प्रेम करने की क्या कोई शाश्वत पद्धति होती है? क्या कोई विरह वियोग में पहाड़ तोड़े उसके लिए ज़रूरी है कि उसकी पत्नी राधिका आप्टे जैसी सुन्दर दिखती हो? इतनी कि उसकी बेदाग़ खूबसूरती और सांवला सलोनापन आपको धूल-घक्कड़ भरे गाँव में चुभे. जब उसके बच्चे, पति सब मिट्टी से पगे हैं, सगी बेटी तक का शरीर कुपोषित और बाल भूसे से हैं, उसी देशकाल में दशरथ मांझी की पत्नी के बाल क्या इसलिए लहलहा रहें हैं ताकि हमें उनका प्रेम विश्वसनीय लगे? दशरथ मांझी जब फ़िल्म में अपनी बालिका वधु को बरसों बाद देख कर कहता है, 'ई फगुनिया है? ई हमार महरिया है?' तो क्या क्या फगुनिया की रूप राशि ही उसके गौना कराने की बेसब्री का एकमात्र उत्प्रेरक रही होगी. क्या उनकी पत्नी राधिका आप्टे की जगह सीमा बिस्वास जैसी दिखती होती मांझी के प्रेम की तीव्रता कुछ कम हो जाती? कुल मिला कर हमने अपने नायक की जगह तो नवाज़ुद्दीन को स्वीकारना शुरू कर दिया है पर नायिका अभी भी खूबसूरत चाहिए. या ये सिर्फ़ फिल्मकार का भ्रम है जो ज्यादा रिस्क नहीं लेना चाहते?
फ़िल्म में मांझी फगुनिया को तरह-तरह से रिझाना शुरू करता है और मेरे अन्दर की एन्थ्रोपोलोजिस्ट मुझे कचोटना. ये कि पुरुष अपनी साधन सम्पन्नता से औरत को रिझाता है और कमाने खाने के कौशल से विहीन स्त्री उसके इसी कौशल पर रीझती है, लम्बे समय तक हमारी evolutionary psychology की स्वीकृत थ्योरी रही है. यहाँ तक कि इंसान के अलावा दूसरे स्तनपायी जीवों में भी नर-मादा संबंधों को इसी नज़रिए से देखा गया. लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान के हर अनुशासन में यूरोपी पुरुषों का वर्चस्व टूटना शुरू हुआ वैसे-वैसे ये समझ विकसित होने लगी कि प्रेम और विवाह को समझने का ये तरीका यूरोपी समाज के भी एक ख़ास वर्ग से जन्मा है और सिर्फ़ उसी पर लागू भी होता है. फिर भी यह बात तमाम हॉलीवुड फिल्में घूम-फिर कर दोहराती रहीं हैं और शायद नक़ल के ज़रिये हमारी भी लोकप्रिय फ़िल्मों में घुस आयी है. और अब हमारे मानस को ऐसे जकड़े बैठी है कि जाने का नाम नहीं लेती.
जबकि हमारे अपने ही देश में कई वर्ग समाज ऐसे भी हैं जिनमें स्त्री-पुरुष सम्बन्ध इतने ग़ैर बराबरी के नहीं है. ख़ास तौर पर फ़िल्म जिस जाति और वर्ग की बात कर रहा है वहां औरतें ज्यादा नहीं तो कम कुशल भी नहीं होतीं. घर-बाहर पति के साथ उसके बराबर का काम करती हैं. अपने आस-पास की प्राकृतिक संपदा का भी पूरा ज्ञान रखती हैं. ऊंची कही जाने वाली जातियों के हाथों दमन उन्होंने साथ झेला है. उनका पति-पत्नी सम्बन्ध अपेक्षाकृत समता का है. शायद इसीलिये उनके यहाँ दहेज़ के बजाय लड़के वाले लड़की वालों को विवाह के वक्त रुपये देते हैं. जिस प्रथा को 'बेटी बेचना' कह कर तिरस्कृत किया गया और अंततः दहेज़ उसकी जगह लेता गया.
फ़िल्म में भी वही हुआ है क्यूंकि फ़िल्मकार ने अभिजात्य वर्ग के लिए फ़िल्म बनायी है. ख़ास जाति-वर्ग की विशिष्टताओं के बजाय प्रेम के जमे-जमाये फार्मूले फ़िट कर दिए हैं. ये विडम्बना है कि जो जाति-वर्ग हमारी फ़िल्मों में मुश्किल से जगह पाता है, इस दुर्लभ मौके पर भी उसको 'उच्च' वर्ग के नज़रिए से देखने की कोशिश की गयी है. जहाँ औरत बात-बात पर लजाती है और उसकी साड़ी या चेहरे पर कमरतोड़ मेहनत बाद भी शिकन नहीं आती. शायद मुख्यधारा में जगह पाने की शर्त ही अपने अनूठेपन को भुला देने की है. विविधताओं को समझने और उन्हें सम्मानित जगह देने के बजाय उन्हें सपाट कर देना हमारे सिनेमा की प्रवित्ति रही है. जो लोग मुख्यधारा से कुछ हटकर हैं, उनका जीवन भी शायद कुछ ऐसा ही है.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, प्याज़ के आँसू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद!
ReplyDeleteAfter a long saw your post...Amazing analysis. Keep it up !!
ReplyDeleteThanks Wageesh! :)
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