वे वर्ष २०३० तक इस तकनीक को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचाना चाहते है. तभी उनकी रजोनिवृतिहो पायेगी. इसे उन्होंने भारत की सेनेटरी पैड क्रान्तिका नाम दिया है. भारत की कुछ जनजातियों में तरुण कन्या के पहले मासिक-स्राव पर पर्व मनाया जाता है. क्योंकि अब वो प्रजनन करने लायक हो गयी है और वंशवृद्धि कर सकती है. इसी तरह मुरुगनाथम् के मासिक धर्म के फलदायी होने का एक उत्सव हम सबको मनाना चाहिए. इसी बहाने कम से कम एक प्रतिबंधित विषय पर बात तो हो सकेगी.

और चूंकि हम सबको सुखान्त पसंद है, इसलिए बता दूं कि अरुणाचलम् मुरुगनाथम् की पत्नी और माँ उनके पास वापस आ चुकी हैं!