Saturday, November 23, 2013

न्याय की भी 'प्रॉक्सी'?

हाल ही में समाज के अलग- अलग वर्गों से मिलती-जुलती खबरें आईं. तरुण तेजपाल ने एक रिपोर्टर से छेड़छाड़ की, दिल्ली में एक वरिष्ठ जज के एक लॉ इन्टर्न से छेड़छाड़ करने का मामला सामने आया और अफसरों, विधायकों और उनकी बीवियों ने अपनी घरेलू नौकरानी के साथ हैवानियत दिखाई. आख़िरी मामला भी सीधे तौर पर लगे ना लगे पर है लिंग आधारित हिंसा ही. घरेलू नौकर के रूप में महिलाओं को ही वरीयता मिलती है क्यूंकि हमारे हिसाब से एक पुरुष नौकर के मुक़ाबले वो ज्यादा दब्बू होंगी, कम तनख्वाह लेंगी और हमारा गुस्सा सहने की सीमा भी उनमें ज्यादा होगी. घर की चारदीवारियों में उनके साथ की गयी हिंसा को घर का अंदरूनी मामला बताकर कानूनी जांच को भी रोका जा सकता है. ये घर आखिर उन घरेलू नौकरों के कार्यस्थल ही हैं. फिर ये भी कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न का ही तो मामला हुआ! 
‘आजकल ये घटनाएं कितनी बढ़ गयीं हैं?’ आमतौर पर ऐसी खबरों के बाद हमारी प्रतिक्रया कुछ ऐसी ही होती है. सुनकर ऐसा लगता है कि पहले हम कुछ सही कर रहे थे और अब कुछ गड़बड़. पहले हम जो कर (नहीं) रहे थे उसकी लिस्ट कुछ यूं है-
-    माध्यम वर्ग और उच्च माध्यम वर्ग की स्त्रियों को उनके घर वाले नौकरियाँ नहीं करने दे रहे थे. (ध्यान रहे कि औरतों का काम करना कोई नया नहीं है, निम्न वर्ग की औरतें हमेशा से घरेलू नौकरों और दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करती आईं हैं, हालांकि उनके शोषण पर कभी ध्यान नहीं दिया गया.)
-    महिलाओं का नाईट शिफ्ट में काम करना कानूनन वैध नहीं कर रहे थे, भले ही वो तमाम फैक्ट्रियों, अस्पतालों और कॉल सेंटरों में काम कर रहीं थी. इससे वे आर्थिक या लैंगिक शोषण की शिकायत करने की सोच भी नहीं सकतीं थी.
-    सेक्सुअल हरासमेंट कमेटी के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं दे रहे थे. इसके बावजूद कि ‘सेक्सुअल हरासमेंट ऐट वर्क प्लेस’ का सबसे वीभत्स मुद्दा हमारे देश में ही हुआ है, (अरुणा शानबाग, जिन्हें हम इच्छा-मृत्यु के लिए ज्यादा जानते हैं) विशाखा गाइडलाइन्स आने में सालों लग गए.
बहरहाल कई क़ानून आये और स्थिति बदली. अगर सेक्चुअल हरासमेंट से मुक्त कार्यस्थल अब नहीं है तो पहले भी नहीं थे. हर तरह के रोजगार में महिलाओं की बढ़ती घुसपैठ, क़ानून की उपलब्धि और  लैंगिक उत्पीड़न की विस्तृत की गयी परिभाषा ने इन मुद्दों को ज्यादा गोचर बनाया है बस. हालांकि इसका लाभ सिर्फ एक ख़ास वर्ग ही उठा पा रहा है. इसकी वजह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की औरतों पर अपनी रोज़ी- रोटी बनाए रखने की मजबूरी होना भी है. ऐसे में ये हैरानी की बात नहीं कि विरोध की ज्यादातर आवाजें तुलनात्मक रूप से समृद्ध परिवारों की लड़कियों की तरफ से आ रही है.
हर एक कार्यस्थल पर रोजगार देने और पाने वाले के बीच असमानता का रिश्ता होता है. बॉस की बातें कितनी भी बेतुकी लगें उन्हें अक्सर मानना ही होता है. सहमति-असहमति का प्रश्न तो तब है जब असहमति जताना एक विकल्प हो न कि नौकरी छुड़वाने या प्रमोशन रुकवाने का सबब. ऐसे में तरुण तेजपाल का इसे ‘जजमेंट एरर’ या ‘शराब का नशा’ कहना कितना हास्यास्पद है! यह तो एकदम सटीक निर्णय है. अपराधकर्ता को पता है कि उसकी सत्ता कहाँ चलेगी.  नौकरी और बॉस की कृपादृष्टि बचाए रखने के लिए कौन चुप रहेगा? नहीं रहेगा तो क्या धमकियां देनी हैं? और फिर ‘मौनम् सम्मति लक्षणं’ की तर्ज पर इसे ‘कन्सेन्चुअल’ का जामा कैसे पहनाना है? समाज की सफ़ाई करने की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भी अपनी इस ताकत का इस्तेमाल लैंगिक उत्पीड़न के लिए कर रहें हैं तो इसमें हैरानी कैसी? जेंडर सेंसिटिविटी न तो हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा हैं और ना ही बौद्धिकता नापने की कसौटी. वैसे भी किसी बौद्धिक निर्वात में रहकर लैंगिक समानता की बातें करना एक बात है, व्यवहारिकता की बयार के बीच उन सिद्धांतों को संभाले रखना बिल्कुल अलग.
ये एक अच्छा संकेत है कि तरुण तेजपाल मामले में सभी एकमत होकर कानूनी जांच की मांग कर रहें हैं लेकिन इसमें शायद हमारा एक बड़े आदमी को मटियामेट होते देखने का सुकून भी शामिल है, तमाम चैनलों की चटखारे ले कर की जा रही रिपोर्टिंग इस कुंठा का सबूत है. तेजपाल ने अपनी पत्रकारिता से कई धुर विरोधी भी पैदा किये हैं, जो इस बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और विक्टिम की पहचान छुपाना और मुद्दे के साथ संवेदनशीलता बरतना हाशिये पर है. ऑनलाइन एक्टिविज़म की चिल्ला-चिल्ली के बीच पीड़िता का पक्ष गायब है.
हम हमेशा यही मानते और मनवाते आये हैं कि लैंगिक उत्पीड़न में जो आहत हुआ उसकी कोई ग़लती नहीं, चाहे उसने शराब पी हो या कैसे भी कपड़े पहने हों, उसका ना कहने का अधिकार उसके अतीत में कही गयी ‘हाँ’ के भार से मुक्त हो. अपना चरित्र की दृढ़ता साबित करने का भार उस पर क्यों आये? ठीक उसी तर्क से भीड़ की न्याय-लिप्सा शांत करने का भार उस पर क्यूं आये? क़ानून की धाराएं सबके लिए एक जैसी हो सकतीं हैं लेकिन न्याय की परिभाषा नहीं. न्याय मिलने और मुद्दे के समापन का संतोष किसी को माफी देकर भी मिल सकता है, किसी को आतंरिक शिकायत करके, किसी को दूसरों को जागरूक करके तो किसी को सिर्फ ब्लॉग लिखकर जैसा कि उस लॉ इन्टर्न ने किया. न्याय सबके लिए टेलर मेड नहीं हो सकता. इन्हीं सब कारणों से ‘आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट’ या आतंरिक ‘एंटी सेक्चुअल हरासमेंट कमेटी’ बनाने जैसे प्रावधान है. ये सच है कि सामाजिक दबावों के चलते भी पीड़ित को केस वापस लेने पर मजबूर किया जा सकता है. लेकिन आन्दोलनों का दबाव बना कर विक्टिम को पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने पर मजबूर करना और न करने पर कमज़ोर कह कर उसकी आलोचना करना उस सामाजिक दबाव का दूसरा रूप ही तो है. कानूनी प्रक्रियाएं लम्बी चलतीं है. किसी को न्याय पाने का संतोष अगर उससे पहले ही मिल जाय और फिर भी उसे ये कड़वा अनुभव वकीलों और पुलिसवालों के क्रॉस-एग्ज़ामिनेशन में बार-बार दोहराना पड़े तो क्या ये उसके साथ एक और अन्याय नहीं है? ये सच है कि ज्यादातर अपराध सिर्फ व्यक्ति नहीं स्टेट के विरुद्ध होते हैं. पीड़ित अगर फैसले लेने की दशा में ना हो तो उसकी और से किसी भी प्रत्यक्षदर्शी या जागरूक नागरिक को रिपोर्ट लिखाने का हक़ है जैसा कि घरेलू हिंसा के मामलों में अक्सर होता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि पीड़ित पर सामाजिक न्याय की परिभाषाएं थोपी जाएँ और उन पर समाज के सामने एक आदर्श या उदाहरण प्रस्तुत करने की नैतिक ज़िम्मेदार मढ़ दी जाय. स्टेट की ज़िम्मेवारी है के अपने नागरिकों को न्याय पाने के तमाम विकल्प और रास्ते उपलब्ध कराये. एक्टिविस्ट और स्टेट मिलकर ज्यादा से ज्यादा ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि शिकायतकर्ता के पास हर विकल्प खुला रहे. अब उसे कौन सा विकल्प अपनाना है ये अधिकार उसी के पास रहे तो अच्छा है. सामाजिक दबाव और जबरन समाज सुधार के दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है जो कि शिकायत करने वाले की इच्छा का सम्मान करने पर ही मुमकिन है.


Friday, November 8, 2013

एक ऋतुमती परुष के प्रसव की कहानी

ये कहानी अरुणाचलम् मुरुगनाथम् के जीतने से ज्यादा हमारे हारने की है. मुरुगनाथम् तमिलनाडु के कोयम्बतूर जिले के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं. उनकी जिन्दगी अपने गाँव के बाकी लोगों जैसी ही थी, नाम-मात्र की पढ़ाई, फैक्ट्री में नौकरी, कच्ची उम्र में घर वालों की पक्की की हुई शादी.
पत्नी को एक दिन हाथ पीछे बांधे, कुछ छुपा कर ले जाते देखकर पूछा, ‘क्या छुपा रही हो?’
तुमसे मतलब?’ पत्नी से रूखा सा उत्तर मिला.
लेकिन मुरुगनाथम् ने पत्नी के हाथ में मैला कुचैला कपड़ा देख ही लिया जिसे हम अपने घरों में झाड़ने-पोंछने के लिए भी इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे. वो वजह ताड़ गए और पत्नी से पूछा कि वो टी.वी. पर दिखाए जाने वाले सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल क्यूँ नहीं करतीपत्नी के कहा कि ऐसा किया तो घर के लिये दूध खरीदना बंद करना पड़ेगा. नयी-नयी पत्नी को इम्प्रेस करने के लिए सेनेटरी नैपकिन खरीदने के इरादे से अरुणाचलम् मुरुगनाथम् एक दूकान में घुसे. दुकानदार नैपकिन के पैकेट जब भी किसी को देता तो इधर-उधर देखकर जल्दी-जल्दी उन्हें अखबार में लपेटकर काली पन्नियों में छुपा देता, मानों कोई प्रतिबंधित ड्रग्स बेच रहा हो. उन्होंने नैपकिन का एक पैकेट हाथ में उठाया, वजन कोई दस ग्राम रहा होगा और दाम दो सौ से भी ऊपर. हैरान-परेशान मुरुगनाथम् ने एक नैपकिन खुद ही बनाने का फैसला किया. रूई खरीदी, उसके ऊपर कपड़ा लगा कर आढ़ी-टेढ़ी सिलाई मारी और बीवी को पकड़ा दिया. एक तो असंतुष्ट बीवी का खराब फीडबैक और उस पर इस बात की शर्म कि अपने घर-गाँव की औरतों के लिए पैड बनाने के लिए एक विदेशी कंपनी की जरूरत है. बस तब से कम दाम के नैपकिन बनाने की खब्त सवार हो गयी. नयी-नयी तरकीबों से पैड बनाते और पत्नी को पकड़ा देते. पत्नी महीने में एक ही बार फीडबैक दे सकती थी, इसलिए बहनें उनका अगला निशाना बनी. लेकिन कोई इस बारे में बात तक करने को राज़ी नहीं था. हारकर उन्होंने शहर के मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से संपर्क साधने की कोशिश की. उनमें भी वही झिझक. शर्म-धरम की संस्कृति से ऐसे बेशरम प्रयोगों के लिए वॉलंटीयर कहाँ से आते? ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की हार है जो सामाजिक रूढ़ियों के आगे अक्सर दम तोड़ देती है.
वैसे भी जो बरसों से पीरियड्स के नाम पर सकुचा जाना ही सीखती आयीं हैं, जिनकी दादी-नानी-माँ ने मिलकर उन्हें मासिक धर्म में सिर्फ खुद को अपवित्र समझने का पाठ पढ़ाया है, उनमें ऐसी बेझिझक निर्भीकता कहाँ से आयेगी कि वो किसी पुरुष के सामने इस बारे में बात कर सकें. कुछ लड़कियों के फीडबैक के सहारे प्रयोग थोड़ा आगे बढ़ा लेकिन मुरुगनाथम् समझ गए थे कि लड़कियों के भरोसे नहीं रहा जा सकता. बस, फिर जैसे नील आर्मस्ट्रांग चन्द्रमा पर जाने वाले पहले पुरुष बने थे, तेनजिंग नोर्गे एवरेस्ट पे चढ़ाई करने वाले पहले पुरुष बने थे वैसे ही मुरुगनाथम् सेनेटरी पैड पहनने वाले पहले पुरुष बन गए. जानवरों के खून से भरा एक लचीला ब्लैडर उनके हाथ में होता जो एक नली के सहारे सेनेटरी पैड से जुड़ा होता. मुरुगनाथम् चलते-फिरते, साइकिल चलाते थोड़ा-थोड़ा खून पम्प करते जाते. उनके अनुसार ये उनके सबसे मुश्किल दिन थे. औरतों की समस्याएँ जानने के लिए उन्होंने खुद औरतों की दिनचर्या और दिमाग में उतरने फ़ैसला किया. यहाँ वो हमारी पौरुष की परिभाषा को हराते हैं और मासिक धर्म से जुड़े अशुद्धि और कमज़ोरी जैसे पूर्वाग्रहों को भी. और ऐसा करके अच्छा ही करते हैं.
लेकिन अब तक उनकी पत्नी शांती का धैर्य जवाब दे चुका था. उन्हें शक होने लगा कि मुरुगनाथम् लड़कियों से बात करने के बहाने ढूंढते रहते हैं. वो उन्हें छोड़कर चली गयीं. कुछ महीनों में तलाक का नोटिस भी आ गया. लेकिन वो सपना ही क्या जो आपको चैन से सोने दे. जुनूनी मुरुगनाथम् ने लड़कियों से उनके इस्तेमाल किये हुए पैड माँगने शुरू कर दिए. वो उनका कभी खुद परीक्षण करते कभी किसी टेस्टिंग लैब में भेजते. उनकी माँ ने पहले उन पर से भूत-प्रेत उतरवाने के जतन किये और आखिरकार अपनी क़िस्मत ठोंक कर घर छोड़ दिया. गाँव वालों को लगता कि मुरुगनाथम् को कोई गुप्त रोग हो गया है. दोस्त उन्हें देखकर रास्ता बदलने लगे. आखिरकार उन्होंने पता लगा ही लिया कि सेनेटरी पैड बनते तो लकड़ी की लुगदी से ही हैं लेकिन उन्हें बनाने की भारी- भरकम मशीन बहुत महंगी है. मुरुगनाथम् उस मशीन एक छोटी और सस्ती नक़ल बनाने की कोशिश करने लगे.
आज जब मुरुगनाथम् आई.आई.टी और आई.आई.एम. में लेक्चर देते हैं तो कहते हैं, “मैं आपलोगों की तरह पढ़ा-लिखा नहीं था, इसलिए तमाम असफलताओं के बाद भी रुका नहीं. पढ़ा- लिखा होता तो कब का रुक जाता.उनका ये कथन सबसे करारी चोट करता है. पढ़- लिख कर हम सबने एक जैसी डिग्रियां पायीं और अपनी मौलिकता खो दी. स्थाई नौकरी पाने की जद्दोजहद, कुछ नया कर दिखाने के जूनून पर हावी हो गयी. ये हमारे अभिजात्य की हार है जिसकी ठसक में हमने मुरुगनाथम् जैसों को हमेशा हेय समझा है.  

अंततः वो मशीन बन गयी. कम लागत में बढ़िया गुणवत्ता के सेनेटरी नैपकिन बनाने का तरीका मिल गया. उस देश में जहां सेनेटरी नैपकिन की पहुँच शहरी इलाकों में सात प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में सिर्फ दो प्रतिशत है, वहां ये तकनीक मुरुगनाथम् के लिए सोने की चिड़िया साबित हो सकती थी. लेकिन उन्होंने न सिर्फ इसे पेटेंट कराने से मना कर दिया बल्कि ये मशीनें ग्रामीण महिलाओं को मुफ्त में इस्तेमाल करने को दे दी. उनका लक्ष्य इसके ज़रिये ग्रामीण महिलाओं के लिए ज्यादा से ज्यादा रोज़गार और स्वास्थ्यकर ज़िन्दगी मुहैया कराना है. यहाँ वो हमारे अर्थशास्त्र को हराते हैं जो सिर्फ मांग-आपूर्ति और अधिकतम लाभ का रट्टा लगाता है. बस यही एक हार हमें नहीं कचोटती.
आज सैकड़ों गाँव और कई देशों में मुरुगनाथम् की तकनीक और उनके नाम की धाक पहुँच चुकी है. उनके जीवन पर मेंसट्रूअल मैननामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है. आई.आई.टी से सर्वश्रेष्ठ आविष्कारसमेत कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं. लेकिन मुरुगनाथम् को अभी भी चैन नहीं मिला है. वे वर्ष २०३० तक इस तकनीक को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचाना चाहते है. तभी उनकी रजोनिवृतिहो पायेगी. इसे उन्होंने भारत की सेनेटरी पैड क्रान्तिका नाम दिया है. भारत की कुछ जनजातियों में तरुण कन्या के पहले मासिक-स्राव पर पर्व मनाया जाता है. क्योंकि अब वो प्रजनन करने लायक हो गयी है और वंशवृद्धि कर सकती है. इसी तरह मुरुगनाथम् के मासिक धर्म के फलदायी होने का एक उत्सव हम सबको मनाना चाहिए. इसी बहाने कम से कम एक प्रतिबंधित विषय पर बात तो हो सकेगी.

और चूंकि हम सबको सुखान्त पसंद है, इसलिए बता दूं कि अरुणाचलम् मुरुगनाथम् की पत्नी और माँ उनके पास वापस आ चुकी हैं! 


Monday, October 14, 2013

क्यूंकि हमें स्त्रियों की ज्यादा चिंता है!



जनसत्ता में यह लेख
इमेज- जनसत्ता ई पेपर से साभार
पिछले दिनों जनसत्ता में वरिष्ठ लेखक-पत्रकार राजकिशोर जी का लेख प्रकाशित हुआ. लेख वैसे तो सोशल मीडिया के बारे में है जिस पर बहुत कुछ लिखने और समझने को है, पर ना जाने कैसे ये सिर्फ स्त्रियों पर केन्द्रित होकर रह गया.  इसमें उन्होंने ‘कर सकते हैं’ में ‘कर सकती हैं’ को शामिल बताया है और ‘स्त्री’ में ‘स्त्रीवादियों’ को. और पूरा लेख इसी अतार्किक अवधारणा का प्रतिबिम्ब है. इस लेख से मुझे कुछ सैद्धांतिक असहमतियां हैं और कुछ सवाल भी, जिन्हें यहाँ लिख रहीं हूँ-
पहला सवाल तो ये कि अगर समाज में ही ‘फेस’ को ‘बुक’ से ज्यादा महत्त्व मिलता है तो ‘फेसबुक’ उसे उलट कैसे देगा, जैसा कि राजकिशोर जी कि उम्मीद है? और दूसरा यह कि, तकनीक का सदुपयोग करने और अपनी बौद्धिकता साबित करने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों पर ही क्यूँ हो?
तकनीक हो या तंबाकू, मोबाइल फ़ोन हो या फेसबुक. इनके उपयोग- दुरुपयोग की चिंता अगर हमें है तो लड़कियों के लिए ये चिंता हमारी दुगुनी हो जाती है. कोई भी नयी वस्तु या परम्परा समाज में स्त्रियों के लिए देर से ही स्वीकृत होती है. हमारे छोटे शहरों में शायद ही लड़के अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में भारतीय वेशभूषा में दिखें लेकिन लड़की का जींस पहन लेना उसे ‘बुरी’ लड़कियों की श्रेणी में शामिल करने के लिए काफी है. नयी बातों, विचारों और तकनीक के प्रति हमारी पहली  स्वाभाविक प्रतिक्रया अक्सर शंका और प्रतिरोध की ही होती है. लेकिन लड़कियों का जीवन और शरीर हमारे रीति-रिवाजों के रक्षण-संरक्षण का सबसे उपयुक्त स्थल है. इसलिए किसी भी बदलाव का उन तक पहुँचने का रास्ता ज्यादा दुर्गम है. यही बात नयी तकनीकों पर भी लागू होती है.
पहले तो हम ये समझते हैं कि किसी तकनीक को इस्तेमाल करने की लियाक़त औरतों में है ही नहीं. औरतों को बुरा ड्राइवर और खराब टेक्नीशियन बताने वाले चुटकुलों की हमारे पास भरमार है. अगर कभी ये मशीनें उनके हाथ लग भी गयीं तो उनकी हर हरकत को सूक्ष्मदर्शी से देखा जाएगा. किसी आदमी के द्वारा कार दुर्घटना हो जाने पर आप ये नहीं कहेंगे कि आदमी बुरे ड्राइवर होते हैं. लेकिन कोई कार चलाती महिला अगर गलत दिशा में मोड़ ले तो हम सब यही कहेंगे कि ‘औरतें ऐसे ही चलातीं हैं.” खाप पंचायत आये दिन लड़कियों के मोबाइल रखने पर प्रतिबन्ध लगाने जैसे ऊट-पटांग फरमान जारी करती रहती है. सवाल ये है कि अगर लडकियां और लड़के एक दूसरे से बात करके मोबाइल का दुरुपयोग कर रहें हैं तो प्रतिबन्ध एकतरफा क्यूँ हो?
भारत के आम लोगों की जिन्दगी में सोशल मीडिया की दस्तक ज्यादा पुरानी नहीं है. इसकी उपादेयता और नुकसान के बहुत से आयामों पर बहस होनी अभी बाकी है. औरतों की श्रृंगारप्रियता और फेसबुक पर इसके दिखावे को लेकर राजकिशोर जी ने सवाल तो उठा दिया पर उसे सामाजिक सन्दर्भ में देखने की कोशिश नहीं की. हम सब को समाज से लिखी- लिखाई पटकथा मिलती है. उनसे अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रशंसा मिलती है और वैसा न किया तो सज़ा भी. लड़कियां लड़कों के मुक़ाबले आसानी से रो देती हैं क्यूंकि उनका ऐसा करना सामान्य माना जाएगा जबकि लड़के ऐसा नहीं कर सकते क्यूंकि उन्हें पता है कि इससे उनका मजाक बनेगा. यही बात फेसबुक पर अपनी अलग-अलग पोज़ में फ़ोटो डालने पर भी लागू होती है. सोशल मीडिया में हर व्यक्ति अपनी सामाजिक समझ और ट्रेनिंग के साथ आता है. जो जैसा समाज में है कमोबेश वैसा ही अपने फेसबुक या ट्विटर खातों पर भी व्यवहार करेगा. पहले जो लोग आपको भगवान को न मानने पर पाप लगने से डराते थे वो ही अब फेसबुक पर भगवान की फोटो साझा या लाइक न करने पर कुछ बुरा होने की वर्चुअल धमकियां देते दिख जाते हैं. ऐसे में लड़के और लड़कियों के व्यवहार में भी विभिन्नता दिखे तो हैरानी की बात नहीं है. दोनों का समाजीकरण और ट्रेनिंग समाज में अलग तरह से होती है. लेकिन एक को दूसरे से बेहतर क्यूं माना जाय? लड़कियों पर ये साबित करने का अतिरिक्त भार क्यूँ हो कि वो तकनीक का सदुपयोग ही करेंगी? जितनी विभिन्नता लड़के और लड़कियों में है, उससे कहीं ज्यादा अंतर लड़की-लड़कियों और लड़कों-लड़कों में आपस में है. न हर, लड़की हर घंटे अपनी फोटो बदलने में मशगूल है और न ही हर लड़का बौद्धिक बहस करके सोशल मीडिया के ज़रिये देश का उत्थान कर रहा है. दरअसल, कोई भी व्यक्ति हर वक्त तार्किक नहीं होता. वैसे भी फ़ोटो बदलने की दर का किसी के बुद्धिमान या बुद्धिहीन होने से क्या लेना-देना है? समाज पूरी तरह से नहीं बदला है इसलिए सारी स्त्रियाँ भी नहीं बदलीं है. ज्यादा नहीं तो रविवार को अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन पलट डालिए, कितने लोग अपने पुत्र के लिए बौद्धिक कन्या की मांग करते हैं? लड़कियों की ख़ूबसूरती को हमेशा से समाज में उनके अन्य गुणों से ज्यादा महत्त्व दिया जाता रहा है, सोशल मीडिया उसका एक प्रतिबिम्ब मात्र है. दरअसल राजकिशोर जी ने स्त्री और स्त्रीवादी को एक ही शब्द मान लिया है और इसी वजह से ऐसी अतार्किक बात लिखी है. न हर एक स्त्री, स्त्रीवादी है और न ही स्त्रीवाद की समर्थक सिर्फ स्त्रियाँ हैं.
देश के अधिकाँश हिस्सों में सोशल मीडिया का पहुँचना अभी बाकी है. लेकिन कम से कम जिन लोगों तक इसकी पहुँच है, अभिव्यक्ति के माध्यमों में शायद सोशल मीडिया ही एक ऐसा है जहाँ अपनी बात कहने-लिखने के लिए आपको किसी का मुंह नहीं ताकना है. प्रकाशित या लोकप्रिय होने की चिंता नहीं करनी है. ऐसे में इसे बस एक माध्यम ही रहने दिया जाय तो अच्छा है. क्योंकि बौद्धिक होने या दिखने की अनिवार्यता के साथ ही उसमें एलीटिस्ट (उच्चवर्गवादी) हो जाने का ख़तरा है. और साथ ही एक सवाल भी कि, बौद्धिक होने की कसौटी क्या है और इसे निर्धारित कौन करेगा?

वैसे भी, अगर हम शुरू से ही लड़कियों को हर लिहाज से कमतर समझते आये हैं तो एक भी ऐसा उदाहरण हमारी विचारधारा की पुष्टि करने के लिए काफ़ी है और उसके विरोध में उपस्थित सैकड़ों प्रमाण भी हमारे लिए अदृश्य ही रहेंगे. अपनी फ़ोटो बदलते रहने वाली लड़कियां तो दिखेंगी लेकिन हनी सिंह के वीडियो और बेकार के चुटकुलों को शेयर करने वाले लड़के नहीं दिखेंगे. क्यूंकि अंततः हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं!

यह लेख जनसत्ता के सम्पादकीय में प्रकाशित है- 
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/53607-2013-10-28-04-14-19)

Tuesday, September 17, 2013

हर समस्या का समाधान फांसी है?


१६ दिसंबर की घटना की कालिख जो हमने कभी दिल्ली, कभी दिल्ली पुलिस तो कभी हनी सिंह जैसों के ऊपर पोतने की कोशिश की थी, जो थोड़ी-थोड़ी हम सब के चेहरों पर पुतनी चाहिए थी, वो फांसी के जश्न में स्वाहा हो गयी. और हम सब ने चैन की सांस ली कि अब सब कुछ बदल जाएगा. ड्राइंग रूम की चमेली पहले जितनी ही चिकनी रहेगी, भाई (छोटा वाला भी) पहली जितना ही प्रोटेक्टिवरहेगा जो कभी भी गेट पर ज्यादा देर खड़े होने के लिए बहन को डांट देगा, हमारी माँ का नाम अब भी घर के दरवाज़े पर नहीं होगा, लेकिन दुनिया फिर भी स्वर्ग होगी क्योंकि रेयरेस्ट ऑफ रेयरअपराधी जहन्नुम के रास्ते पर हैं.
मानवाधिकार की गुहार फिलहाल किसी को हजम नहीं होगी, आजकल बयार ही ऐसी है. उसकी बात नहीं करते. लेकिन आंकड़ों की माने तो अमेरिका के जिन राज्यों में फांसी का प्रावधान है उनमें अपराध दर उन राज्यों के मुक़ाबले कहीं अधिक है जहां इस सज़ा का प्रावधान ख़त्म किया जा चुका है. दरअसल इक्का-दुक्का मामलों में फांसी नहीं बल्कि हर मामले में सुनिश्चित सज़ा का डर ही अपराध को रोक सकता है. एक बात और भी है, सज़ा जितनी कड़ी हो कोई भी न्यायाधीश या न्यायपीठ उस सज़ा को देने से बचना चाहता/चाहती है. ऐसे में बलात्कार की सज़ा फांसी होने से सज़ा होने की दर कम ही हो जायेगी जो वांछनीय नहीं है.
लेकिन इस सज़ा का असल हक़दार है कौन? अगर मान लें कि उस रात की घटना एक नाटक थी, तो उसमें शामिल वो छः आदमी तारीफ़ के पात्र हैं. उन्होंने पुरुषनामक पात्र को बिल्कुल हमारी भावनाओं के अनुरूप जिया. कोई भावनात्मक कमजोरी नहीं, कोई डर नहीं, सिर्फ और सिर्फ पाशविक बल. वो लड़की बहुत बुरी ऐक्ट्रेस थी और उस नाटक की कमजोरी भी, जो न सिर्फ गलत समय और जगह पर स्टेज पर आयी बल्कि दया की भीख मांगने वाला डायलॉग भी भूल गयी. तभी तो हमें उसका देश की बेटीके रूप में दोबारा नामकरण करना पड़ा ताकि वो हमारे समाज में अच्छीलड़कियों के लिए स्थापित चुनिन्दा श्रेणियों फिट बैठ सके और हम उसके लिए दुःख जैसा कुछ महसूस कर पायें. लड़कियों को इंसान से कमतर और लड़कों को इंसान से बद्तर बनाने की इस प्रक्रिया में हमारी बरसों की मेहनत लगी है. ये कुछ महीनों के प्रोटेस्ट मार्च से नहीं जाएगी. लैंगिक असमानता बलात्कार की देन नहीं, बलात्कार इस असमानता की एक हिंसक अभिव्यक्ति मात्र है.
एक परुष मित्र ने इस घटना के बाद मुझसे बड़ी तक़लीफ भरी आवाज में पूछा, ‘मैं भी लड़का हूँ, क्या मैं भी किसी दूसरे इंसानके साथ ऐसा कर सकता हूँ?’ मैंने जवाब तो नकारात्मक दिया लेकिन फिर सोचा कि हमने लड़कियों को एक स्वतंत्र इंसान का दर्जा दिया ही कब है? वो किसी साथी इंसान के साथ ऐसा नहीं कर सकता लेकिन किसी चीज’  के साथ ज़रूर कर सकेगा. लड़कियों को वस्तु बनाने की चेतन/अचेतन और सुनियोजित प्रक्रिया में हमने भाषा, धर्म, बाजार, संस्कृति हर चीज का सहारा लिया है. अब ये असमानता हमारे दैनिक जीवन में इतना रच-बस गयी है कि उसका विरोध कर पाना नामुमक़िन सा है. आपसे पूछा जाय कि आप अपनी माँ को ही तुम क्यूँ कहते हैं?’ तो आप कहेंगे कि ये तो मेरा प्यार है’, चीयर गर्ल्स को घूरने से रोका तो आप कहेंगे कि इससे कुछ नहीं होता’, ‘कन्यादानजैसे शब्दों पर सवाल उठाया तो आप कहेंगे ये तो रस्म है’. ये हम हर दिन सुनते हैं, ‘एक फिल्म ही तो है’, ‘एक चुटकुला ही तो है’, ‘एक विज्ञापन ही तो है’. हम किसी हिंसक बलात्कार का विरोध कर सकते हैं, लेकिन अपने मनोविज्ञान की तहों में हम सब (लड़कियां भी) सेक्सिस्टहैं. ज्यादा दूर क्यूँ जाएँ इसी प्रोटेस्ट मार्च में शामिल एक पोस्टर पर नज़र डालिए- ‘If you can’t protect us, kill us in the womb.’ (अगर आप हमें सुरक्षित नहीं रख सकते तो हमें कोख में ही मार दीजिये’). मतलब अगर लड़की पैदा की तो ताउम्र उसे सुरक्षित रखने का झंझट पालिए. हमारे इरादे तो नेक हैं लेकिन फिर भी हम अपनी अभिव्यक्तियों को नहीं बदल पा रहे हैं. दरअसल, हम सब उसी मिट्टी के बने हैं जिसे हम किसी बेहतर सांचे में ढालने की कोशिश कर रहें हैं. इन तत्वों ने ही हमें बुना है और इसके साथ हम बड़े हुए हैं. हमारे घर-समाज में ऐसा ही होता आये है इसलिए इनकी बुराइयाँ गिनवाने वाले को छिद्रान्वेषी या 'अति-प्रतिक्रियावादी' होने का तमगा मिलना ही है.
१६ दिसंबर की घटना के बाद की अपाधापी में वेश्यावृत्ति से लेकर, अश्लील गानों और विवाह के अन्दर रेप तक पर चर्चा हुई. कुछ काम की बातें हुईं कुछ में सनसनी ज्यादा थी. लेकिन कम से कम हमने इस बात को पहचानना तो शुरू किया था कि अपने घरों में हमने जो सामाजीकरण की फैक्ट्रियां लगाईं हैं उनका उत्पाद कुछ गड़बड़ है. लेकिन इस सजा की सुनवाई के साथ ही बड़ा घातक आत्मसंतोष हम सब पर हावी होने लगा है. पहले एक अपराधबोध था जो अब हवा हो गया है. जनाक्रोश को बस एक बलि का बकरा चाहिये था जो मिल गया. सबने मान लिया है कि हल निकल गया है और अब किसी क्रान्ति की न तो फुर्सत है ना ही जरूरत लगती है.
हर हिंसा में खून नहीं बहता, हर असमानता इतनी आसानी से नजर नहीं आती. असमानता की जो घुट्टी बचपन से पी और पिलाई है उसका हल सिर्फ़ कड़े कानून और फांसी के फंदे से नहीं निकलेगा. चूंकि ख़ुद को बदलने में कष्ट होगा इसलिए दिल्ली, मुंबई या पाश्चात्य सभ्यता पर इल्जाम थोपना और अपराधियों को मृत्युदंड पर चैन की सांस लेना, आसानी से बच निकलने का रास्ता भर है. इन बातों को हम समय रहते समझ लें तो अच्छा है. समाज को बर्बर बनाएं या मृत्युदंड ख़त्म कर दें, लिंगभेदी बने रहें या बदलने का कष्ट उठायें, इसका निर्णय हमें ही करना है क्यूंकि यहाँ हमें ही रहना है!


Thursday, August 15, 2013

निक़ाबी निन्जा और बुर्के की बहस


आपकी आधुनिकता का परिचय आपके ख़यालात देते हैं या कपड़े? जिस तालिबान को अमेरिकी सेना से डर नहीं लगता वो पंद्रह-एक साल की उस लड़की से क्यूँ घबराता है जिसके हाथों में किताब है? हमें देसी कपड़ों में सजे-धजे लोग पिछड़े क्यूँ नज़र आते हैं? औरतों पर कुछ ख़ास ड्रेस-कोड थोपना बुरा है लेकिन क्या जबरदस्ती उघड़वा देना इसका हल है?
और बुर्के की तो बात ही न कीजिये. हर कोई मुस्लिम औरतों को आधुनिकता की रोशनी दिखाना चाहता है. फ़्रांस की सरकार हो या पश्चिमी साम्राज्यवाद, नारीवादी हों या सेक्युलरिस्ट, सबको बुर्काधारिणियों पर तरस आता है. ऐसे में पाकिस्तान में बनी एक कार्टून फिल्म और वीडियो गेम बुर्का अवेंजर ने आधुनिकता बनाम बुर्के पर बहस छेड़ दी है. इसकी हिरोइन एक स्कूल टीचर 'जिया' है जो दिन में लड़कियों को पढ़ाती है और रात में बुर्के में अपनी पहचान छुपा कर कठमुल्लों से लड़ती है जो लड़कियों के स्कूल बंद कराने पर आमादा हैं. उसकी कलम सचमुच तलवार से भी ज्यादा ताकतवर है, कराटे-कला और किताबें उसका हथियार हैं. अपने लहराते बुर्के की मदद से पेड़ों-छतों पे छलांग लगाती है. उसकी तुलना मलाला से हो रही है जिन्होंने अपनी क़िताब और कलम के बल पर रूढ़िवादियों को कुछ ऐसे ही छकाया था. लोग हैरान भी हैं कि दमन का प्रतीक बुर्का किसी आधुनिक सुपर हिरोइन पर कैसे जंच सकता है?  
दरअसल, आधुनिकता की बात हम ऐसे करते हैं मानो वो कोई इकहरा चोला हो, कुछ ख़ास तरह की चाल- ढाल और कपड़े-व्यवहार अपना लिए और बस मॉडर्नहो गए. बात महज ऊपरी रंगत से कहीं गहरी है. मैं बुर्के की हिमायती नहीं हूँ. स्वेच्छा (?) से बुर्का अपनाने वाली कई महिलाओं का कहना है बुरका उन्हें सुरक्षा और आत्मविश्वास देता है. अपनी सुरक्षा के लिए महिलाओं को अपनी पहचान छुपाने के लिए मजबूर करने वाला समाज निश्चय ही आधुनिक नहीं है. आधुनिकीकरण, सशक्तीकरण, महिला स्वतन्त्रता, इन सबकी परत-दर-परतें हैं. सामाजिक मानदंडों को धता-बता कर अपनी मर्जी के कपड़े- व्यवहार- आदतें अपनाने वाली लड़कियां तो मॉडर्न हैं हीं, लेकिन सर ढककर लड़कियों की शिक्षा की हिमायत करने वाली मलाला उन बिकनीधारिणियों से कहीं ज्यादा आज़ादख़याल है जो दुनिया की नज़र में सुन्दर बने रहने के लिए बिना खाए अधमरी हो रहीं हैं. अगर किसी लड़की को बिना कठमुल्लों का शिकार बने शरीर दिखाने का अधिकार है तो उसे फैशन और आधुनिकता के मानदंडों की परवाह किये बिना अपना शरीर ढकने का भी उतना ही अधिकार होना चाहिए. इस बात का ध्यान रखना होगा कि आधुनिकता के नाम पे हम कहीं किसी ख़ास तरह की संस्कृति और वेश-भूषा को तो बढ़ावा नहीं दे रहे? परदे की जगह सेक्चुअल ओब्जेक्टीफिकेशनको बैठा कर हम कुछ नहीं पायेंगे. आधुनिकता का मतलब ऐसा समाज बनाने से है जहां औरतें अपनी मर्ज़ी से पढ़ और पहन सकें. 
मध्य-पूर्वी और इस्लामी देशों की औरतों की चिंता में दुबले होते हुए हम ये भूल जाते हैं कि असल विद्रोह उनके अन्दर से ही पैदा हो रहा है. दमित ही दमनकारियों के खिलाफ़ उठ खड़े होते हैं. मलाला वहीं पैदा होती है जहां उसे गोली मारने वाले हैं. अमेरिका इन देशों में जितनी भी दखलंदाज़ी करे, खुद फूटी क्रांती ही कोई स्थाई परिवर्तन ला पाती है. इसलिए इन औरतों को आधुनिकता की अपनी परिभाषा और मानक खुद गढ़ने दीजिये. अपने बुर्के-बंधन काटकर कर ख़ुद निकलने दीजिये.
इस कार्टून फिल्म को, बुर्के को युवतियों के बीच कूलका दर्जा दिलाने की साजिश बताने वाले ये भूल जाते हैं कि 'बुरका अवेंजर' उर्फ़ स्कूल टीचर जियाअपनी रोज़मर्रा की जिन्दगी में बुर्का नहीं पहनती. ऐसा वो सिर्फ गुंडों से लड़ते वक्त अपनी पहचान छुपाने के लिए करती है. काल्पनिक सुपरहीरो हमेशा से अपनी पहचान छुपाते रहे हैं. अपने देशकाल और सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तानी सुपरहिरोइन ने मास्क की जगह बुर्का इस्तेमाल कर लिया तो इसमें बुरा क्या है?
बरसों से डिज्नी लड़कियों को परियों और नाजुक राजकुमारियों की कहानी सुना रहा है, उन्हें सिंड्रेला और मरियल बार्बी जैसे फिगर पाने के सपने दिखा रहा है और दुनिया को बचाने की ज़िम्मेदारी बैटमैनऔर सुपरमैनने ले रखी है. ऐसे में उन्हें अगर किताब-क़लम के बल पर बाबा बन्दूकसे लोहा लेने वाली सुपरहिरोइन मिल गयी है तो अच्छा ही है ना? इंग्लिश वीडियो गेम्स में औरतें कटे- कुतरे कपड़ों में सिर्फ गेम का ग्लैमर बढाती हैं. जब पश्चिमी 'कैटवुमन' या 'वंडरवुमन' परदे पे आती भी हैं तो कटे-फटे और तंग रेक्सीन सूटों में जो उन्हें ताकतवर से ज्यादा उत्तेजक दिखाते हैं. ऐसे में अपनी निक़ाबी निन्जा को देखना अच्छा लगता है, बिना ये जाने की उसकी कमर कितनी पतली है और फिगर कितना संतुलित है!  

ये लेख जनसत्ता में प्रकाशित  है- http://epaper.jansatta.com/151320/Jansatta.com/24-August-2013#page/6/1