धर्म को हमेशा दो ध्रुवों की दरकार रही है- एक
शुभ होगा और दूसरा निषिद्ध. बुराई पर अच्छाई की विजय की कहानियों से सभी धर्म पटे पड़े
हैं. एक के पवित्र होने के लिए दूसरे का अपवित्र होना ज़रूरी है. एक प्रक्रिया पर
प्राकृतिक होने का ठप्पा लगने के लिए दूसरी को अप्राकृतिक होना होगा. किसी समय दास-प्रथा
बाइबिल के हिसाब से सही मानी जाती थी. क्यूंकि अश्वेत लोग प्राकृतिक रूप से ही
बुद्धिहीन और शारीरिक रूप से बलवान माने गए थे जिन्हें नियंत्रित रखने और आदेश
देने के लिए ‘प्राकृतिक’ रूप से ज्यादा बुद्धिमान सफ़ेद चमड़ी वालों का उन पर राज
करना न्यायोचित था. एक वक्त ऐसा भी था जब औरतों का प्रसव-पीड़ा सहना ज़रूरी था और
उनकी मदद करने वाली दाइयों को मौत तक की सज़ा मिलने का प्रावधान था क्यूंकि ऐसी मदद
‘अप्राकृतिक’ और भगवान् की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ थी. हिटलर ने यहूदियों के दमन को
‘प्राकृतिक’ ठहराने के लिए डार्विन के सिद्धांत के बेतुके मतलब निकाल दिखाए थे. उसने
दो नस्लों के मिलन को घातक बताया था. हमारे देश में ऐसे तर्क जातियों के सन्दर्भ
में दिए जाते रहे हैं. ‘शुद्ध-अशुद्ध’ के ताम- झाम ने तमाम जातियों का मंदिर में
प्रवेश करना तक वर्जित कर रखा था.
गौरतलब है कि प्राकृतिक-अप्राकृतिक की ये
श्रेणियां और इनमें आने वाले समूह हमेशा एक जैसे नहीं रहे. ये देश-काल और सन्दर्भ
के हिसाब से बदलते रहें हैं, निर्भर करता है कि गिनती या ताकत के हिसाब से किस
समूह का पलड़ा भारी बैठता है. तभी तो मासिक धर्म जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के साथ
भी ‘अपवित्र’ होने का तमगा लगा है क्यूंकि ये औरतों से जुड़ा है. किस हद तक इस
पवित्र-अपवित्र का पालन होगा ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि उस समय किसी सभ्यता
की जरूरतें क्या हैं? उदाहरण के तौर पर गर्भपात को ले लीजिये, अमेरिका में ये एक
बड़ा मुद्दा है जहां राजनेताओं को ‘प्रोचॉईस’ या ‘प्रोलाईफ़’ के रूप में अपना सैद्धांतिक
पक्ष स्पष्ट करना होता है. जबकि भारत में बढ़ती जनसंख्या की चिंता के चलते तमाम
धार्मिक लफ्फाजियों के बावजूद औरतों को ये अधिकार बिना लड़े मिला हुआ है और कन्या
भ्रूणहत्या में होने वाले इसके इस्तेमाल की तो बात ही मत कीजिये.
धर्म की दी परिभाषाएं कभी तोड़ी-मरोड़ी भी गयीं हैं
और कभी पीछे भी छोड़ दी गयीं हैं लेकिन हमेशा बहुसंख्यकों की सुविधा के हिसाब से. ये
लचीलापन इस बात का सबूत है कि ‘प्राकृतिक-अप्राकृतिक’ की पूरी अवधारणा ही मानव
निर्मित है. बहुसंख्यक और ताकतवर समूह की परिभाषा ही मानदंड होगी चाहे वो दायें
हाथ से लिखना हो या परलैंगिकता (heterosexuality). बाकी सबको या तो इनके जैसा बनना
होगा या फिर इनके जैसे होने का नाटक करना होगा. चाहे दायेंहत्थे लोगों को ही ध्यान
में रख कर कर बनाए गए उपकरण हों या परलैंगिकों के हिसाब से ही बने नियम-कानून हों,
बाकी लोगों को ख़ुद को इनके लिए डिज़ाइन की गयी दुनिया में ख़ुद को ढालना होगा.
अगर आप परलैंगिक हैं तो आपके लिए कल्पना करना भी
मुश्किल है कि अपने जननांगों का अपनी मर्ज़ी से अपने ही घर के एकांत में इस्तेमाल
करने का अधिकार भी किसी को लड़ कर लेना पड़ता है. आप इतने विशिष्ट हैं कि आपको ख़ुद
अपने प्रिविलेज (विशेषाधिकार) का अंदाज़ा नहीं है. हाई कोर्ट के आर्डर के बाद
जिन्होनें अपनी पहचान ज़ाहिर करने की हिम्मत की थी, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद
उनका भविष्य एक बार फिर अधर में है. उनकी नींद कैसी होती होगी जो ये सोच कर सोते
होंगे कि सुबह तक पता नहीं वो ‘लीगल’ रह जायेंगे या नहीं, क्या आप ये समझ सकतें
हैं?
ऐसे में ये बहस बेमानी है कि फ़ैसला समलैंगिकों के
ख़िलाफ़ है या समलैंगिक संबंधों के. अगर चोरी करना अपराध है तो चोर ही तो अपराधी ही
हुआ. कर्ता और कर्म एक दूसरे के बिना परिभाषित नहीं हो सकते. इसलिए फैसला पूरे
LGBT समुदाय के ख़िलाफ़ है. वैसे भी लैंगिकता कोई व्यवसाय या संपत्ति नहीं है. ये किसी की पहचान का अहम् हिस्सा है जो उनको
परिभाषित करता है. उसे अपराधिक गतिविधि घोषित करना उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन
है. दरअसल हमारे समाज में हर चीज़ फ़र्टिलिटी के चारों तरफ़ घूमती है. परलैंगिक जोड़ों
की शादियों के महिमामंडन के पीछे वंशवृद्धि की कामना छिपी है. अब वो प्राकृतिक या
किसी और व्यक्तिगत कारणों से बच्चे पैदा न करें ये अलग बात है. लेकिन बच्चों के
जन्म से ही उन्हें भविष्य में अपनी इस ज़िम्मेदारी के लिए तैयार करने की कोशिशें
शुरू हो जाती हैं. जहां शादियाँ व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक दायित्व हैं वहां बिना
संतानोत्पत्ति की संभावना वाले दैहिक सम्बन्ध अगर अप्राकृतिक घोषित कर दिए गए हों,
तो हैरानी कैसी? शुद्ध-निषिद्ध के मामले में हर समाज का अपना इतिहास है जो धीरे-धीरे
हमारी समझ में भी घुसपैठ करता जाता है. हम जब पैदा होते हैं तो ये मानदंड समाज में
पहले ही इस्तेमाल हो रहे होते हैं. हमारे हर फैसले में हमसे ज्यादा हमारे समाजीकरण
का हाथ होता है. ऐसे में समलैंगिकता का हमारे समाज में heterosexuality के
समानांतर एक विकल्प ना होना ही ख़ुद समलैंगिकता के न होने का प्रमाण नहीं माना जा
सकता.
प्राकृतिक-अप्राकृतिक के तर्कों के अलावा, 377 के
हिमायती बहस को विकास की तरफ ले जाने पर भी अमादा हैं कि जिस देश में लोगों की
मूलभूत जरूरतें और महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य अभी तक पूरा ना हुआ हो वहां
समलैंगिकों के अधिकारों पर कैसे ध्यान दिया जा सकता है? ये कोई नई बात नहीं है.
किसानों और जनजातियों से जमीन अधिग्रहण करने के लिए भी देश के विकास की दुहाई दी
जाती रही है. लेकिन यहाँ तो मसला पहचान की राजनीति का है, किसी प्राकृतिक संसाधन
का नहीं. वैसे भी विकास के नाम पर लैंगिक अल्पसंख्यकों की बलि क्यों चढ़े?
लैंगिक पहचान के निर्धारण के अधिकार और
समलैंगिकता की बहस को पश्चिमी संस्कृति से आयातित होने के तर्क के विरोध में
खजुराहो से लेकर अर्धनारीश्वर तक के उदाहरण गिनाये जा सकते है. लेकिन ऐसा क्यूँ
करें? संस्कृति सिर्फ़ वो नहीं है जो इमारतों और शास्त्रों में रुक गयी है. ये
पारंपरिक कपड़ों-गहनों और पकवानों में भी नहीं है जिनकी याद कभी-कभी त्यौहारों पर आती
है. कोई संस्कृति सिर्फ उन विशिष्टताओं- विचत्रताओं में नहीं बसती जिनकी फ़ोटो
पोस्टकार्डों पर छाप कर विदेशी पर्यटकों को लुभाया जाता है. संस्कृति वो है जिसे हम
हर रोज़ जीते हैं. लोग बदलते हैं इसलिए संस्कृति भी बदलती रहती है. सुप्रीम कोर्ट
के फ़ैसले के विरोध में लोगों का खुल कर के सामने आना इस बात का सबूत है. कभी लड़के-लड़कियों
के लिए अलग-अलग शिक्षा थी क्योंकि तकनीकी विषयों में लड़के प्राकृतिक रूप से ज्यादा
समझदार माने जाते थे. आज ये बात सुनने में भी हास्यास्पद लगती है क्यूंकि हम बदल
चुके हैं. समलैंगिक संबंधों को कानूनी जामा पहनाने का मुद्दा आज से पचास साल पहले
महत्त्वपूर्ण रहा हो या ना रहा हो, लेकिन अब है. ये ज़ाहिर करना ज़रूरी है. अच्छा
होगा कि हम राजनैतिक पार्टियों को भी इस विषय में अपना पक्ष स्पष्ट करना के लिए कहें
ताकि जो रास्ता न्यायपालिका ने बंद कर दिया वो बाज़रिये विधायिका खुल सके.
वाशिंगटन पोस्ट पर एक अच्छा मैप है. समलैंगिकता के बारे में हमारे रवैये की वजह से हम किन देशों के साथ जा खड़े हें हैं एक बार ये देख लेना भी अच्छा होगा- http://www.washingtonpost.com/blogs/worldviews/wp/2013/12/11/a-map-of-the-countries-where-homosexuality-is-criminalized/
(हिंदी में sex और gender के लिए दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं, ऐसे लेख लिखते समय यही सबसे बड़ी बाधा होती है. मेरे शब्द चुनाव से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं, कोई नए शब्द भी सुझाए जा सकते हैं.)
(ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&task=view&id=58376&Itemid=)
वाशिंगटन पोस्ट पर एक अच्छा मैप है. समलैंगिकता के बारे में हमारे रवैये की वजह से हम किन देशों के साथ जा खड़े हें हैं एक बार ये देख लेना भी अच्छा होगा- http://www.washingtonpost.com/blogs/worldviews/wp/2013/12/11/a-map-of-the-countries-where-homosexuality-is-criminalized/
(हिंदी में sex और gender के लिए दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं, ऐसे लेख लिखते समय यही सबसे बड़ी बाधा होती है. मेरे शब्द चुनाव से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं, कोई नए शब्द भी सुझाए जा सकते हैं.)
(ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित है- http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&task=view&id=58376&Itemid=)
Wow Really good article....loved every bit of it..
ReplyDeleteThank you very much Pushpa!
Deleteरिश्ता कोई भी हो आपसी सहमती से बने तो ज्यादा अच्छा है ! माता पिता बनना एक जिमेदारी का एहसास कराता है इसलिए मैं इस रिश्ते को सही मानता हूँ.
ReplyDeleteआपकी बात सही है. वैसे मैंने माता- पिता वाले रिश्ते से कोई आपत्ति ज़ाहिर की भी नहीं है.
Delete...concrete ideas are always easier to understand and stick more clearly in a reader's mind... impactful & superiorly communicated article .
ReplyDeleteThank you abhinav!
Deleteविचारोत्तेजक !
ReplyDeleteधन्यवाद!
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