हम अजीब विरोधाभासी दुनिया में रहते हैं. फ़िल्म पी.के. के पोस्टर आते
ही एक लहर आमिर खान को न्यूड पोज़ देने की बहादुरी की प्रशंसा की चली तो वहीं दूसरी
लहर इस बहाने हिन्दी फ़िल्म उद्योग के दोगलेपन औए लिंगभेद पर हमले की. जो बॉलीवुड (मय
दर्शक) आमिर खान के पोस्टर के लिए नग्न होने को उनका कला के प्रति डेडिकेशन
बता रहा है, वही वर्ग शर्लिन चोपड़ा और पूनम पांडे के ऐसा करने को पब्लिसिटी स्टंट
कहकर फ़तवे जारी करता रहता है. लेकिन विरोध के लिए विरोध करने वाले किसी को भी निराश
नहीं करते. इस जमात ने आमिर पर भी ऑब्सिनिटी ऐक्ट के तहत मुक़दमा ठोंक दिया. अब
सबके सुर बदल गए हैं. लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा सनी लियोन ने किया होता तो यही
जमात आँखें सेंक रही होती.
इन सब विवादों से इतना तो खुल कर सामने आया है कि नग्न देह भी इस क़दर
जेंडर्ड है कि हम पुरुष की देह में बहादुरी और स्त्री की देह में कामुकता ढूंढ ही
लेते हैं. पी.के. का पोस्टर मात्र पब्लिसिटी स्टंट है या फिर सचमुच उस फ़िल्म की
कहानी की कुंजी, इसका फ़ैसला तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद ही हो सकेगा लेकिन ये
पोस्टर सामान्य न्यूड से थोड़ा अलग है.
इसमें आपकी नज़र सीधे आमिर की नज़र से मिलती
है, चेहरे के भाव से स्पष्ट है कि वो कुछ बतलाना चाहता है. इसके समानांतर ‘फ़ीमेल
न्यूड’ फ़िल्म या पोर्न में तो क्या, कला के इतिहास में भी ढूँढ पाना मुश्किल है. इनमें
चित्रित औरतें ज़्यादातर खोई हुई सी कहीं और देख रहीं होतीं है. आपकी नज़र उनकी नज़र
पर नहीं बल्कि सीधे उनके शरीर पर पड़ती है जो कि निरीक्षण के लिए हाज़िर है. कभी अगर
नज़र सामने होगी भी तो भाव हमेशा स्त्रियोचित कोमलता या कामुक आमंत्रण के होंगे. आप उन्हें देखे और वो
पलटकर आपको, फ़ीमेल न्यूड में ऐसे असहज व्युत्क्रम का सामना नहीं करना पड़ता. नारीवादी
चाहे नारी देह की स्वतन्त्रता की जितनी सिफ़ारिश करें लेकिन ज़्यादातर फ़ीमेल न्यूड पुरुष की दृष्टि के लिए बने हैं और वो स्त्री
के अपने भावों के बजाय उन्हें देखने वाले की कामेच्छा का प्रतिबिम्ब होते हैं.
लेकिन इन सबसे इतर एक मुद्दा सिर्फ़ नग्नता और उसके विभिन्न
निहितार्थों का भी है. मानव के जातिवृत्त और जीवनवृत्त दोनों ही में देखना, सुनने
और बोलने से पहले विकसित होने वाली इन्द्रिय है. हम जितना कुछ देख पाते हैं क्या
उतना ही और उसे वैसा का वैसा ही कह पाते हैं? दृश्य और भाष्य के बीच का यह फ़र्क ही
नग्नता और अश्लीलता के बीच का फ़र्क है. एक बार पढ़ना-बोलना सीख जाने के बाद हम
बालसुलभ भोलेपन से दुनिया को नहीं देख सकते. अब हमारे और हमारी आस-पास की दुनिया
के बीच हमारे ज्ञान और अनुभवों का पर्दा है. चूंकि बात फ़िल्म के पोस्टर से शुरू
हुई है इसलिए एक फ़िल्म का उदाहरण भी यहाँ मौजूं होगा. हाल ही में आयी फ़िल्म ‘आँखों
देखी’ के बाऊजी जब से सिर्फ़ अपनी आँखों देखी पर यकीन करने की ठान लेते हैं तब से
उन्हें वो चायवाला भी खूबसूरत नज़र आने लगता है जिसे उन्होंने पहले कभी ध्यान से देखा भी नहीं था. हम असलियत नहीं बल्कि असलियत की सांस्कृतिक हस्तक्षेप से बनी छवि देखते हैं. इसलिए
नग्नता हमारे लिए सिर्फ़ निर्वस्त्र होने से ज़्यादा कुछ हो जाती है. इसी वजह से तथाकथित सभ्य समाज में इसकी एक शॉक वैल्यू है जिसका उपयोग अलग-अलग तरीके से होता रहा है.
उदाहरण के तौर पर भारतीय सशक्त सेना बलों के द्वारा एफ्स्पा की आड़ में
किये जाने वाले बलात्कारों के विरुद्ध मणिपुर मदर्स के न्यूड प्रोटेस्ट या
फिर इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए ग्रामीण महिलाओं का नग्न होकर हल चलाना ले
सकते हैं. रूटीन से अलग होने ने ही नग्नता को उसकी शॉक वैल्यू दी है जो हमें कभी
कचोटती है तो कभी वीभत्स रस से भर देती है लेकिन हमारा ध्यान खींचने में हमेशा ही
सफ़ल रहती है. जहां 'न्यूड बीच' का चलन है या फिर जिन जनजातियों में कपड़े पहनने या
वक्ष ढंकने की बाध्यता नहीं है, वहां नग्नता पूरी तरह से डीसेक्चुअलाइज्ड है और
किसी को चौंकाती भी नहीं है.
न्यूडिटी का एक बहुत
महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक अर्थ शुद्धता और प्रकृति से निकटता का भी है. ये संयोंग
नहीं है कि ‘पेटा’ (people
for ethical treatment of animals) ने
शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए लोकप्रिय शख्सियतों के न्यूड या फिर उनकी सिर्फ़
पौधे-पत्तों में लिपटी छवियों का बारहा इस्तेमाल किया है. इसके अलावा, कोई विरला ही धर्म होगा
जिसके किसी भी पवित्र स्थल पर नग्न मूर्तियाँ या छवियाँ न मिलें. दिगंबर जैन, नागा
साधू इत्यादि की परम्परा विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में नग्नता को शुद्धता का
पर्याय माने जाने को रेखांकित करते हैं. जहां नग्न होना निराभरण और छलरहित होने का पर्याय हैं.
ऐसे में नग्नता को इतनी सहजता से सेक्स और अश्लीलता से जोड़ लेना हमारी
मानसिकता की दो परतों को उघाड़कर सामने लाता है. पहला कि नग्नता हमेशा सेक्स का
पर्याय है और दूसरा- हमारे लिए सेक्स से जुड़ी चीज़ें हमेशा अश्लील और गंदी ही
होंगीं. ये दोनों ही बातें हमारी साइकोलॉजी में घर कर चुकीं हैं. सेक्स एजुकेशन के
विरोध के पीछे भी कमोबेश यही मानसिकता है.
दरअसल बाज़ार और उपभोक्तावाद की संस्कृति के लिए नग्नता का कामुकता से
जुड़ा अर्थ ही सबसे अनुकूल है. शायद हमारी ही दमित कुंठाओं ने बाज़ार को संकेत दिया
होगा जिससे कि नग्नता फ़िल्म या कोई भी उत्पाद बेचने का सबसे सरल साधन बन गयी. शुरुआत
जहां से भी हुई हो, फ़िलहाल ये कुचक्र हमारे ऊपर इतना हावी हो चुका है कि हम
न्यूडिटी में शुद्धता या फिर कलात्मकता देखने की क्षमता खो बैठे हैं. वो चाहे किसी
भी रूप में किसी भी उद्देश्य से हमारे सामने आये, हमें हमेशा कामोत्तेजक ही लगती
हैं. ऐसे में पी.के. का पोस्टर चाहे कुछ भी इंगित कर रहा हो हमें तो वो अश्लील
लगना ही था. एक बार भाषा से बनी कृत्रिम दुनिया का हिस्सा बन जाने के बाद सिर्फ़ दृष्टि
बोध की शुद्ध दुनिया में लौटना असंभव है.
विचारोत्तेजक बढ़िया आलेख।
ReplyDeleteशुक्रिया सर!
Deleteवाह, सचमुच बहुत ही धाकड़ लिखती हैं आप,
ReplyDeleteपहली बार पढ़ा, पढ़ते ही रहना पड़ेगा।
धन्यवाद संतोष! ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
Deleteहम न्यूडिटी में शुद्धता या फिर कलात्मकता देखने की क्षमता खो बैठे हैं. वो चाहे किसी भी रूप में किसी भी उद्देश्य से हमारे सामने आये, हमें हमेशा कामोत्तेजक ही लगती हैं. ऐसे में पी.के. का पोस्टर चाहे कुछ भी इंगित कर रहा हो हमें तो वो अश्लील लगना ही था.
ReplyDelete************
अच्छा लिखा है आपने। ……उपरोक्त कथन से पूर्णतया सहमत हूँ। न्यूडिटी चाहे किसी रूप में हो। . लोग उसे किस दृष्टि से देखते है। । ये बिंदु आपने बहुत सही पकड़ा है।
लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में " बाजारवाद और न्यूडिटी" को आमिर खान जैसे लोग कैसे भुनाते है। . उस पर आपसे थोड़ा मुख्तलिफ़ विचार रखता हूँ। । समय मिला तो इस पर जरूर लिखूंगा और आपको लेख भेजूंगा।
बहरहाल। । जबरदस्त लेख। । बधाई आपको।
धन्यवाद विश्वनाथ जी, आपकी सहमति-असहमति दोनों का स्वागत है. आपके लेख का इंतज़ार रहेगा, लिंक ज़रूर भेजें.
Deleteबात सिर्फ़ हमारे अंतर्विरोधों की नहीं है, ज़रूरी सवाल है हम इन्हे अपने मुताबिक गढ़ते कैसे हैं? श्रीलाल शुक्ल 'राग दरबारी' का शुरवाती सीन कैसे बुनते हैं? वहाँ हमारा ध्यान बजाए इस बात पर नहीं जाता के महिलाएँ मुँह-अँधेरे जल्दी उठने को बाध्य हैं; हम वहाँ सड़क किनारे बार-बार गुज़रते ट्रकों को सलामी देने के लिए उठने की क्रिया/मुद्रा को अपने मस्तिष्क में उकेर रहे होते हैं।
ReplyDeleteख़ैर, हमने 'देह' की किन 'छवियों' को किन 'अर्थों' के साथ 'आत्मसात' कर लिया है, इसकी एक व्याख्या हमारे समाज की बुनावट/बनावट में साफ़ देखी जा सकती हैं, यह कपड़े होने, न होने से आगे जाता है। जिन्हे आप बार-बार रेखांकित भी करती रही हैं। आपका लिखना ज़रूरी है। लिखते रहिए।
धन्यवाद शचीन्द्र!
Deleteअच्छा लेख है। सवाल यह है कि हम किस बात या चीज को किस तरह से लेते या समझते हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी!
Deleteथोड़ा देर से पढ़ा, अच्छा लेख है। मेरा मानना है कि न्यूडिटी की यह बहस अधूरी है पर यह सच है कि यह बहस तब सर के बल खड़ी हो जाती है जब उसके केंद्र में 'लिंग' बदलता है।
ReplyDeleteआपने सही कहा प्रीति. कमेन्ट के लिए शुक्रिया!
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